अमेरिका: बुझते दिये की लपलपाती लौ

महानता पाने की अनिवार्य शर्तें हैं आक्रामकता और हिंसा को छोड़ना। वे सारे लोग जो अमेरिका को ही भविष्य मानते आ रहे हैं, उन्हें अब वास्तविकता को समझना होगा। उन्हें समझना होगा घर में जलने वाले दिए और श्मशान में जलाए दिए की मानसिकता और परिस्थितियां अलग-अलग होती हैं।

Updated: Feb 26, 2025, 09:19 AM IST

“मैं नहीं सोचता कि अनुचित राजनीति के इतिहास के पिछले कुछ वर्षों के अनुक्रम में अमेरिका के अलावा किसी अन्य देश का उदाहरण सामने आता हो। उन्होंने एक के बाद एक गलत कदम उठाये हैं। वे सोचते हैं कि, वह किसी भी समस्या का हल धन और हथियारों से निकाल सकते हैं। वे मानवता के मूल तत्व को ही भूल गए हैं। वे लोगों की राष्ट्रीयता की तीव्र आकांशा को भुला बैठे हैं। वे एशियाई लोगों की आरोपण के खिलाफ कड़ी नाराजगी को भूल गए हैं।” 
पं जवाहरलाल नेहरु
(मार्च 1954 में उद्योगपति जी.डी बिरला को लिखे पत्र का अंश)

उपरोक्त कथन के सात दशक बाद भी अमेरिका के रवैये में कुछ ज्यादा अंतर आया हो ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा है। बहरहाल डोनाल्ड ट्रम्प के दूसरी बार राष्ट्रपति बनने के बाद स्वयं अमेरिका के भीतर और बाकी की बाहरी दुनिया में अमेरिका की नई नीतियां काफी डरावनी और विश्व में असुरक्षा का वातावरण फ़ैलाने वाली दिखाई दे रहीं हैं। जहां तक पिछले 35-40 वर्षों के अमेरिकी रवैये पर गौर करने से यह तो स्पष्ट होता है कि अमेरिका लगातार सिर्फ अपने हितों के लिए ही कार्य करता रहा है और अपवादों को छोड़ दें तो उसका रवैया खासकर तीसरी दुनिया के देशों के प्रति लगातार अपमानजनक ही रहा है। 

वहीं डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद से ही ऐसा लगने लगा था कि अब अमेरिका एक राष्ट्र की तरह नहीं बल्कि “एकमात्र राष्ट्र” की तरह व्यवहार करेगा और ट्रंप के शपथ ग्रहण के बाद यह बात और भी स्पष्ट होती जा रही है। अमेरिका के नंबर दो नेता एलन मस्क का अपने बेटे को कंधे पर बिठा कर सारी दुनिया को ललकारना इस बात का संकेत है कि “नया अमेरिका” विश्व राजनीति को “बच्चों का खेल” मानने लगा है। जिस तरह से ट्रंप शासन भारत से लेकर पूरे यूरोप को नीचा दिखाने और उन पर प्रभुत्व स्थापित करने का दंभ दिखा जा रहा है, उससे यह तो स्पष्ट होता जा रहा है कि अमेरिका की राजनीति में, खासकर ट्रंप की राजनीति में आई यह “असाधारण और अनावश्यक आक्रामकता” वास्तव में एक किस्म से डर की अभिव्यक्ति है। 

अगर यह डर नहीं होता तो अमेरिका चीन को भी सीधा उसी तरह से ललकारता जैसा कि वह बाकी देशों को ललकार रहा है। अर्थात अमेरिका अब स्वयं को चीन के प्रति आक्रामक होने का जोखिम उठाने की स्थिति में नहीं है। बहुत स्पष्टता से कहें तो “अमेरिका की वर्तमान ठसक एक बुझती लौ की अंतिम दमकती लपट है।” अंतिम लपट एकाएक जोर से उभरती है और फिर शून्य हो जाती है। 

