संघ की नायकों पर कब्जा करने की मुहिम ,अब बारी नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की -राम पुनियानी

संघ की नायकों पर कब्जा करने की मुहिम अब बारी नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की राम पुनियानी गत 23 जनवरी को भाजपा और आरएसएस ने नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की याद में कई कार्यक्रम आयोजित किए। ऐसे ही एक कार्यक्रम के बाद हिंसा भड़क उठी और उड़ीसा के केन्द्रपाड़ा में कर्फ्यू लगाना पड़ा। आरएसएस व संघ द्वारा […]

Publish: Feb 04, 2019, 10:04 PM IST

संघ की नायकों पर कब्जा करने की मुहिम ,अब बारी नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की  -राम पुनियानी
संघ की नायकों पर कब्जा करने की मुहिम ,अब बारी नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की -राम पुनियानी
h2 style= text-align: center strong संघ की नायकों पर कब्जा करने की मुहिम /strong /h2 h1 style= text-align: center strong अब बारी नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की /strong /h1 ul li strong राम पुनियानी /strong /li /ul p style= text-align: justify गत 23 जनवरी को भाजपा और आरएसएस ने नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की याद में कई कार्यक्रम आयोजित किए। ऐसे ही एक कार्यक्रम के बाद हिंसा भड़क उठी और उड़ीसा के केन्द्रपाड़ा में कर्फ्यू लगाना पड़ा। आरएसएस व संघ द्वारा आयोजित विभिन्न कार्यक्रमों में बोस और सावरकर व बोस और संघ के विचारों में साम्यता प्रदर्शित करने के प्रयास किए गए। इसका उद्देश्य यह साबित करना था कि सावरकर के सुझाव पर ही बोस ने धुरी राष्ट्रों (जर्मनी व जापान) के साथ गठबंधन बनाने का प्रयास किया था। इन दिनों आरएसएस और आईएनए के बीच समानताएं गिनवाई जा रही हैं और यह दिखाने के प्रयास हो रहे हैं कि बोस के राष्ट्रवाद तथा सावरकर व आरएसएस के राष्ट्रवाद में अनेक समानताएं थीं। /p p style= text-align: justify संघ परिवार नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को एक ऐसे नेता के रूप में प्रस्तुत कर रहा है जिसने भारत को ब्रिटिश राज से मुक्त करवाने के लिए एक नई रणनीति बनाई। संघ को इस महान स्वाधीनता संग्राम सेनानी के योगदान की अचानक याद क्यों आई? सवाल यह भी है कि क्या आरएसएस के मन में कभी यह विचार आया कि उसे भारत को स्वाधीन करवाने के लिए संघर्ष करना चाहिए? पिछले कुछ वर्षों से संघ लगातार राष्ट्रीय नायकों पर कब्जा करने के प्रयास में जुटा हुआ है। यह कहा जा रहा है कि अगर नेहरू की जगह सरदार पटेल भारत के प्रधानमंत्री होते तो कश्मीर समस्या खड़ी ही नहीं होती और देश कहीं अधिक प्रगति करता। सच यह है कि पटेल और नेहरू भारत की प्रथम केबिनेट के दो मजबूत स्तंभ थे जिन्होंने भारतीय गणतंत्र की नींव रखी। उनके बीच निश्चित रूप से मतभेद थे परंतु वे अत्यंत गौण थे। /p p style= text-align: justify जहां तक सुभाषचन्द्र बोस का सवाल है हम सब जानते हैं कि वे एक महान स्वाधीनता संग्राम सेनानी थे। उनके जीवन का अधिकांश हिस्सा कांग्रेस में बीता और वे सन् 1939 में कांग्रेस के त्रिपुरी अधिवेशन में पार्टी राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गए थे। वे कांग्रेस के समाजवादी खेमे के एक प्रमुख नेता थे। समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता सहित कई मुद्दों पर उनके और पंडित नेहरू के विचार एक-से थे। यह सही है कि स्वाधीनता हासिल करने की रणनीति के संबंध में उनमें और कांग्रेस में मतभेद थे। गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस अहिंसा के रास्ते स्वाधीनता हासिल करना चाहती थी। नेताजी इससे सहमत नहीं थे। कांग्रेस ने अंग्रेजों पर दबाव बनाने के लिए भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान नेताजी ने यह तय किया कि अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने के लिए धुरी राष्ट्रों के साथ मिलकर एक सैन्य अभियान चलाया जाए और इसी उदेश्य से उन्होंने आईएनए की स्थापना की। नेताजी ने 