मांद में मात जावेद अनीस

मांद में मात जावेद अनीस 16 मई 2014 के बाद 11 दिसबंर 2018 की तारीख देश की राजनीति में एक ऐसा पड़ाव है जिसे लम्बे समय तक याद रखा जायेगा. ऐसा माना जा रहा था कि इस बार पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे आने के बाद देश के राजनीति की दिशा बदलने वाले […]

Publish: Jan 18, 2019, 11:22 PM IST

मांद में मात – जावेद अनीस
मांद में मात – जावेद अनीस
h1 style= text-align: center strong मांद में मात /strong /h1 ul li style= text-align: justify जावेद अनीस /li /ul p style= text-align: justify 16 मई 2014 के बाद 11 दिसबंर 2018 की तारीख देश की राजनीति में एक ऐसा पड़ाव है जिसे लम्बे समय तक याद रखा जायेगा. ऐसा माना जा रहा था कि इस बार पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे आने के बाद देश के राजनीति की दिशा बदलने वाले साबित होंगें और अब ठीक ऐसा होता दिखाई भी पड़ रहा है. /p p style= text-align: justify 2014 के लोकसभा चुनावों में उठे मोदी लहर के बाद भाजपा को उसकी उम्मीदों से बढ़ कर अकेले ही 280 से अधिक सीटें मिलीं थीं और इसके बाद भाजपा हर चुनाव 2019 के तैयारी की तरह लड़ती रही है और कई नये राज्यों में लगातार अपना विस्तार करती गयी. इन सब से विपक्ष के खेमे में सन्नाटा पसरा था और वह पूरी तरह से पस्त था. लेकिन अब  कहानी बिलकुल ही अलग है. एक के बाद एक नया किला फतह करने के बाद आखिरकार भाजपा का बेलगाम विजय रथ अपने ही गढ़ में आकर थम गया है. तीन राज्यों मध्यप्रदेश राजस्थान छत्तीसगढ़ में कांग्रेस और भाजपा सीधे तौर पर आपने-सामने थीं. भाजपा के सामने चुनौती इन तीन राज्यों में अपनी सरकारों को बचाने की थी. पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने इन तीनों राज्यों की कुल 65 लोकसभा सीटों में से 62 सीटों पर चुनाव जीता था. कांग्रेस के लिये तो यह एक तरह से अस्तित्व से जुड़ा हुआ चुनाव था इसलिये कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिये यह राज्य बहुत अहमियत वाले थे. /p p style= text-align: justify 2019 के फाइनल से ठीक पहले सेमी-फाइनल माने जा रहे पांच राज्यों के चुनावी नतीजों के हार-जीत के अलावा और भी कई राजनीतिक मायने हैं. पिछले करीब साढ़े चार साल में ये पहली बार है जब विलुप्त मानी जा रही कांग्रेस पार्टी ने सीधे मुकाबले में भाजपा को मात दिया है. यह मोदी-शाह के “कांग्रेस मुक्त भारत के उस नारे पर भी अघात है जो सिर्फ एक पार्टी के लिये नहीं बल्कि उस विचारधारा के लिये भी थी जिसकी जड़ें भारत के बहुलतावादी परंपरा और स्वाधीनता संग्राम से उपजे मूल्यों में है. /p p style= text-align: justify चुनाव परिणामों ने इस मिथ को तोड़ दिया है कि मोदी को हराया नहीं जा सकता है और राहुल गांधी हमेशा ही एक विफल नेता बने रहेंगें. इस जीत के बाद राहुल गांधी को एक नेता के तौर पर स्थापित कर दिया है. उन्होंने मृतशैया पर पड़ी कांग्रेस में जान फूंकने का काम किया है और सबसे बड़ी बात ये है कि उन्होंने कभी चुनौतीविहीन माने जा रहे नरेंद्र मोदी के मुकाबले खुद को खड़ा कर दिया है. राहुल ने ये साबित करके दिखा दिया है कि अगर नरेंद्र मोदी को चुनौती पेश की जाये तो मुकाबले में उन्हें हराया भी जा सकता है.अब 2019 में नरेंद्र मोदी हार सकते हैं जैसी बात असंभव या अजूबा नहीं लगती है. बहरहाल 2019 का चुनाव दिलचस्प हो गया है. अब यह एकतरफा नहीं होने वाला और ऊंट किसी भी करवट बैठ सकता है. /p p style= text-align: justify इन तीनों राज्यों में मध्यप्रदेश की जीत कांग्रेस के लिये बहुत खास है. यह भाजपा का सबसे मजबूत किला माना जाता था और यहां शिवराजसिंह चौहान जैसे मजबूत व लोकप्रिय मुख्यमंत्री थे. गुजरात के बाद मध्यप्रदेश को भाजपा व संघ की दूसरी प्रयोगशाला कहा जाता है दरअसल यहां जनसंघ के जमाने से ही उनका अच्छा-खासा प्रभाव है. भाजपा इसे विकास के एक माडल के तौर पर प्रस्तुत करती रही है इसलिये मध्यप्रदेश के नतीजे का विशेष महत्त्व है. इससे वहां लगातार हार की हैट्रिक बना चुकी कांग्रेस को भाजपा पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने में मदद मिली है. /p p style= text-align: justify मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने बहुत ही थोड़े समय में अपना कायाकल्प करने का चमत्कार किया है  और इसका श्रेय निश्चित रूप से राहुल गांधी को दिया जायेगा जिन्होंने कमलनाथ सिंधिया और दिग्विजय सिंह की जिम्मेदारी तय करते हुये इन्हें एक साथ काम करने को प्रेरित किया. /p p style= text-align: justify एक मई 2018 को कमलनाथ को मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष की जिम्मेदारी दी गयी थी जिन्होंने सबसे पहले म.