यूक्रेन संकट: खलनायक से बेहतर है विदूषक

भारत की सरकार और अधिकांश जनता के लिए इस युद्ध के छिड़ने के मायने वहां पढ़ रहे भारतीय छात्रों की वापसी और पेट्रोल- डीजल के दाम बढ़ना है। परंतु यह युद्ध बहुत खतरनाक व दूरगामी विपरीत परिस्थितियाँ लेकर आया है। रूस बर्बादी के कगार पर है और चीन उस राह पर चल पड़ा है। भारत को भी अभी ही संभल जाना चाहिए और नए सिरे से अपनी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को संवारना व संजोना शुरू कर देना चाहिए।

Updated: Mar 05, 2022, 11:22 AM IST

विदूषक या कामेडियन और खलनायक या विलेन में से यदि चुनाव करना हो तो हम किसे बेहतर विकल्प मानेंगे? आज रूस व यूक्रेन के बीच छिड़े युद्ध में अनायास ही यह प्रश्न हमारे सामने खड़ा हो गया है। यूक्रेन के राष्र्नापति वोलोदिमीर जेलेंस्की का यह कहकर मजाक उड़ाया जा रहा है कि राजनीति में आने के पूर्व एक कॉमेडियन थे। वे पर्दे पर विदूषक थे, लेकिन पुतिन तो वास्तविक जीवन में क्रूर खलनायक की तरह स्थापित हो चुके हैं। तो अब चुनाव हमारे हाथ में है। 

ब्रिटिश लेखक जॉन विलियम्स ने एक अनूठी पुस्तक लिखी है, ‘‘वर्ल्ड एटलस ऑफ वेपन्स एण्ड वार।’’ यह छोटी सी पुस्तक है जो कि पिछले 9 हजार वर्षों से अधिक के युद्धों के बारे में आपको संक्षिप्त जानकारी देती है, लेकिन आपको विस्तार व व्यापक तौर पर सोचने को मजबूर करती है। विलियम्स स्वयं दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान पाँच वर्षों तक सेना में रहे हैं। इसके एक अध्याय में उन्हों ने हिटलर के उन तमाम हमलों और दूसरे देशों पर कब्जे के बारे में बताया है, जिससे दूसरे विश्व युद्ध की नींव डली। वर्तमान में हम रूसी राष्ट्रपति व्लाेदिमीर पुतिन के कार्यकाल पर और उनकी कार्यशैली और कारगुजारियों पर गौर करें तो उनमें और हिटलर की कार्यशैली में जबर्दस्त समानता दिखाई देती है।

ऐसे में हमें दो एक ही जैसे नाम वालों व्लाईदिमीर पुतिन, खलनायक और वोलोदिमीर जेलेंस्की, विदूषक के बीच में चुनाव करने में ज्यादा परेशानी नहीं होनी चाहिए। जेलेंस्की आजीवन राष्ट्र पति नहीं रहेंगे। उन्हें उनकी देश की जनता ने चुना है, उनकी अच्छाई-बुराई जानते हुए। यह जानते हुए भी चुना है कि वे एक पेशेवर कॉमेडियन हैं। मौका लगे तो चार्ली चैप्लिन (जिन्हें कॉमेडियन ही कहा जाता है, परंतु वे सिनेमा के संभवतः सबसे बड़े दार्शनिक हैं) की फिल्म ‘‘ग्रेट डिक्टेटर’’ जरूर देखिए। इसमें हिटलर की सनक को देखिए और समझिए। और इसके अंतिम दृश्य में बहते आँसुओं के बीच कॉमेडियन को सुनिये कि वह युद्ध के खिलाफ व मानवता के पक्ष में क्या कह रहा है।
संस्कृँत नाटकों में विदूषक की भूमिका पर गौर करिए। यह इन नाटकों का सबसे सशक्त पात्र होता है, जो कि राजा के सामने उसके मुँह पर सच बोलता है, उसकी कमियों की ओर इंगित करता है। यूक्रेन के राष्ट्रमपति का कमजोर या ताकतवर सिद्ध होना, स्वयं उन पर ही नहीं यूक्रेन की पाँच करोड़ जनता पर काफी हद तक निर्भर करता है।

द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारंभ होने के पहले गांधी जी ने 23 जुलाई 1939 को हिटलर को एक पत्र लिखा था। ब्रिटिश सरकार ने उस तक यह पहुँचने नहीं दिया। महात्मा ने इस पत्र में लिखा था, ‘‘दोस्त लोग मुझसे आग्रह कर रहे हैं कि मानवता की रक्षा के लिए मैं आपको लिखूं। कमोबेश यह तो स्पष्ट है कि आज दुनिया में आप ही एकमात्र व्यक्ति हैं जो कि एक ऐसे युद्ध को रोक सकता है, जिससे कि मानवता एक बर्बरता की स्थिति में बदल सकती है। आपको आपका उद्देश्य भले ही कितना ही मूल्यवान प्रतीत हो रहा हो, आपको इसकी कीमत चुकानी ही पड़ेगी। क्या आप ऐसे व्यक्ति की बातों पर ध्यान दोगे जिसने कि अधिक सफलता प्राप्त न करने के बावजूद युद्ध के रास्ते का त्याग कर दिया है?’’ 

