विपक्ष की भूमिका में निहित लोकतंत्र का भविष्य

चाहे नोटबंदी हो या चीन द्वारा हमारी सीमाओं का उल्लंघन, बात किसी भी महत्वपूर्ण मुद्दे की हो, विपक्ष की अवहेलना अंततः पूरे राष्ट्र पर भारी पड़ती है

Publish: Jun 23, 2020, 01:54 AM IST

courtesy : devdiscourse.com
courtesy : devdiscourse.com

‘नीति तय करने वाले लोग बहुत थोड़े ही होते हैं, मगर उसका खरा-खोटापन देखना, जानना, कहना हर आदमी का हक और काम है।’

पेरीक्लीनज फ्यूनरल ओरेशन में पेरीक्लीनज ने यह भाषण ईसा पूर्व 431 के आसपास दिया था। आज पच्चीस सौ वर्षों पश्चात भी यह बेहद खरा उतरता दिखाई देता है। आज हमारे आसपास जो घटित हो रहा है उससे हम सब हतप्रभ हैं और खुद को यह समझा रहे हैं कि हमारा इससे कोई लेना देना नहीं है। अपनी-अपनी करंदराओं में हम छुपे बैठे हैं, और इस बात से अनजान हैं कि कोई इस कंदरा (गुफा) का द्वार एक भारी चट्टान से बंदकर रफू-चक्कर हो जाएगा। और हम दम घुटने से अपने प्राण त्याग देंगे। और आज यही हो रहा है।

भारतीय राजनीति में विपक्ष का कमोबेश लोप हो गया है। यहां विपक्ष से आशय किसी विशेष राजनीतिक दल कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी की शारीरिक उपस्थिति भर से नहीं है, बल्कि उनकी वैचारिक पैनेपन से बातों को रखने से है। जिन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं, वहां कांग्रेस या अन्य राजनीतिक दल विपक्ष की भूमिका निभा पाने में असफल हो रहे हैं। और जहां कांग्रेस की सरकारें हैं वहां बीजेपी विपक्ष की भूमिका निभा पाने में असफल सिद्ध हो रही है। खेल सिर्फ सत्ता का खेला जा रहा है, और सत्ता का राजनीति का पर्याय बन जाना सभी के लिए बेहद नुकसानदेह सिद्ध हो रहा है। अपवाद हर जगह होते हैं। और भारतीय राजनीति भी इससे अछूती नहीं है। बहरहाल भारतीय जनता ने स्वयं का नाता अपने भाग्य निर्माण से तोड़ सा लिया है।

Click  भारत-चीन संबंधों के पेच (भाग-1) : टकराव क्यों और कितना गंभीर

अपने भाषण में फ्यूनरल ओरेशन पेरीक्लीनज एक और महत्वपूर्ण बात कहते हैं कि सिर्फ इसलिए कि आप राजनीति में रुचि नहीं लेते, राजनीति में रुचि ना लें, यानि यह संभव नहीं है। राजनीति नामक फुटबॉल में यदि हम खिलाड़ी नहीं है, तो निश्चित तौर पर फुटबॉल ही बन जाएंगे, और फुटबाल की अपनी कोई मर्जी नहीं होती। पक्ष-विपक्ष से लतियाने के बाद अंतत: वह एक चालाक खिलाड़ी द्वारा गोल (लक्ष्य)में डाल दी जाती है। साफ बात यह है कि गेंद आई तो हमारे घर में है, परन्तु जीत दूसरे की हुई। तो जनता फुटबॉल की तरह दूसरे के लक्ष्य प्राप्ति का साधन बन गई है।

