भारत चीन संबंधों के पेच (भाग-2): नेहरू, चीन और संघ परिवार  

चीन से हमारे ऐतिहासिक संबंधों को लेकर कभी सुविधा तो कभी दुविधा का आलम क्यों है

Publish: Jun 01, 2020, 08:36 PM IST

Courtesy:chinadaily.com.cn
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चीन भारत की, या कहें भारतीय प्रभु वर्ग और राजनीतिक संगठनों की एक बड़ी दुविधा है। चीन की सफलताएं उन्हें आकर्षित करती हैं। विपक्षी अथवा खुद को व्यवस्था विरोधी मानने वाले राजनीतिक संगठनों को जब भारत को पिछड़ा दिखाना हो, तो चीन की प्रगति एवं विकास के आंकड़े उनका सहारा बनते हैं। मगर जब चीन के राजनीतिक प्रतीक और उसका लाल झंडा उन्हें याद आता है, तो फिर उनमें से बहुतों को चीन दैत्य नज़र आने लगता है। जो पार्टियां या संगठन लाल किला पर लाल झंडा फहराना चाहती हैं, उनकी अपनी अलग दुविधाएं हैं। उनकी दुविधाओं के स्रोत पांच से छह दशक पुराने उस राजनीतिक विमर्श में छिपे हुए हैं, जिनकी वजह से दुनिया का कम्युनिस्ट आंदोलन मुख्य रूप से दो खेमों में बंट गया था।

भारतीय प्रभु वर्ग द्वारा नियंत्रित समाचार माध्यमों पर गौर कीजिए, तो उनमें बीजिंग से शंघाई तक के दमकते शहरों, चमकते एक्सप्रेस-वे और तेजी से उठती चीनी अर्थव्यवस्था के प्रति एक गजब किस्म का सम्मोहन नजर आएगा। लेकिन हर कुछ दिन के अंतराल पर उन्हीं माध्यमों में चीन के खिलाफ एक जुबानी जंग भी छिड़ी नजर आएगी। इस दुविधा के बीच भी अभी डेढ़ से एक दशक पहले की स्थितियों में भारत और चीन के रिश्ते सुधार की राह पर आगे बढ़ते नजर आ रहे थे। तब सीमा विवाद हल करने के राजनीतिक सिद्धांतों पर सहमति बनी थी। उसके साथ ही इस विवाद के सचमुच हल हो जाने की उम्मीद बंधने लगी थी।

लेकिन 2008 से हालात बदलने लगे। उस साल बीजिंग को ओलिंपिक खेलों की मेजबानी करनी थी। यह हर नजरिए से चीन के लिए बहुत बड़ा अवसर था। मेजबानी की तैयारियों में कोई नुक्स छूटा नहीं दिखता था। दुनिया के लिए एक यादगार खेल आयोजन की पूरी तैयारी थी। इसी बीच तिब्बत का सवाल ऊफान मारते हुए खड़ा हो गया (या कहें खड़ा कर दिया गया)। ओलिंपिक की मशाल पश्चिमी देशों में जिन शहरों से गुजरी, वहां तिब्बत की “आजादी” के समर्थक सड़कों पर कहीं हिंसक, तो कहीं शोरगुल मचाते हुए उतर आए। कुछ विरोध तिब्बत में भी भड़का। और इसी बीच जब ओलिंपिक मशाल भारत पहुंची, तो तिब्बत समर्थक गुटों ने चीन के रंग में भंग डालने की जारी मुहिम में अपना योगदान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। हालांकि तत्कालीन भारत सरकार का रुख सब्र एवं संयम का रहा, लेकिन चीन में पार्टी एवं राज्य-नियंत्रित अंदरूनी राजनीतिक संस्कृति के कारण वहां की सरकार के लिए यह मानना कठिन था कि भारत सरकार सचमुच निष्पक्ष थी। खासकर मीडिया एवं विभिन्न राजनीतिक संगठनों की प्रतिक्रिया और एशिया में अमेरिका-भारत की बनती नई धुरी को देखते हुए शायद उसके लिए ऐसा मानना और मुश्किल हुआ होगा। तो इसके साथ ही रिश्तों की राह में नए गतिरोधक आ गए, जिन्होंने सचमुच एक बार फिर से नई पेचीदगियां पैदा कर दीं।