हम यदि इसे पुतिन को पत्र लिखें तो क्या यह समकालीन नहीं हो जाता?

वस्तुस्थिति तो यही है कि रूसी राष्ट्रपति पुतिन यह युद्ध हार चुके है। रूस के भीतर ही इस युद्ध को लेकर उनका जबर्दस्त विरोध हो रहा है। परमाणु बम की धमकी भी स्पष्ट कर रही है कि पारंपरिक युद्ध जारी रखने की उनकी क्षमता हर दिन कम हो रही है। पुतिन की परमाणु युद्ध की धमकी को लेकर एक रूसी महिला पत्रकार ने बड़ी विचित्र टिप्पणी की है। उन्होंने इसे ‘‘पुतिन का वियाग्रा’’ की संज्ञा दी है। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि रूस की पारंपरिक सैन्य युद्ध क्षमता का लगातार पतन हो रहा है। वह कमोबेश स्थायी तौर पर क्षीण हो चुकी है। वहीं दूसरी ओर, यूक्रेन अंतरराष्ट्रीय वादाखिलाफी जिसमें रूस व अमेरिका दोनों एकसाथ यानी साझा रूप से शामिल थे, का शिकार हुआ है। यूक्रेन से वादा किया गया कि वह अपने परमाणु हथियारों का समर्पण कर देगा तो उसकी रक्षा की जिम्मेदारी रूस सहित तमाम देश ले लेंगे। परंतु यहां तो रक्षक ही भक्षक साबित हुए हैं। यूक्रेन ने दुनिया पर भरोसा किया और बदले में उसे जो मिला, वह हम सबके सामने है।

भारत की सरकार और अधिकांश जनता के लिए इस युद्ध के छिड़ने के मायने वहां पढ़ रहे भारतीय छात्रों की वापसी और पेट्रोल- डीजल के दाम बढ़ना है। परंतु यह युद्ध बहुत खतरनाक व दूरगामी विपरीत परिस्थितियाँ लेकर आया है। पिछले कुछ वर्षों से रूस ने कमोबेश चौथी बार इस तरह का कदम उठाया है और हर बार वह किसी भी तरह की नैतिक जिम्मेदारी की जद में स्वयं को नहीं लाया है। इस युद्ध ने संयुक्त राष्ट्र संघ की अनुपयोगिता भी सिद्ध कर दी और भारत की ढुलमुल नीतियों को भी उधेड़ कर रख दिया। एक देश के तौर पर अब हम सच को सच और झूठ को झूठ कह पाने की स्थिति में ही नहीं हैं। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए इससे अधिक बेचारगी और क्या होगी?

युद्ध की विभीषिका को लेकर भारतीय उपमहाद्वीप के दो स्थायी प्रतिद्वंद्वियों के दो महान कवियों की युद्ध संबंधित इन पंक्तियों पर गौर करिए। भारत के रामधारी सिंह ‘दिनकर’, ‘कुरुक्षेत्र’ में लिखते हैं -
‘‘युद्ध का उन्माद संक्रमशील है
एक चिंनगारी कहीं जागी अगर,
तुरंत बह उठते पवन उनचास है 
दौड़ती, हँसती, उबलती आग चारों ओर से।’’ 

वहीं पाकिस्तान के फैज़ अहमद फैज़ लिखते हैं -
‘‘आ गई फ़स्ले-सुकुँ चाक गरेबाँवालों
सिल गए होंठ, कोई जख्म सिले या न सिले
दोस्तों बज़्म सजाओ के बहार आई है 
खिल गए जख्म, कोई फूल खिले न खिले।

गौर करिए दुनिया के एक कोने में छिड़ा युद्ध कब से हमारे आपके आँगन में उतर आया है। सोवियत संघ का बनना और बिखरना। यूक्रेन व रूस का एक होना और फिर अलग-अलग होना। भारत का सहस्राब्दियों से एक रहना और फिर टूट कर भारत-पाकिस्तान बन जाना। क्या अलग हो जाना दुश्मनी है? भारत में 25 फीसदी के करीब लोग उर्दू बोलना जानते हैं। यूक्रेन की 40 फीसदी आबादी रूसी बोलती है। तो यह सब आपसी जोड़ की बातें हैं या टूटन की? पुतिन और शी जिंग पिंग भले ही आज की स्थिति को देखकर बहुत खुश हों, परंतु दोनों की तानाशाही मानसिकता उनके देशों के लिए बेहद नुकसानदेह साबित हो रही है। रूस बर्बादी के कगार पर है और चीन उस राह पर चल पड़ा है। देश साल दो साल में बर्बाद नहीं होते। थोड़ा अधिक समय लगता है, इस प्रक्रिया में। भारत को भी अभी ही संभल जाना चाहिए और नए सिरे से अपनी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को संवारना व संजोना शुरू कर देना चाहिए।

