यतो धर्मस्ततो जय:

जीवन का चरम लक्ष्य यही है कि हम नर से नारायण बनें। हम परमात्मा को प्राप्त करें। लेकिन यह बात तब-तक समझ में नहीं आती है जब-तक मनुष्य का हृदय परिष्कृत नहीं होता।

Updated: Oct 28, 2020, 12:08 PM IST

Photo Courtesy: Adhyatm vani
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हम-सब अपने जीवन यात्रा में सर्वत्र विजय की अभिलाषा करते हैं। किन्तु यह ध्रुव सत्य है कि विजय वहीं होती है जहां धर्म होता है। भगवान श्रीराम धर्म के मूर्तिमान स्वरूप हैं। यद्यपि उनसे मिलने के लिए प्रत्येक व्यक्ति प्रयत्नशील है किन्तु अज्ञान के कारण पूर्ण आनंद से वह वंचित रह जाता है।परमात्म सम्मिलन के लिए सभी आतुर हैं। भिन्न लोगों ने अपना लक्ष्य भिन्न-भिन्न बना लिया है। कोई डॉक्टर बनना चाहते हैं, कोई कलेक्टर बनना चाहते हैं, कोई कुछ भी बनना चाहता हो लेकिन लक्ष्य तो सबका एक ही है कि हम सुखी हो जाएं। सुख के लिए ही सम्मूर्ण प्रयत्न है।आप किसी बड़े शहर के चौराहे के छत पर बैठ जाएं तो देखेंगे कि लोग दौड़ रहे हैं। कोई रिक्शे में, कोई तांगे में विभिन्न साधनों से। विभिन्न स्थानों पर जा रहे हैं। कोई अस्पताल में जीवन की रक्षा के लिए तो कोई कालेज में ज्ञानार्जन के लिए, कोई सिनेमा घर में मनोरंजन के लिए और कुछ बंधन (कारागार) से मुक्त होने के लिए, आजादी के लिए तो कोई चुनाव जीतकर सबके आधिपत्य के लिए दौड़ रहे हैं। कुल मिलाकर देखा जाय तो ये सबके सब सच्चिदानंद परमात्मा की दौड़ में लगे हुए हैं। जीवन का चरम लक्ष्य यही है कि हम नर से नारायण बनें। हम परमात्मा को प्राप्त करें। लेकिन यह बात तब-तक समझ में नहीं आती है जब-तक मनुष्य का हृदय परिष्कृत नहीं होता। सत्संग के द्वारा जब हृदय स्वच्छ हो जाता है तो विचार उत्पन्न होता है और सोचने समझने की शक्ति आती है।
एक बार हमारे गुरुदेव ज्योतिष् एवं द्वारका शारदा पीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी श्री स्वरूपानंद सरस्वती जी महाराज से किसी ने पूछा कि आप साधू क्यूं हो गए? तो उसके उत्तर में महाराज श्री ने उसी से प्रश्न कर दिया कि- तुम गृहस्थ क्यूं बन गए? तो उस प्रश्नकर्ता ने कहा कि हमने तो सोचा ही नहीं, तब महाराज श्री बोले कि यही अंतर है हमारे और तुम्हारे में कि हमने सोच लिया और तुम सोच नहीं पाए। तो विचार तब उदय होता है जब मनुष्य अच्छे लोगों के बीच में बैठता है, शास्त्रों की बातें सुनता है और जिसके भीतर दैवी संपद् के लक्षण होते हैं। ये अनेक जन्मों के संस्कारों से ही होता है। मनुष्य जिस प्रकार के संस्कारों को लेकर संसार में जन्म लेता है उसी प्रकार का कर्म करता है और वैसा ही स्वभाव बन जाता है, इसी का नाम दैवी संपद् और आसुरी संपद् है। आसुरी संपद् का लक्षण भगवान श्रीकृष्ण गीता में बताते हैं कि-
दम्भो दर्पोSभिमानश्च,
क्रोध:पारुष्य मेव च।
अज्ञानं चाSभिजातस्य,
पार्थ संपदमासुरी ।।

दंभ,दर्प, अभिमान,क्रोध, कठोर वचन, अज्ञान ये आसुरी संपद् हैं। आसुरी संपद् का व्यक्ति सोचता है कि-

इदमद्य मया लब्धं,
इमं प्राप्स्ये मनोरथम्।

ये मैंने प्राप्त कर लिया है और ये और प्राप्त करना है। मैंने अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली है और जो बचे हुए शत्रु हैं उनको भी समाप्त कर दूंगा। मैं सबका स्वामी हूं। मैं बहुत शक्तिशाली हूं, मेरे बहुत से मित्र हैं।
मेरो देह मेरो गेह मेरो 
परिवार सब,
मेरो धन माल मैं तो अति ही भारी हूं।

इस प्रकार सोचने वाला आसुरी संपद् का होता है। रावण को जब मंदोदरी समझाती थी कि जानकी जी को लौटा दो, राम जी तुमको क्षमा कर देंगे।
रामहिं सौंपि जानकी,
नाइ कमल पद माथ।
सुत कंह राज समर्पि बन,
जाइ भजहु रघुनाथ।।

तो रावण कहता था कि-
क्या रामचंद्र से मेरी 
साहिबी कम है।
नहिं दूंगा जानकी जब 
तक तन में दम है।।
इसी को दंभ और दर्प कहते हैं। दुर्योधन आसुरी संपद् का है। भगवान श्रीकृष्ण दुर्योधन को समझाने के लिए जाते हैं। प्रस्ताव रखते हैं कि दुर्योधन ! पाण्डवों के वनवास की अवधि पूर्ण हो गई है अब उन्हें उनका राज्य लौटा दो तो दुर्योधन ने कहा-
शुचि अग्रे कुशाग्रेण,
भिद्यते या च मेदिनी।
तदर्थं नैव दास्यामि,
बिना युद्धेन केशव।।

तो दुर्योधन को अहंकार है कि मेरे बराबर कोई बलवान नहीं है। भगवान बोले कि दुर्योधन! बल का गर्व मत करो। जो मनुष्य अधर्म का आचरण करता है उसका पतन निश्चित है क्यूंकि अधर्म से बढ़कर पतन कराने वाला कोई नहीं है। उसने कहा पाण्डव हमारा क्या बिगाड़ लेंगे? अगर उनमें ताकत हो तो हमसे युद्ध करके राज्य ले लें। भगवान श्रीकृष्ण बोले कि दुर्योधन !
एकाकी पाद चारेण,
नो चे द्रक्ष्यामि पाण्डव।
मन्वादयो धर्म वक्तार:,
तदास्यु:मद्य पायिन:।।

यदि मैंने तुमको अकेले, पैदल युद्ध से भागता हुआ नहीं देखा तो मैं ये समझूंगा कि धर्म के प्रवक्ता जो मनु आदि हैं वे मद्यपान करके धर्म शास्त्र की रचना किए हैं और वही हुआ। अभिप्राय यह है कि अधर्मी का पतन और उसकी पराजय सुनिश्चित है।
जहां धर्म वहां जय, और जहां अधर्म वहां पराजय। अतः यदि हम भी सदा सर्वत्र अपनी विजय चाहते हैं तो धर्म के मार्ग का अनुशरण करना चाहिए।