शिक्षक का संघर्ष और सरकारी तंत्र की उदासीनता, दो दशकों में कैसे बदली एमपी की शिक्षा व्यवस्था

जब राज्य के गरीब, वंचित आदिवासियों के बच्चों की शिक्षा पिछड़ रही थी, तब मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने पंचायत राज व्यवस्था लागू कर स्थानीय निकायों को शिक्षाकर्मी नियुक्ति के अधिकार दिए लेकिन संपूर्ण अधिकार की लड़ाई कभी ख़त्म न हो सकी

Updated: Oct 19, 2023, 11:39 PM IST

आज से 3 दशक पूर्व राज्य की अनेक पाठशालाएं शिक्षक विहीन थीं। स्कूलों में कई वर्षों से ताले नहीं खुले थे। तत्कालीन सरकारों की अनदेखी से राज्य के गरीब, वंचित आदिवासियों के बच्चों की शिक्षा पिछड़ रही थी, तब तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने पंचायत राज व्यवस्था लागू कर स्थानीय निकायों को शिक्षाकर्मी नियुक्ति के अधिकार दिए। साथ ही ग्रामीण क्षेत्र के निवासी व बेरोजगार युवाओं को शिक्षक बनाने का प्रावधान किया, जिससे मेरे सहित गांव के बेरोजगार युवाओं को शिक्षक बनने का अवसर मिला। 

मुझे अविभाजित खरगोन जिले के बड़वानी विकासखंड के दूरस्थ पहाड़ी अंचल में ऐसा विद्यालय मिला जहां न कोई शिक्षक था न स्कूल भवन था। मैंने अपने माता-पिता के सपनों को पूरा करने के लिए इस चुनौती को सहर्ष स्वीकार किया और प्रतिदिन लगभग 16 किलोमीटर साइकिल से स्कूल जाने लगा। रोलअप बोर्ड भी खुद से खरीदा ओर प्रतिदिन एक नीम के पेड़ के नीचे कक्षा लगाना प्रारंभ कर दिया। नए शिक्षक के गांव में आने से कौतूहलवश बच्चों की संख्या हर गुजरते दिन के साथ बढ़ने लगी। मैंने मेरी ओर से 100% श्रम लगाकर काम सुचारू रूप से प्रारंभ किया। पहला वेतन  5 माह काम करने के बाद मिला जोकि 2500 रुपये था। लेकिन खुद की मेहनत का पैसा पाकर मन अत्यंत प्रफुल्लित हुआ। वेतन मिलते ही छुट्टी ली और खुशी के मारे घर की ओर रवानगी डाल दी। पैसे घर लाकर अपनी माँ को दिए तो मजदूरी करने वाले मेरे माता-पिता की खुशी सातवें आसमान पर थी। 

रोजगार पाकर खुशी तो थी लेकिन इस नीति में प्रारम्भ में एक सत्र अर्थात 10 माह के लिए 500 रुपये मानदेय पर ही नियुक्ति की गई थी। अल्प वेतन में राज्य के लगभग 1 लाख से अधिक युवाओं को शिक्षाकर्मी बनाया गया। लेकिन 2001 में छत्तीसगढ़ के अलग राज्य बनने से मध्य प्रदेश में 84000 शिक्षाकर्मी ही बचे। अल्प मानदेय व कार्य के प्रति समर्पण के चलते चौपट हो रही शिक्षा व्यवस्था को पटरी पर लाने का काम शिक्षाकर्मियों ने किया लेकिन अल्प मानदेय व विभागीय उपेक्षा ने मेरे सहित सभी युवाओं को संगठित होकर संघर्ष के लिए प्रेरित किया। लंबे आंदोलन के बाद सरकार ने  मानदेय दोगुना किया लेकिन न्यायालय प्रकरण के चलते शिक्षाकर्मी भर्ती असंवैधानिक घोषित कर पुनः भर्ती प्रक्रिया की गई। तब सरकार ने नियमित शिक्षकों से कम वेतनमान निर्धारित कर हमारे साथ दिग्विजय सिंह की सह्रदयता ने अनुभव का लाभ देते हुए शिक्षाकर्मियों को पुनः नियमित रूप से नियुक्त किया।

