जो वस्तु हमारे प्रारब्ध में है वो हमें मिलेगी ही

जैसे हजारों बछड़ों में गऊ अपने ही बेटे को दूध पिलाती है, वैसे ही मनुष्य चाहे कहीं भी रहे उसका प्रारब्ध उसके कर्मानुसार प्रदान करता है सुख दुःख

Updated: Sep 17, 2020, 12:40 PM IST

Photo Courtesy: devdayanand
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विरति चर्म संतोष कृपाना... संसार शत्रु से युद्ध करने के लिए धर्म रथ की आवश्यकता है। जिसमें शौर्य और धैर्य दो चके हैं,बल, विवेक, दम, परहित ये चार घोड़े हैं,उन्हें बांधने के लिए छमा कृपा और समता ये तीन रस्सियां हैं।ईश भजन ही सुजान सारथी है। वैराग्य ही ढाल और संतोष ही कृपाण है। विरति चर्म और संतोष कृपान। अब लोभ का नाश कैसे हो? तो कहते हैं कि लोभ का नाश लाभ से नहीं हो सकता। लाभ से तो लोभ और बढ़ेगा।

जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई, लाभा लोभप्रजायते।

लाभ से लोभ दिनों-दिन बढ़ता है। तो लाभ से लोभ को नहीं,बल्कि संतोष से लोभ का संवरण किया जा सकता है।  सन्तोषादनुत्तम सुख लाभ: जब मनुष्य को संतोष हो जाता है तो उसको उत्तम सुख की प्राप्ति होती है इसलिए संतुष्ट मनुष्य सदा सुखी रहता है। जहां तक लाभ का प्रश्न है तो जो हमारे प्रारब्ध में है वो हम संतुष्ट रहें तो भी मिलेगा और असंतुष्ट रहें तो भी मिलेगा। इसलिए लाभ के लिए मन को असंतुष्ट बनाने की आवश्यकता नहीं है। उससे तो मन अशांत ही होता है। एक श्लोक है कि -

प्राप्तव्य मर्थं लभते मनुष्य:, दैवोSपि तं लंघयितुं न शक्त:

तस्मान्न शोचामि न विस्मयो में, यदस्मदीयं नहि तत्परेशाम्।।

जो वस्तु हमारे प्रारब्ध में है वो हमें मिलेगी ही। दैव भी उसको नहीं बदल सकते। इसलिए किसी ने कहा है कि न तो मैं शोक करता हूं और न ही मेरे मन में विस्मय है। जो वस्तु मेरी है वो दूसरे की हो ही नहीं सकती।

इस संदर्भ में हमारे पूज्य गुरुदेव भगवान एक कथा सुनाते हैं कि कोई एक दंपति थे उनके घर में एक पुत्र ने जन्म लिया।वो ऐसा पुत्र था कि उसके हाथ पैर नहीं थे। केवल आंख, कान, नाक, मुंह, पेट और पीठ ही थे। ऐसा पुत्र था। कभी-कभी मनुष्य के प्रारब्धानुसार ऐसी संतान हो जाती हैं जो उसके दुःख का ही कारण बनती हैं। ऐसी संतान में लोगों की इतनी ममता होती है कि वे उनकी उपेक्षा भी करें तो भी माता पिता उनके लिए बराबर दु:खी रहते हैं। तो ऐसा ही एक पुत्र हुआ उन दंपति के घर में। उन्होंने बड़े ही प्रेम पूर्वक उसका पालन पोषण किया। जब वो थोड़ा सा बड़ा हुआ और बोलने लायक हुआ तो माता पिता से यदि कोई त्रुटि हो जाए तो तो वो डांट देता था। एक दिन उसके माता-पिता ने कहा कि बेटे! तुम्हारे हाथ पैर दोनों नहीं है। हम हैं कि तुम्हारी सेवा हो रही है। यदि हम छोड़ देंगे तो तुम्हारी सेवा कौन करेगा? तो वो ज्ञानी था। उसने कहा कि यदि हमारे प्रारब्ध में होगा तो हमारी सेवा ऐसे ही होती रहेगी।

यदस्मदीयं नहि तत्परेशाम् तो उसके माता-पिता को क्रोध आया और उसे जंगल में ले गए और एक पेड़ से टिका कर चले आए। अब वो बेचारा जंगल में अकेला पड़ा था। इतने में गऊ चराते हुए वहां कुछ चरवाहे आ गए। उन्होंने देखा कि यहां तो भगवान की मूर्ति पधार गई है। जिनके हाथ-पैर नहीं हैं ऐसे भगवान हैं ये।अब उन चरवाहों ने हाथ जोड़कर कहा कि बड़े भाग्य से आपके दर्शन हो गए हमें। आप कुछ खाएंगे? तो कहा कि तुम्हारी इच्छा हो तो खिला दो। तो वो लोग जो अपने लिए रोटी बांधकर लाए थे वो उसको खिला दिया। और पत्तों का दोना बनाकर दूध पिलाया। अब तो उन चरवाहों को सेवा में आनंद आने लगा। वो उनकी सेवा करते थे और वो बालक उन्हें भी डांटने लगा। चरवाहे डरते भी थे। लेकिन वो किसी की ओर दीनता से नहीं देखता था।