गौरतलब है सन 1941 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रेंकलिन रुजवेल्ट ने एटलान्टिक चार्टर के तहत चार आजादियां गिनाई थीं। यह कोई नया अविष्कार नहीं था। परन्तु उन्होंने इसे जिस क्रम में रखा वह बेहद महत्वपूर्ण है। यह क्रम है, फ्रीडम ऑफ़ स्पीच एंड एक्सप्रेशन, फ्रीडम ऑफ़ वर्शिप, फ्रीडम फ्रॉम वान्ट एंड फ्रीडम फ्रॉम फीयर, अर्थात पहला वाणी और अभिव्यक्ति पर कोई पाबंदी नहीं होनी चाहिये, दूसरा लोगों को अपने धार्मिक विश्वास बनाये रखने की आजादी है, तीसरा कोई भी अभावग्रस्त न हो और चौथा कोई भयग्रस्त न रहे। इसमें वाणी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है। 

गौरतलब है फ्रेंकलिन रुजवेल्ट अमेरिका इतिहास में एकमात्र व्यक्ति हैं जो चार बार राष्ट्रपति बने और उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध के मध्य उपरोक्त चार स्वतंत्रताओं का उल्लेख कर कहीं न कहीं यह संकेत दिया था कि युद्ध के बाद का विश्व किस तरह का होना चाहिए। मगर ट्रंप तक आते-आते अमेरिका एक ऐसे औपनिवेशिक देश के रूप में स्वयं को परिवर्तित कर लेना चाहता है, जो कि पूरे विश्व का नायक नहीं, अधिनायक हो। ट्रंप से पहले अधिनायकवादी प्रवृतियां कमोवेश पृष्ठभूमि में जरुर रहती थीं, लेकिन ट्रंप ने इसे अपनी एकमात्र प्राथमिकता बना लिया है। 

डॉ. राममनोहर लोहिया अर्थशास्त्र : मार्क्स के आगे, नामक अपनी पुस्तिका में पूंजीवाद को लेकर बेहद महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ अत्यंत रोचक ढंग से करते हैं। वे समझाते हैं, “पूंजीवादी जंजीर कहाँ टूटती है? ट्राटस्की कहते हैं यह जंजीर अपनी सबसे कमजोर कड़ी पर टूट गई। वहीँ मार्क्स कहते हैं सबसे विकसित कड़ी पर।” इन दो धुरंधर मार्क्सवादी दार्शनिकों के विचार दो पराकाष्ठाओं पर हैं। वहीं लेलिन ट्राटस्की के साथ हैं। परन्तु, सत्य तो यही है, अपने सबसे कमजोर वक्त में भी पूंजीवाद नहीं टूटा और आज जब पूंजीवाद एकतरह से रूस और चीन जो दोनों मार्क्सवाद के झंडाबरदार थे, को निगल चुका है और अपने सबसे शक्तिशाली दौर में हैं तो क्या उसके ढहने की शंका लगातार बढ़ती नहीं जा रही है?

वहीं दूसरी ओर चीन का लगातार तकनीकी रूप से सक्षम होना भी एक अलग कहानी का विषय बनता जा रहा है। यहाँ भी गौर करने वाली बात यही है कि अमेरिका और चीन जैसे दो विपरीत विचारधारा वाले राष्ट्र अंततः न केवल एक ही दिशा में चल पड़े हैं बल्कि उनके ध्येय और उद्देश्य भी एक जैसे ही हैं। ऐसे में भारत जैसे राष्ट्र जो कमोवेश अदूरदर्शिता का शिकार हो गए हैं, का शोषण यह दोनों राष्ट्र बेहद आसानी से कर पा रहे हैं।