पिछले दिनों दिल्ली में एक घटना घटी। दिल्ली के पड़पड़गंज में रहने वाले व्यापारी गौरव बंसल ने एक नाबालिग को इस बात की सुपारी (90 हजार में) दी कि वह उसकी हत्या कर दे,वजह आर्थिक बदहाली। मरने पर मृतक के परिवार को बीमा से डेढ़ करोड़ रुपए मिल जाते। तय हुआ था कि उसे गोली से मारा जाएगा, परंतु बंदूक का इंतजाम नहीं हो पाया और इसलिए उसे हाथ पीछे बांधकर पेड़ से लटकाकर मार दिया गया। मारने वाले गिरफ्तार हो गए हैं, मामला रफा-दफा सुलझा लिया गया। परंतु वास्तविकता यह है कि मामला शुरू ही उस व्यक्ति की हत्या, आत्महत्या, स्वरचित हत्या जो भी नाम देना चाहें से शुरू होता है। देश की आर्थिक परिस्थितियां इस हद तक निराशाजनक हो चुकी हैं कि अब लोग स्वयं की हत्या करवाने के विकल्प पर पहुंच गए हैं। यहां तर्क भी दिया जाता है कि तमाम सारे लोग संकट में होते हैं, सभी तो आत्महत्या नहीं कर लेते। ठीक बात है। यही बात कोविड 19 और अन्य महामारी पर भी लागू होती है। महामारी से सारी मानव सभ्यता तो नष्ट नहीं हो जाती। एक अनुमान के अनुसार महामारियां अधिकतम 2% लोगों को ही अपनी चपेट में ले पाती हैं, जिनमें मरने वाले और भी कम होते हैं, चपेट में वही आते हैं जिनकी प्रतिरोधक क्षमता कम होती है। अर्थात स्वास्थ्य सेवाओं की ही तरह लोकतंत्र भी कमजोर वर्ग की सहायता के लिए है, और उसका काम उन्हे संकट से निकालना है। मगर हो तो ठीक उसका विपरीत रहा है, कमजोर वर्ग लगातार संकट में फंसा रहता है और समृद्ध और प्रभावशाली दिनोंदिन तरक्की करते जाते हैं।

Click  भारत चीन संबंधों के पेच (भाग-2): नेहरू, चीन और संघ परिवार

यहीं से विपक्ष की भूमिका शुरू होती है। वह विपक्ष राजनीतिक दलों के अपने भीतर हो सकता है, उसे सत्ता के विरोध करने वाले राजनीतिक दलों में मौजूद रहना चाहिए। इसके अलावा विपक्ष के दो अन्य बेहद महत्वपूर्ण धड़े या अंग हैं। ये हैं मीडिया और न्यायपालिका। भारत में विपक्ष की विवेचना में इन सभी को शामिल किए बगैर बात नहीं बनेगी। यदि भारतीय राजनीति की बात करें तो आज राजनीतिज्ञों के लिए गांधीजी एक ऐसा प्रतीक हैं जिसे कहीं भी चिपकाया जा सकता है। परंतु वास्तविकता गांधी के ठीक विपरीत आचरण करती दिखाई देती है। प्रसिद्ध गांधीवादी लवनम का मानना था कि’ ‘गांधी विचारों को हम सत्य से सत्य की यात्रा’ (Travelling from Truth to truth) कहते हैं। गांधीजी किसी दर्शन को लेकर नहीं आए थे, ना ही उन्होंने कोई दर्शन दिया। गांधी ने कहा था कि समाज निर्माण करते हुए दर्शन, खुद बनाओ, हम तुम्हें अपने दर्शन से मुक्त करते हैं। गांधीजी को एक समय जो सत्य जैसा लगा, उसका अध्ययन किया। आचरण के दौरान दूसरा सत्य पाया तो उन्होंने पुराना सत्य छोड़ दिया। गांधी ने केवल चिंतन से ही सत्य को नहीं खोजा बल्कि, उस पर प्रयोग भी किया। परंतु आज प्रयोग तो दूर की बात है विवेचना तक नहीं हो रही है। चिंतन तो बुरी बात मानी जाने लगी है।