गांधी कहते हैं, ‘‘हिटलर तो दुनिया में आते-जाते रहेंगे। जो लोग सोचते हैं कि हिटलर के मर जाने या पराजित हो जाने पर हिटलरी भावना भी मर जाएगी, वे बड़ी भारी भूल कर रहे हैं। विचारणीय प्रश्न तो यह है कि हम उस भावना का मुकाबला कैसे करते हैं - हिंसा से या अहिंसा से। अगर हम उसका मुकाबला हिंसा से करते हैं तो हम उस दुर्भावना को प्रोत्साहन देते हैं। अगर हम अहिंसा से करते हैं तो हम उसे र्निबीज कर देते हैं।’’ 

रूस को सबक सिखाना हो तो यह अनिवार्य है कि यूक्रेन में लोकतंत्र किसी भी स्थिति में बना रहे और वहां के राष्ट्रिपति वोलोदिमीर जेलेंस्की को हर हाल में पद पर बनाए रखा जाए। युद्ध की समाप्ति के बाद वहां की जनता चाहे तो उन्हें लोकतांत्रिक ढंग से पुनः चुने या हटाये। वैसे भी पुतिन ने यूक्रेन की सेना से राष्ट्र पति को हटाने की जो अपील की है उसका भारत सहित दुनिया के सभी लोकतांत्रिक देशों को खुलकर विरोध करना चाहिए और जब तक पुतिन अपने शब्द वापस न लें उनका अंतरराष्ट्रीकय बहिष्कार किया जाना चाहिए। यह राष्ट्रर के नागरिकों का विशेषाधिकार है कि वे अपने शासक को चुनें। पुतिन यदि पुनः सोवियत संघ की स्थापना करना चाहते हैं तो उनको यह समझ लेना होगा कि अब जारशाही नहीं है और वे व्लादिमीर लेनिन भी नहीं है। अजीब संयोग है कि तीनों के पहला नाम कमोबेश एक सा ही है। 

पुतिन को समझना होगा कि क्रांति अपनी प्रतिक्रांति की जमीन स्वयं ही तैयार करती है। सोवियत संघ का विघटन एक किस्म की प्रतिक्रांति ही थी, जिसने एक दलीय शासन व्यवस्था के खिलाफ भी आवाज बुलंद की है। सोवियत संघ के गठन में भी यूक्रेन की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वह सन् 1922 में सोवियत संघ का हिस्सा बना। गौततलब है कि सन् 1932-33 में सोवियत रूस में पड़े भयंकर सूखे से करीब 80 लाख लोग मारे गए थे। इसमें से 60 लाख यूक्रेन में निवास करते थे। सन् 1953 में स्टालिन की मृत्यु के बाद निकिता खुश्चेव रूसी कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव बने। वे सन् 1953 से 1964 तक सोवियत संघ के सर्वेसर्वा थे और मूलतः यूक्रेन के ही थे। इस तरह से हम मान सकते हैं कि सोवियत संघ को नई दिशा देने में यूक्रेन का कम योगदान नहीं रहा है।

यूक्रेन पर हमला दूसरे विश्वयुद्ध के बाद लोकतंत्र व मानवता पर मंडराता यह बहुत बड़ा संकट है। ‘‘जियो और जीने दो’’ के सिद्धांत के ठीक विपरीत रूस के राष्ट्र पति पुतिन का यह कार्य वास्तव में संदेह पैदा कर रहा है कि क्या हम एक वैश्विक व्यवस्था के अंग हैं? सारी दुनिया को यह याद रखना चाहिए कि आज यूक्रेन की तो कल हमारी बारी भी आ सकती है। यूक्रेन संकट के दोहरे परिणाम सामने आ सकते हैं। या तो विश्व एक होने हेतु सहकार से आगे बढ़ेगा या सारे राष्ट्रै स्वयं को अति शक्तिशाली बनाने की दिशा में अग्रसर होंगे, जिसका अनिवार्य प्रभाव होगा मानव विकास के कार्यों की बली चढ़ना। तय हमें ही करना है। 

जॉन एलिया कहते हैं -
‘‘सबको पुरअम्न वाकया है ये
आदमी आदमी को भूल गया
यानी तुम वो हो? वाकई हद है
मैं तो सचमुच सभी को भूल गया।’’

अपने पड़ोसी को प्रेम से याद करिए।