परंतु इससे भी बड़ा मुद्दा यह है कि क्या अमेरिका पूंजीवाद के सारे लाभ उठा लेने के बाद पुनः साम्राज्यवाद की ओर लौट रहा है? सामान्यतया यह माना जाता है कि साम्राज्यवाद और पूंजीवाद क्रमशः एक के कर्म में विकसित होते हैं। परन्तु ध्यान से देखने पर पता चलता है कि अमेरिका ने विकास के जिस पूंजीवादी स्वरूप का चुनाव किया उसको अंततः वैसा ही साम्राज्यवादी रास्ता अपनाना पड़ा जैसा कि ब्रिटेन ने अपनाया था। डॉ. लोहिया समझाते हैं ब्रिटेन ने पूंजीवादी विकास के लिए भारत जैसे घने बसे हुए देशों का उपयोग किया। इन्ही दो तत्वों क्षेत्र और जनसंख्या का उपयोग अमेरिका ने भी किया था। यहाँ भूमि नयी और फ़ैली हुई थी और जनसंख्या मुख्यतया यूरोप से आई थी। 

अमेरिका के प्रादेशिक फैलाव को समझना हो तो इसके उन्नीसवीं सदी के आरंभ और अंत के नक़्शे पर नजर डालने से आसानी से समझ में आ जाएगा। वहां किस तरह का साम्राज्यवादी विकास या अधिपत्य थोपा गया है। यह तय है कि अमेरिकी पूंजीवाद ने अमेरिकी साम्राज्यवाद को अब्राहम लिंकन जैसे अनेक नेताओं के माध्यम से लंबे समय तक एकतरह से पराजित करे रखा था। लेकिन अंततः डोनाल्ड ट्रंप जैसे उसे पुनः साम्राज्यवाद की ओर लौटा ले जाते हुए दिखाई दे रहे हैं। भारत जैसे अनेक देश जो कि औपनिवेशिक सत्ता के माध्यम से साम्राज्यवाद के समानांतर पूंजीवादी व्यवस्था के शोषण का शिकार भी हुए थे वे अपनी आजादी के वर्षों बाद भी इन जरुमों से अपना पीछा नहीं छुड़ा पाए हैं और कहीं न कहीं यह नासूर बनते जा रहे हैं। 

गौरतलब है दूसरे विश्व युद्ध के बाद के कुछ दशक कहीं न कहीं एक बेहतर भविष्य का विश्व की परिकल्पना को साकार करते नजर आते हैं। वहीं दूसरी ओर भारत अपनी आजादी के बाद के कुछ दशकों तक पूरे विश्व में लोकतंत्र की मशाल बना रहा है। अमेरिका का नया नेतृत्व पहली बार अपनी ही जनता को एक उपनिवेश में बदल देना चाहता है और भारत में यह स्थिति करीब-करीब आ ही चुकी है। वर्तमान का अमेरिका पूरी दुनिया को (शायद चीन को छोड़कर) अपने “साम्राज्य” का अघोषित हिस्सा या उपनिवेश बना लेना चाहता है। भारत सहित ब्रिक्स देश जो कि विश्व की आजादी का 45 प्रतिशत के करीब हैं और जिनकी विश्व व्यापार में भागीदारी 28 प्रतिशत से ज्यादा है, को सीधे-सीधे धमका कर ट्रंप खुद को विश्व का एकमात्र “शासक” सिद्ध करना चाहते हैं। 

वहीं दूसरी ओर वे ब्रिक्स की स्थापना करने वाले रूस और चीन से नए सिरे से संबंधों को मधुर और प्रगाढ़ बनाने की कोशिश कर रहा है। ब्रिक्स का एक और देश सऊदी अरब उनका सबसे बड़ा निवेशक है। वास्तविकता यह है कि उन्हें अभी भी भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका से खतरा महसूस हो रहा है, क्योंकि इन देशों में लोकतंत्र को लेकर अभी भी थोड़ी बहुत उम्मीदें बंधी हुई हैं।