Click  MODI 2.0 की सालगिरह : नाकामियों को अवसर में तब्दील करने का हुनर

विपक्ष एक छोटा सा सकारात्मक उदाहरण लें, तो कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने फरवरी में महामारी को लेकर चेताया था। तब उनका मजाक उड़ाया गया। बीजेपी ने सीधे सीधे व भद्दे तरीके से वहीं बाकी विपक्षी दल भी चुप्पी साधे रहे। अब चीन का मसला लें, हमारे 20 सैनिक मारे गए। इस विषय पर भी राहुल गांधी (कांग्रेस अध्यक्ष भी) पिछले लंबे समय से सरकार से स्थिति स्पष्ट करने की मांग करते रहे। इस बार भी उनका लगातार भद्दा मजाक बनाया गया। उनकी आशंका सही साबित हुई कि चीन ने हमारे क्षेत्र में अनाधिकृत प्रवेश कर कब्जा कर लिया है। वे फिर प्रताड़ना का शिकार हुए परंतु बिना विवेक खोए हुए उन्होंने अपनी बात करना जारी रखा। सच्चाई हमारे सामने है। परंतु सत्ताधारी दल ने उनकी दूरदर्शिता को नहीं स्वीकारा। आधुनिक राजनीति की शायद यही विशेषता है, विशिष्टता है। यह गांधी का नाम तो भुनाती है, परंतु सत्य से सत्य तक की यात्रा की तैयारी कोई नहीं करना चाहता। यात्रा कैसी होनी चाहिए यह भी एक प्रश्न है।

बापू 9 जनवरी 1915 को दक्षिण अफ्रीका से भारत लौट आए। बंबई (अब मुंबई) में उन्होंने कहा ‘मैंने अब भारत में ही रहने का निश्चय कर लिया है, और अब मैं  अपनी बाकी की जिंदगी  मातृभूमि की सेवा में लगाउंगा। भारत लौटने के बाद सन 1948 में मारे जाने तक के 33 वर्षों में वे केवल एक बार 1931 में गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए 4 महीने के लिए लंदन गए थे। इन 33 वर्षों में से 6 वर्ष उन्होंने जेलों में बिताए। 7 वर्ष साबरमती आश्रम व 6 वर्ष सेवाग्राम वर्धा में गुजारे। बाकी का समय याने करीब 14 वर्ष यात्राओं में या घूमते हुए व्यतीत किए। जनवरी 1915 में उन्होंने यात्रा प्रारंभ कर दी। फरवरी 1915  उन्होंने तय किया कि आगामी 1 वर्ष वे नंगे पैर ही रहेंगे। 3 महीने बाद 10 अप्रैल 1915 को उन्होंने हरिद्वार में शपथ ली कि जब तक भारत में हैं, 24 घंटे में 5 से ज्यादा पदार्थों का सेवन नहीं करेंगे। सूर्यास्त के बाद भोजन नहीं करेंगे। इन 5 वस्तुओं में इलायची भी शामिल थी। पानी की छूट थी, परंतु मूंगफली और इसके तेल को एक सामग्री माना गया था। कहने का तात्पर्य यह है कि सत्य की यात्रा कोई हंसी खेल नहीं है। आज के बड़े कहे जाने वाले राजनीतिज्ञों का डेरा तो राजधानियों में होता है, और रस्म अदायगी के लिए ही वे अपने चुनाव क्षेत्रों में जाते हैं। वातानुकूलित व्यवस्था में विचार भी वातानुकूलित ही उभरते हैं, बेहद ठंडे और उसमें कोई उर्जा नहीं होती।