अपने प्रारब्ध पर उसे दृढ़ विश्वास था। एक दिन उधर से नारद जी निकले तो देखा कि इसके हाथ पैर ‌दोनों नहीं है फिर भी यह बहुत निर्भय है। क्या बात है। नारद जी ने देखा सारी बात समझ गए और बैकुंठ जाकर भगवान को सब-कुछ बताए। उस समय ब्रह्मा जी और शंकर जी  भी वहीं थे। नारद जी ने कहा कि प्रभु! मृत्यु लोक में मैंने एक ऐसा बालक देखा जिसके हाथ-पैर नहीं है पर वह इतना निरपेक्ष है कि किसी के सामने दीन नहीं होता। ये सुनकर त्रिदेव उस ठूंठ को देखने के लिए आए। जब ये लोग सामने आए तो वो देखा और पूछा कि आप लोग कौन हैं? त्रिदेव बोले कि हम ब्रह्मा, विष्णु, महेश हैं। पूछा कि कैसे पधारे? बोले कि तुमको देखने आए हैं। तो उसने कहा कि देख लिया? बोले हां। कहा कि अब जाओ। देवताओं ने कहा कि हमारा दर्शन अमोघ है, तुमको कुछ मांगना हो तो हमसे मांग लो। तो वो बोला- यदस्मदीयं नहि तत्परेशाम् जो हमारा है वो हमको मिल कर रहेगा, तुम्हारी जरूरत क्या है? तुम तो अपने स्थान पर जाओ। उन्हें जाना पड़ा।

जाते-जाते शंकर जी ने कहा कि ये राजा बन जाए। दूसरे दिन सबेरा होने से पहले योग माया ने उसे ले जाकर एक राजधानी में चबूतरे पर लिटा दिया। और इसके हाथ पैर भी जम गए। संयोग की बात कि उस नगर का राजा उसी दिन मरा था और नगर का ये नियम था कि राजा के मरने के बाद नगर का मुख्य द्वार बंद कर दिया जाता था। सबेरे ब्रह्म मुहूर्त में द्वार खोला जाता था और सामने जो दिख जाए उसी को राजा बना दिया जाता था। वही हुआ ये बालक चबूतरे पर लेटा था सुबह होते ही उठकर बैठ गया। जैसे ही फाटक खुला तो यही दिखाई दिया।अब सबलोगों ने कहा कि यही हमारे राजा हैं। हाथी पर बैठाया गया,छत्र लग गया,चंवर डुलने लगे। विधिवत इनका राज्याभिषेक हो गया। लेकिन अभिषेक होने के बाद भी मंत्रियों को डांटने लगा। मंत्रियों ने कहा कि आप कल ही राजा बने हैं और आज डांटने लगे। तो उसने कहा कि तुमने थोड़े ही बनाया है, हमारे प्रारब्ध में था इसलिए बने हैं।

यदस्मदीयं तो वो मंत्री भी उससे डरने लगे। उसने अपने माता-पिता को बुलाया जो उसे जंगल में छोड़ गए थे। वो बेचारे डरते डरते आए। ना जाने राजा साहब कौन सा दंड दे दें। तो वो बोला कि आपने हमको पहचाना? वो बोले कि नहीं सरकार! कहा कि हम वही ठूंठ तुम्हारे पुत्र जिसको कि तुम लोग जंगल में छोड़ आए थे। देखा! राज्य हमारा था तो हमें मिल गया। इसलिए मनुष्य को अपने में दीनता का भाव नहीं लाना चाहिए।जो उसका है वो उसे मिलकर रहेगा।

 प्राप्तव्यमर्थं लभते मनुष्य:, दैवोSपि तं लंघयितुं न शक्त:

तस्मान्न शोचामि न विस्मयो में, यदस्मदीयं नहि तत्परेशाम्

जैसे हजारों बछड़ों में गऊ अपने ही बेटे को दूध पिलाती है। वैसे ही मनुष्य चाहे कहीं भी रहे उसका प्रारब्ध उसके कर्मानुसार सुख दुःख प्रदान करता ही है। इसलिए मनुष्य को संतुष्ट रहना चाहिए।

भगवान श्री राम कहते हैं कि - ईश भजन सारथी सुजाना, विरति चर्म संतोष कृपाना।