 जहां तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह अपने प्रथम कार्यकाल में शिक्षाकर्मियों की समस्याओं के निराकरण को लेकर संवेदनशील व संजीदा रहे वहीं दूसरे कार्यकाल में शिक्षाकर्मियों के साथ ही समस्त शासकीय कर्मचारी अधिकारियों की समस्याओं को नजर अंदाज किया गया। आंदोलनों के चलते भारतीय जनता पार्टी ने 2003 के घोषणा पत्र में शिक्षाकर्मी, संविदा शिक्षक व ई.जी.एस. गुरुजी का एकीकरण कर नियमित करने की बात कही व सभी बड़े मंचो से सभी बड़े नेताओं ने शिक्षाकर्मियों को समान कार्य के लिए समान वेतन देने की बात कही। दिग्विजयसिंह की सरकार के खिलाफ विरोधी लहर के चलते 2003 में भाजपा सरकार आई उमा भारती मुख्यमंत्री बनीं।

अपने अल्प कार्यकाल में उमा भारती की सरकार शिक्षाकर्मियों से किया वादा पूरा नहीं कर पाई और स्वयं उमा भारती सत्ता से बाहर हो गईं। इसके बाद बाबूलाल गौर मुख्यमंत्री बने। शिक्षकों के प्रति बाबूलाल गौर की बेरुखी ने हमें दिल्ली आंदोलन के लिए विवश कर दिया। मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकार होने के कारण अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी से मिलकर माननीय बाबूलाल गौर को फोन लगवाया परिणामस्वरूप उन्होंने हमें वापस भोपाल बुलाकर अंशु वैश्य कमेटी गठित की लेकिन उनकी अनुशंसा को लागू करने के पूर्व ही वे मुख्यमंत्री पद से हट गए। उन्होंने उनके कार्यकाल में हुए आंदोलन में शिक्षाकर्मियों को होमगार्ड के जवान होने की उपाधि भी दी और लट्ठ भी मरवाये। इनके कार्यकाल में दिल्ली के जंतरमंतर पर किये गए आंदोलन के दौरान हमारी संगठनात्मक क्षमता को उस समय के भारतीय जनता पार्टी मध्य प्रदेश के प्रदेश अध्यक्ष शिवराज सिंह चौहान ने बहुत निकट से देखा और खुद शिक्षाकर्मियों की समस्याओं के निराकरण हेतु पहल करने के लिए आगे आये और संयोग से इसी बीच शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिला। उन्होंने डी पी दुबे कमेटी गठित कर शिक्षाकर्मी, संविदा शिक्षक गुरुजी के एकीकरण करने की बात कही, रिपोर्ट के अनुसार वेतनमान में परिवर्तनकर निकाय के अंदर ही अध्यापक संवर्ग बनाने की बात कही।

1 अप्रैल 2007 से अध्यापक संवर्ग का गठन किया गया लेकिन महंगाई के अनुपात में कम वेतन व सुरक्षित भविष्य को लेकर कोई निर्णय नहीं हो सका। अध्यापक बना दिये गए लेकिन समान कार्य के लिए समान वेतन व शासकीय शिक्षकों के समान अन्य सुविधाओं को लेकर आंदोलन का क्रम अनवरत जारी रहा। इसके फलस्वरूप 2011 से NPS कटोत्रा व 2013 के बड़े आंदोलन के परिणामस्वरूप अप्रैल 2013 से समान कार्य के लिए समान वेतन को 4 किस्तों में समायोजन के साथ स्वीकृत किया गया लेकिन शासन द्वारा हमें पूर्ण शिक्षक का दर्जा और हमारा लक्ष्य प्राप्त होना दूर की कौड़ी ही प्रतीत हो रही थी।