आज भारत का हर व्यक्ति राजनीति का विशेषज्ञ है। परंतु प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उस में भागीदारी करने को तैयार नहीं है। वह समर्थक या नए संदर्भों में कहें तो भक्त बने रहने में ही अपना भला समझता है। गांधी का स्वराज जो स्वराज हम समझ रहे हैं, उससे एकदम अलग था। वे इसका अर्थ स्वयं पर नियंत्रण से दर्शाते थे, परंतु आज हमारे स्वराज में हम पूरी तरह से दूसरों के किए धरे पर निर्भर हो गए हैं। इसी वजह से साफ दिखाई दे रहा है कि हमारा देश नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों के हाथ में चला गया है। और इनमें से अधिकांश एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करने में तुले हुए हैं, और समाधान कोई भी नहीं सुझाना चाहता और सुझा भी नहीं सकता। इसकी वजह यह है कि समाधान के लिए जमीनी हकीकत से वाकिफ होना जरूरी है, और हम आज ऐसी शासन व्यवस्था के अधीन आ गए हैं, जिसे करोड़ों पैदल लौटते भारतीयों के पैरों के छाले नजर नहीं आते, सड़कों पर बिखरा उनका खून तक नजर नहीं आता। प्रवासियों को भेजने तक में आपसी आरोप लगाने और राह में रोड़ा बनने से भी भारतीय राजनीति पिछले दिनों नहीं चुकी।

Click  तकनीक की गुलाम बनती शिक्षा

बात किसी भी महत्वपूर्ण मुद्दे की हो, विपक्ष की अवहेलना अंततः पूरे राष्ट्र पर भारी पड़ती है। भारत में यह वक्त नोटबंदी से शुरू होकर जीएसटी, लॉकडाउन या तालाबंदी से चीन द्वारा हमारी सीमाओं के उल्लंघन तक पहुंच गया है। इस प्रकृति को बदले बगैर भारत का भविष्य सुधर ही नहीं सकता। इस कार्य की शुरुआत कांग्रेस व उन अन्य राजनीतिक दलों को करना होगा जो कि केंद्र सरकार का हिस्सा नहीं हैं, उन्हें अपने राज्य में मौजूद विपक्ष को स्वीकारना होगा। इस विपक्ष में राजनीतिक दलों के अलावा वे तमाम जन आंदोलन व गैर सरकारी संगठन भी शामिल हैं। कांग्रेस को आजादी से पहले की कांग्रेस का पुनर्पाठ करना होगा।

सन 1915 से 1947 तक की कांग्रेस और सन 1947 के बाद की कांग्रेस की विस्तृत विवेचना व आत्मविश्लेषण भी करना होगा। आजादी के पहले कि कांग्रेस ज्यादा समावेशी इकाई थी। आज वैसी ही किसी राजनीतिक इकाई या विचार की आवश्यकता है। राजनीतिज्ञों का मूल चरित्र बेहद एक पक्षीय हो गया है, इसमें परिवर्तन लाना बेहद कठिन है, परंतु इसका कोई और विकल्प भी नहीं है। मनोविश्लेषण गिरीश्वर मिश्रा कहते हैं कि ‘मनुष्य के पास ऐसी क्षमता है कि वह एक साथ सब्जेक्ट भी है और ऑब्जेक्ट भी, हम दूसरों को देखते हैं और अपने आप को भी, आप कभी-कभी खुद से कहते हैं कि, यार तुमने अच्छा काम नहीं किया या आज दिनभर तुमने बर्बाद कर दिया। आप अपने से बात करते हैं, आप अपने को ठीक करते हैं, आप अपने को बदलते हैं, आप स्वयं को एक वस्तु मानकर उस पर विचार करते हैं’।

आज विपक्ष को आत्म अवलोकन करना होगा, उसे विपक्ष बनना होगा। मात्र सत्ता की होड़ में लगी एक इकाई बनने से बचना होगा। विपक्ष में रहने का आनंद उठाना सीखना होगा। डॉक्टर लोहिया, मधु लिमए, इंद्रजीत गुप्त जैसे तमाम स्थाई विपक्ष से बहुत कुछ सीखना समझना होगा। तब शायद एक बेहतर भारत बन पाए। एक ऐसा भारत जो प्रतिक्रिया में नहीं क्रिया में विश्वास रखता है, वास्तविकता यह है कि लोकतंत्र भले ही धीमी गति से क्यों न चल रहा हो, परंतु उसमें प्रवाह की निरंतरता होनी चाहिए। यही इसका साधन भी है। भवानी प्रसाद मिश्र अपनी बात पूरी करते हुए कहते हैं - और साध्य इसका है व्यक्ति, व्यक्ति की आजादी।