अमेरिका के वर्तमान पर लौटते हैं। दरअसल वर्तमान का अमेरिका पतन के दौर से गुजर रहा है। इसमें आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय पतन शामिल हैं। महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय शांति की स्थापना को लेकर समझाते हैं, “यद्यपि प्रकृति में हम सबको पर्याप्त अपकर्षण (तिरस्कार-नींचे खीचना) दिखाई देता है, तथापि वह आकर्षण में ही जीवित रहती है। पारस्परिक प्रेम ही प्रकृति को टिकाये रखता है। मनुष्य संहार से अपना निर्वाह नहीं करता। आत्मप्रेम का यह तकाजा है कि औरों के प्रति आदरभाव रखा जाए। राष्ट्रों में एकता इसलिए रहती है कि राष्ट्रों के अंगभूत लोग परस्पर आदरभाव रखते हैं। किसी दिन अपने राष्ट्रीय न्याय को हमें सारे विश्व तक व्याप्त करना पड़ेगा, जिस तरह हमने अपने कौटुम्बिक न्याय को राष्ट्रों के एक विशाल कुटुम्ब के निर्माण के लिए व्याप्त किया है।” 

परंतु ट्रंप तो अंतर्राष्ट्रीयता की बात ही छोड़ दीजिये स्वयं अमेरिका द्वारा विकसित व अर्जित स्वतंत्रता और समानता को नष्ट कर एक ऐसा समाज बनाना चाहते हैं जिसमें मनुष्य रोबोट से निचले पायदान पर पहुँच जाए। राष्ट्रपति बनने के बाद ट्रंप के अत्यंत विनाशकारी परिणाम वाले निर्णयों पर गौर करना जरुरी है। इनमे सबसे दुखदायी है जलवायु संबंधी अपनी प्रतिबद्धता से अमेरिका का स्वयं को अलग कर लेना। उन्होंने अमेरिका को 2015 के वैश्विक पेरिस समझौते से अलग कर लिया है। जबकि यह सर्वज्ञात है कि अमेरिका दुनिया में सर्वाधिक कार्बन और ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करता है। दूसरा निर्णय है स्वयं को विश्व स्वास्थ्य संगठन से अलग कर लेना। 

गौरतलब है जब विश्व के सामने स्वास्थ्य एक बड़ी समस्या के रूप में खड़ा है तब अपनी जिम्मेदारी से बचना स्वार्थ की पराकाष्ठा है। ज्ञातव्य है अमेरिका इस संस्था को 130 मिलियन डालर का वार्षिक अनुदान देता था। तीसरा निर्णय है, बहुत ही क्रूरता और हठधर्मिता के साथ प्रवासियों की वापसी को लेकर दिया गया आदेश। अमेरिका की समृद्धि ही नहीं बल्कि अमेरिका का निर्माण भी आप्रविसियों की ही देन है। जिस तरह से उन्हें हथकड़ी-बेड़ियां डालकर भारत भेजा गया उससे उन दिनों की स्मृति हो आई जब अफ्रीका से स्थानीय निवासियों को हथकड़ी बेड़ी लगाकर अमेरिका में गुलामी के लिए लाया जाता था और इस प्रक्रिया में अनेक गुलामों की मृत्यु तक हो जाती थी। 

वैसे तो अमेरिका में 13वें संविधान संशोधन के माध्यम से 18 दिसंबर 1865 को गुलामी प्रथा का आधिकारिक अंत कर दिया गया। परन्तु सवाल यह है कि अमेरिकी शासक क्या 165 वर्षों बाद भी स्वयं को उस साम्राज्यवादी मानसिकता से मुक्त नहीं करा पाए हैं? ट्रंप ने तीसरा घातक निर्णय यह लिया कि उन्होंने “राष्ट्रीय उर्जा आपातकाल” घोषित कर दिया। साथ ही उन्होंने जीवाश्म ईंधन को पुनः प्रोत्साहित करने के लिए भी कमर कस ली है। राष्ट्रपति बाइडेन के कार्यकाल में स्वच्छ ऊर्जा को लेकर शुरू हुई 12 पहलों को भी धनप्रदान करना प्रतिबंधित कर दिया है। 
चौथा निर्णय लैंगिक मसला खासकर ट्रांसजेंडर को लेकर लिया गया फैसला है। यह 21वीं सदी का संभवतः सबसे घृणित निर्णय है। हजारों वर्षों से चली आ रही भेदभाव की प्रवृति को जिस तरह ख़त्म कर इस वर्ग को गरिमामय जीवन जीने का मौका मिला था और एक दौर में स्वयं अमेरिका ही इस मुहीम का अगुआ रहा है, के प्रयासों पर पानी डाल दिया गया है। यह पूरी तरह से साम्राज्यवाद की वापसी ही तो कहलाएगा। एक और फैसला आयात निर्यात शुल्क को लेकर किया गया है। इस फैसले के पीछे की कट्टरता की भावना साफ़ दर्शा रही है कि विश्व की नंबर एक अर्थव्यवस्था गहरे संकट में है और उनकी समझ में आ रहा है कि बिना धमकी और जोर-जबरदस्ती के वे अब विश्व व्य्वापर के सिरमौर नहीं बने रह सकते। 