21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की अंतरिम सरकार का गठन किया। वे एक करिश्माई नेता थे और मूलतः ब्रिटिश विरोधी थे। /p p style= text-align: justify कांग्रेस अहिंसा के पथ पर चलने के लिए दृढ़ थी। उसने महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया। बोस के इस मामले में कांग्रेस से मतभेद हो गए। उन्होंने फासिस्ट जर्मनी और उसके मित्र राष्ट्र जापान के साथ गठबंधन बनाने का प्रयास किया। उस समय आरएसएस और हिन्दू राष्ट्रवादी क्या कर रहे थे? हिन्दुत्व और हिन्दू राष्ट्र की विचारधारा के जनक सावरकर ने उस समय हिन्दू राष्ट्रवादियों का आव्हान किया कि वे जापान और जर्मनी के खिलाफ युद्ध में ब्रिटेन की मदद करें। तत्कालीन सरसंघचालक एमएस गोलवलकर ने संघ की सभी इकाईयों को निर्देश दिया कि वे ऐसा कुछ भी न करें जिससे अंग्रेज नाराज या परेशान हों और ब्रिटिश-विरोधी संघर्ष से दूरी बनाए रखें। कुल मिलाकर जिस समय कांग्रेस भारत छोड़ो आंदोलन के जरिए अंग्रेजों पर दबाव बना रही थी और नेताजी आईएनए की सहायता से अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहे थे उस समय सावरकर इस अभियान में जुटे थे कि अधिक से अधिक संख्या में भारतीय ब्रिटिश सेना में भर्ती होकर अंग्रेजों की मदद करें। आरएसएस ने ब्रिटिश राज का विरोध करने के लिए कुछ भी नहीं किया। इस तरह हिन्दू राष्ट्रवादी एक ओर ब्रिटेन की युद्ध में सहायता कर रहे थे (सावरकर) तो दूसरी ओर वे लोगों से ब्रिटिश विरोधी संघर्ष से दूरी बनाए रखने का आव्हान कर रहे थे (गोलवलकर-आरएसएस)। और अब वे ही नेताजी का स्तुतिगान कर रहे हैं! /p p style= text-align: justify नेताजी विचारधारा के स्तर पर समाजवादी थे और नेहरू के करीब थे। दूसरी ओर गोलवलकर ने लिखा कि कम्युनिस्ट हिन्दू राष्ट्र के आंतरिक शत्रु हैं। भाजपा ने अपनी स्थापना के समय गांधीवादी समाजवाद को अपना आदर्श बताया था परंतु यह सिर्फ चुनावी जुमला था। नेताजी की विचारधारा और कार्य आरएसएस की सोच और उसके कार्यक्रमों से तनिक भी मेल नहीं खाते। आज आरएसएस फिर भला कैसे हिन्दू राष्ट्रवादियों और नेताजी के बीच वे समानताएं गिनवा सकता है जो कभी थीं ही नहीं। समस्या यह है कि चूंकि संघ ने स्वाधीनता आंदोलन में हिस्सा ही नहीं लिया इसलिए उसके पास अपना कहने को कोई राष्ट्रीय नायक हैं ही नहीं। भारत छोड़ो आंदोलन के समय आरएसएस के अटलबिहारी वाजपेयी एक युवा कालेज विद्यार्थी थे जिन्हें भूलवश जेल में डाल दिया गया था। उन्होंने बाद में माफी मांगी और जेल से रिहाई पाई। सावरकर अंडमान जेल भेजे जाने के पूर्व तक ब्रिटिश-विरोधी थे। उन्हें ‘वीर‘ के नाम से संबोधित किया जाता है परंतु उन्होंने भी जेल से रिहा होने के लिए अंग्रेजों से माफी मांगी थी। न तो हिन्दू महासभा न मुस्लिम लीग और ना ही आरएसएस ने कभी अंग्रेजों का विरोध किया। भारतीय राष्ट्रवाद का यही एकमात्र असली टेस्ट है। कांग्रेस और बोस मूलतः ब्रिटिश विरोधी थे और कुछ मतभेदों के साथ उनके राष्ट्रवाद एक थे। /p p style= text-align: justify जब बोस द्वारा गठित आईएनए के वरिष्ठ अधिकारियों पर ब्रिटिश सरकार ने मुकदमे चलाए तब नेहरू उनके बचाव में सामने आए। हिन्दू राष्ट्रवादी शिविर के किसी सदस्य ने आईएनए का बचाव नहीं किया। अब केवल और केवल चुनावी लाभ की आशा में संघ और भाजपा पटेल व बोस जैसे नेताओं को अपना बताने के प्रयास में लगे हैं। वे यहां-वहां से बिना संदर्भ के कुछ घटनाओं या कथनों का हवाला देकर पटेल और बोस जैसे महान व्यक्तियों की पीठ पर सवारी करने की कोशिश कर रहे हैं। सच तो यह है कि वे भारतीय राष्ट्रवाद के विरोधी हैं। वे जवाहरलाल नेहरू को बदनाम करने की हरचंद कोशिश कर रहे हैं क्योंकि नेहरू प्रजातंत्र और धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में मजबूती के साथ खड़े थे। पटेल व बोस के नेहरू के साथ कुछ मतभेद रहे होंगे परंतु जहां तक धर्मनिरपेक्ष प्रजातांत्रिक मूल्यों का प्रश्न है इन तीनों नेताओं की मूल विचारधारा एक ही थी। पटेल और नेताजी की विरासत को अपना बताकर संघ जनता की आंखों में धूल झोंकने का प्रयास कर रहा है। /p