प्र. में पंद्रह साल से सुस्त पड़ चुके संगठन को सक्रिय करने पर जोर लगाया जिससे पार्टी बूथ स्तर तक खड़ी दिखाई पड़ने लगी. इसी तरह से सिंधिया को चुनाव प्रचार अभियान और दिग्विजय सिंह को परदे के पीछे रहकर कार्यकर्ताओं को एकजुट व सक्रिय करने की जिम्मेदारी दी गयी थी जिसे उन्होंने बखूबी अंजाम दिया. लेकिन मध्यप्रदेश में असली कमान राहुल गांधी के हाथों में रही जो कमलनाथ और सिंधिया को साथ में रखते हुये खुद फ्रंट पर दिखाई दिये. /p p style= text-align: justify राहुल के बरक्स नरेंद्र मोदी मध्यप्रदेश के चुनाव अभियान से सेफ दूरी बना कर चलते नजर आये. जहां एक तरफ राहुल गांधी ने मध्यप्रदेश को सबसे ज्यादा समय दिया वहीँ नरेंद्र मोदी प्रदेश के चुनाव में खुद को सीमित किये रहे. राज्य में भाजपा के चुनाव प्रचार अभियान में भी केंद्र की उपलब्धियों पर ना के बराबर फोकस किया गया ऐसा शायद इसलिये किया गया कि अगर इन राज्यों में भाजपा की हार होती है तो इसके जिम्मेदारी मौजूदा मुख्यमंत्रियों पर टाली जा सके और 2019 लोकसभा चुनाव के लिये मोदी ब्रांड को बचाये रखा जा सके. /p p style= text-align: justify लेकिन इन तमाम तजवीजों के बावजूद ऐसा लगता नहीं है कि मोदी ब्रांड बचा है अब कोई भी मोदी लहर और अच्छे दिनों की बात नहीं करता है उम्मीदों की जगह उपहास ने ले लिया है और बड़े से बड़े मोदी समर्थक अपने विकास के देवता का बचाव करने में असमर्थ है. उनमें से कईयों ने तो पाला ही बदल लिया है लॉर्ड मेघनाद देसाई जैसे बड़े मोदी समर्थक आज नरेंद्र मोदी को लेकर निराशा जताते हुये कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री “मोदी टीम लीडर नहीं हैं और अब लोग उन्हें दोबारा वोट नहीं देंगे. /p p style= text-align: justify 2014 में नरेंद्र मोदी की आसमानी जीत ने सभी को अचंभित कर दिया था. यह कोई मामूली जीत नहीं थी. ऐसी मिसालें भारतीय राजनीति के इतिहास में बहुत कम मिलती हैं. इसके बाद अगले तीन सालों तक भाजपा ने अपना अभूतपूर्व विस्तार किया कई नये राज्यों में उनकी सरकारें बनी. लोकसभा चुनाव के बाद उतरप्रदेश में भाजपा की प्रचंड जीत ने एक बार फिर पूरे विपक्ष को स्तब्ध कर दिया था और फिर 2019 में विपक्ष की तरफ से सबसे बड़ा चेहरा माने जाने वाले नीतीश कुमार की एनडीए वापसी ने विरोधियों की रही सही उम्मीदों पर पानी फेर दिया था. लेकिन जीवन की तरह अनिश्चिताओं से भरे राजनीति के इस खेल में आज हालात बदले हुए नजर आ रहे हैं. अमित शाह और नरेंद्र मोदी का अश्वमेघ रथ अपने ही गढ़ में रुक गया है. आज स्थिति ये है कि अच्छे दिनों के सपने जमीनी सच्चाईयों का मुकाबला नहीं कर पा रहे है. पहली बार प्रधानमंत्री बैकफुट पर हैं और उनके सिपहसालार घिरे हुए नजर आ रहे हैं. पहले मोदी की आंधी के सामने विपक्ष टिक नहीं पा रहा था लेकिन आज हालत नाटकीय रूप से बदले हुए नजर आ रहे हैं. सत्ता गंवाने के बाद पहली बार कांग्रेस खुद को एक मजबूत विपक्ष के रूप में पेश करने में कामयाब रही है और वो अब धीरे-धीरे एजेंडा सेट करने की स्थिति में आने लगी है. /p p style= text-align: justify दरअसल अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर मोदी सरकार की विफलता और उस पर रोमांचकारी प्रयोगों ने विपक्ष को संभालने का मौका दे दिया है. भारत की चमकदार इकॉनामी आज पूरी तरह से लड़खड़ाई हुई है. बेहद खराब तरीके से लागू किए गए नोटबंदी और जीएसटी ने इसकी कमर तोड़ दी है बेरोजगारी बढ़ रही है और कारोबारी तबका हतप्रभ है. ऐसा महसूस होता है कि आर्थिक मोर्च पर यह सरकार स्थितियों को नियंत्रित करने में सक्षम ही नहीं है. /p p style= text-align: justify तीनों राज्यों में शिवराजसिंह चौहान रमनसिंह या वसुंधरा राजे की हार से ज्यादा मोदी के हार की चर्चा है इसे इन तीनों से ज्यादा मोद-शाह के अहंकार की हार बताया जा रहा है. /p