इसी तरह यूएसऐड को एकाएक बंद करना भी अमेरिका द्वारा स्वयं तय की गई शर्तों से खुद को अलग कर लेना है। इस कदम से उन देशों में जहां की अनेक स्वास्थ्य परियोजनाएं इस संस्था की मदद से संचालित हो रहीं थी, तुरंत प्रभाव से बंद हो जाएगीं। परिणामस्वरूप उन देशों में कमोवेश “नरसंहार” जैसी स्थिति बन सकती है। वहीं भारत को चुनावी मदद का झूठ उजागर होने बावजूद ट्रंप ने पांच बार अपने बयान बदल लिए हैं। इसी के समानांतर वे विभिन्न राष्ट्रों के आंतरिक मामलों में लगातार हस्तक्षेप कर रहें हैं और अनेक राष्ट्र प्रमुखों की लगातार बेइज्जती कर रहे हैं। युक्रेन इसका नवीनतम उदाहरण है। इसके पहले वे कनाडा और ग्रीनलैंड के मामलों में इसी तरह के नफरत भरे बयान देते रहे हैं।

फेहरिस्त तो बहुत लंबी है। परन्तु सुकून वाली बात यह है रूस-युक्रेन युद्ध को लेकर जो दो प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा में आए थे, दोनों ही, जिनमें से एक स्वयं अमेरिका ने प्रस्तुत किया था। इसमें संशोधन करते हुए रूस को आक्रमणकर्ता मानते हुए कमोवेश अमेरिका द्वारा प्रस्तुत प्रस्ताव उसी के खिलाफ ही पारित हो गए हैं। यह एक बेहतर संकेत है। वहीं यूरोपीय देशों की एकजुटता ट्रंप की साम्राज्यवादी नीतियों पर रोक लगा सकती है। परन्तु ट्रंप के प्रतिदिन के निर्णय पृथ्वी पर बसे प्रत्येक प्राणी के लिए घातक सिद्ध हो रहे हैं। सोचना होगा कि “मागा” यानी अमेरिका को पुनः महान बनाना क्या इस तरह संभव हो पायेगा? 

महानता पाने की अनिवार्य शर्तें हैं आक्रामकता और हिंसा को छोड़ना। वे सारे लोग जो अमेरिका को ही भविष्य मानते आ रहे हैं, उन्हें अब वास्तविकता को समझना होगा। उन्हें समझना होगा घर में जलने वाले दिए और श्मशान में जलाए दिए की मानसिकता और परिस्थितियां अलग-अलग होती हैं। डा. लोहिया ने आधी शताब्दी पहले कहा था, “यह संभव नहीं है कि किसी बनती हुई सभ्यता की ओर संकेत किया जाए जो वर्तमान सभ्यता का विरोध करके उस पर अधिकार कर ले। लेकिन शायद जब डायनासोर मर रहा था उसके आसपास उससे अधिक शक्तिशाली पशु नहीं दिखाई पड़ रहे थे।” अमेरिका को याद रखना होगा कि ब्रिटिश साम्राज्य में सूरज नहीं डूबता था और कभी अमेरिका भी उसी साम्राज्य के अधीन ही था।