 

बहरहाल, अगर छह दशक पीछे जाकर देखें तो उस समय भी ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ के दौर में तिब्बत का पेच फंस गया था। तिब्बत और चीन के बीच क्या ऐतिहासिक रिश्ता रहा है, यह इतिहासकारों के बीच विवाद का विषय है। समझा जा सकता है कि इस बारे में राय काफी कुछ उनके अपने राजनीतिक एवं विचारधारात्मक रुझानों से तय होती है। और कुछ यही बात विभिन्न राजनीतिक धाराओं के बारे में भी कही जा सकती है।

 

भारत की आजादी और चीन में कम्युनिस्ट क्रांति से लेकर 1962 के भारत-चीन युद्ध तक भारत में चीन के प्रति और तिब्बत के मुद्दे पर जो रुख तय किए गए, उसके पीछे ऐसे रुझानों की पहचान बड़ी आसानी से की जा सकती है। इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि जवाहर लाल नेहरू समाजवाद के जिस ढांचे में यकीन करते थे, उस पर सोवियत संघ की कम्युनिस्ट क्रांति और उसकी उपलब्धियों का खासा प्रभाव था। साम्यवाद की मुक्तिदाता भूमिका से उनका वैसा मोहभंग नहीं हुआ था, जैसा जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया या उनके सहकर्मियों का हुआ था। इसलिए चीन की क्रांति के प्रति नेहरू का सकारात्मक झुकाव था। अनेक इतिहासकार यह मानते हैं कि चीन और भारत की प्राचीन सभ्यताओं के बीच ऐतिहासिक संबंधों और संवाद की परंपरा के प्रति पंडित नेहरू हमेशा जागरूक और संवेदनशील रहे। इसलिए भी उस दौर से चीन के प्रति उनमें एक खास लगाव नजर आता है, जब चीन उपनिवेशवादी ताकतों और सामंतवाद से संघर्ष कर रहा था। संभवतः इसका ही परिणाम था कि  उन्होंने कम्युनिस्ट चीन को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर मान्यता दिलवाने के लिए अपनी अंतरराष्ट्रीय हैसियत और प्रतिष्ठा का पूरा इस्तेमाल किया। शुरुआती वर्षों में तिब्बत की घटनाओं से भी वे उतने विचलित नहीं थे, जितनी दूसरी पार्टियों और राजनीतिक धाराओं के लोग थे। पंडित नेहरू तब तक हिंदी-चीनी भाई-भाई की संभावनाओं में यकीन करते रहे, जब तक चीन के आक्रमण का खतरा भारत के सिर पर घने बादलों की तरह मंडराने नहीं लगा।

 

पंडित नेहरू के इस रुख को उनके वैचारिक और व्यक्तिगत विरोधी पार्टियों/ नेताओं ने उन्हें राजनीतिक रूप से घेरने का जरिया बनाया। तत्कालीन भारतीय जनसंघ के वैचारिक एवं सामाजिक पूर्वाग्रहों के कारण कम्युनिस्ट निशानियां उनमें स्वाभाविक रूप से आक्रामक शत्रुता का भाव  पैदा करती रहीं। ऐसे में नेहरू की चीन नीति अगर उन्हें भारत के हितों को क्षति पहुंचाने वाली नजर आती थी, तो इसमें कोई हैरत की बात नहीं है। नेहरू गुलाम और पिछड़े रहे देशों की नव-जाग्रत जन चेतना के साथ जिस नई दुनिया का सपना देखते थे, वह समाज, परिवार और संस्कृति के प्रति संघ परिवार के नजरिए को परास्त करते हुए ही बनाई जा सकती थी। बहरहाल यहां प्रासंगिक पहलू यह है कि संघ जिन कारणों से धुर नेहरू विरोधी बना रहा, उसके पीछे नेहरू की चीन नीति की भी एक बड़ी भूमिका रही है।     

 

(अगला भागः कठघरे में नेहरू क्यों)