इसके पश्चात हुए आंदोलन के परिणाम के रूप में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने 21 जनवरी 2018 को शासकीय शिक्षक का दर्जा देने की बात कही व 1 जुलाई 18 से राज्य स्कूल शिक्षा सेवा का गठन किया गया। इसके तहत 7वें वेतनमान के लाभ के साथ शिक्षा व आदिम जाति कार्य विभाग में प्राथमिक माध्यमिक व उच्च माध्यमिक शिक्षक पद पर कुछ विसंगतियों के साथ नियुक्ति दी गई। अब यहां शिक्षक बनने के कारण हमने अपने संगठन को राज्य शिक्षक संघ के नाम चलायमान किया। इस बीच NPS के दुष्परिणाम भी आने लगे जो शिक्षक 500 रुपये की 20 साल पहले नौकरी में आया था जब सेवानिवृत्त होकर घर की ओर रुख किया तो फिर वही 500 रुपये पाकर अत्यंत व्यथित मन से घर जाने को बाध्य हुआ। यह अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार की अत्यंत बुरी नीति रही। जिसको मध्यप्रदेश ही नहीं देश का हर एक युवा और उनके लाखों परिवारजन जो 2005 के बाद शासकीय सेवा में आया जरूर कोस रहा है।

राज्य शिक्षक संघ के उदय के साथ ही वर्तमान सेवा शर्तों में आवश्यक परिवर्तन व पुरानी पेंशन लागू कराने की मांग को लेकर संगठन सतत प्रयासरत रहा है। 2018 से राज्यशिक्षा सेवा के गठन पश्चात उसमे व्याप्त विसंगतियों को लेकर दूर करने के लिए गत 5 वर्ष में अनेक बार मुख्यमंत्री शिवराज चौहान से आग्रह किया, लेकिन उनका निराकरण तो दूर नियमों में वर्णित क्रमोन्नति को रोक दिया गया, वरिष्ठता को अस्पष्ट कर दिया गया। यही नहीं, गत 5 वर्षों में शासकीय लोकसेवकों की मांगों को शासन स्तर से अनदेखा किया गया।

यहाँ इस बात का जिक्र करना जरूरी समझता हूँ कि गांव के लोगों को नौकरी देकर यह बीज रोपने का काम दिग्विजय सिंह ने किया तो इसका पालनपोषण श्री शिवराज सिंह चौहान ने शिक्षा व्यवस्था को स्थानीय निकाय से सरकारी तंत्र में शामिल कर वट वृक्ष बनाने का काम किया लेकिन आखिरी समय मे असहाय कर निजीकरण की ओर धकेल दिया। संवर्ग को पूर्ण शिक्षक का दर्जा प्रदान करना अभी भी लक्षित है। पिछले 25 वर्षों में सामान्य आकस्मिक अवकाश की पात्रता से लेकर, बोर्ड कॉपी का मूल्यांकन, प्रतिनियुक्ति के पदों पर नियुक्ति की पात्रता, मानदेय का वेतनमान में परिवर्तन, वेतनमान का समान वेतन में परिवर्तन, NPS कटोत्रा का लाभ, पदोन्नति क्रमोन्नति सहित सेवा शर्तों में उचित परिवर्तन समूह बीमा सहित अनेक उपलब्धियां शिक्षकों को दिलवाई गयीं लेकिन सेवा मजबूती का लक्ष्य पूर्ण नहीं हुआ।

यह उपलब्धि कुशल नेतृत्व की संगठन क्षमता व दूरदर्शिता के साथ ही हजारों शिक्षाकर्मियों, गुरुजी, संविदा शिक्षकों, अध्यापकों, शिक्षकों के लंबे संघर्ष, जुझारू पन विश्वास व सहयोग की देन है साथ ही अपनी सेवाओं के बल पर राज्य के बच्चो के सर्वांगीण विकास के प्रति प्रतिबद्ध भी है। 

इसी का परिणाम है कि 2017 के राष्ट्रीय शैक्षिक सर्वे में राज्य जहां 17वें नम्बर पर था 2021 के सर्वे में 5वें स्थान पर आया। कर्तव्य, एकता, अधिकार व संघर्ष की नीति व ध्येय वाक्य के साथ संघर्ष का क्रम जारी है। शिक्षा की बेहतरी के लिए, शिक्षक के अस्तित्व को बचाने के लिए, मध्य प्रदेश के वंचित समूह के बच्चों के स्वर्णिम भविष्य के लिए, प्रदेश को स्वर्णिम बनाने के लिए शिक्षक सदैव तत्पर हैं। मगर कर्तव्यपरायणता के साथ साथ अधिकारों को पाने के लिए भी सजगता छोड़ा नहीं है।