मेरे प्रिय 140 करोड़ परिवारजन: कुछ तो समझिये

सबसे बड़ा सवाल यह है कि देश को समझना होगा कि चुनाव जीतने की क्षमता शासन को सुचारू व जनोपयोगी बनाने की क्षमता स्वमेव नहीं दे देती। यह तय है कि भाजपा की चुनाव लड़ने में महारत होती जा रही है, उसका एक बड़ा कारण उसकी आर्थिक सम्पन्नता है। और सम्पन्नता कहां से और कैसे आती है, यह कोई छुपी बात नहीं है।

Updated: Aug 19, 2023, 09:25 AM IST

इस वर्ष स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री ने लालकिले पर अपने संबोधन की शुरूआत "मेरे प्रिय 140 करोड़ परिवारजन’’ से की। लेकिन अगले ही कुछ समय में यह स्पष्ट सामने आ गया कि उन 140 करोड़ परिवारजनों में से ऐसे बहुत से हैं जो उनके प्रिय नहीं हैं। अगर हम सब एक ही परिवार हैं तो फिर परिवारवाद नामक शब्द ही अर्थहीन हो जाता है। खैर! मंच पर वे हैं और वे ही तय करेंगे कि कौन स्वतंत्रता दिवस पर उनके प्रिय है या अप्रिय! उनके परिवारजन कहते ही, अनायास ही नेहरू परिवार याद आ गया जो संभवतः उनके सबसे अप्रिय परिवारों में से है! परंतु एक परिवार कैसा होना चाहिए और परिवार के आपसी संबंध किस उच्चतम स्तर की परिपक्वता प्राप्त कर सकते हैं, वह पहले प्रधानमंत्री द्वारा 1 जनवरी 1931 को अपनी बारह वर्षीय बेटी को नैनी जेल से लिखे पत्र से स्पष्ट हो जाता है।

"विश्व इतिहास की झलक’’ में संग्रहित इस लंबे पत्र की इन पंक्तियों पर गौर करिए ’’मुझे बापू जी का भी ख्याल आया, जिन्होंने यरवदा जेल की कोठरी में बैठे-बैठे अपने जादू भरे स्पर्ष से हमारे बूढ़े देश को जवान और ताकतवर बना दिया और मुझे दादू (पंडित मोती लाल नेहरू) की भी याद आई। और दूसरों की भी। मुझे खासतौर से तुम्हारी मम्मी का और तुम्हारा ख्याल आया। इसके बाद सुबह होने तक खबर आई कि तुम्हारी मम्मी गिरफ्तार कर ली गई और जेल पहुंचा दी गई। मेरे लिए यह नए साल की एक सुंदर भेंट है।’’ वे अंत में लिखते हैं, "आज नए साल के दिन हम लोग इस बात का पक्का इरादा करें कि इससे पहले कि यह वर्ष बूढ़ा होकर चल बसे, हम अपने उज्जवल भविष्य के सपनों को वर्तमान के नजदीक ले आएंगे और भारत के प्राचीन इतिहास में एक शानदार पृष्ठ और बढ़ा लेंगे।’’

गौर करिए यह परिवार है या परिवारवाद! नेहरू के नाम से ही परेशान हो जाने वाला वर्ग दरअसल भारत में विद्यमान संस्कारों के उद्गम को ही नहीं पहचानता। वस्तुतः लेख का विषय तो प्रधानमंत्री का स्वतंत्रता दिवस का भाषण ही है। पं. नेहरू न मालूम कहां से बीच में कूद पड़े। दरअसल उस दिन था तो उनका राष्ट्र के नाम संबोधन, लेकिन नजर उठाते ही सामने चांदनी चौक दिख गया, जिसके नाम पर ही चांदनी चौक संसदीय सीट है। बस यह सूझते ही दृष्टांत ही बदल गया और संबोधन मानों एक चुनावी संबोधन में परिवर्तित सा हो गया। बीच-बीच में जरूर कभी कभार यह राष्ट्र को संबोधन का आभास देता था, लेकिन आभास तो आभास ही होता है। 

मेरे प्रिय परिवारजनों का दोहराव जैसे भाषण की ’टेक’ हो गया। प्रधानमंत्री ने मणिपुर के हालात की चर्चा जरूर की। वहां की कुछ परिस्थितियों पर रौशनी भी डाली लेकिन बात अधूरी या आभासी ही प्रतीत हुई। उम्मीद थी कि वे राष्ट्र की ओर से और स्वयं की ओर से शांति बहाली की सीधी अपील करेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यदि लालकिले से अपील होती तो वह अवश्य ही प्रभावकारी साबित होती। पर यह नहीं हुआ तो नहीं हुआ।

सवाल उठता है कि जब भाषण में दो हजार वर्षां का लेखा-जोखा, अर्थात पिछले एक हजार साल गुलामी के (75 वर्ष घटा करके) और अगले एक हजार साल भविष्य के, तो बातों का फलक इतना विस्तृत हो जाता है कि समेट पाना असंभव हो जाता है। परंतु यहां तो सबकुछ इनता सीमित था कि जैसे सृष्टि की रचना ही सन 2014 के बाद हुई है। पर दुखद तब भी यह था कि अगले एक हजार साल का कोई सपना भी तो उभर कर सामने नहीं आया। राष्ट्र की उन्नति तो उसके आंतरिक विकास से ही परिलक्षित होती है। इस पूरे संबोधन में एक बार भी उन विषमताओं का जिक्र नहीं आया जिनमें हम रोज रूबरू हो रहे हैं। भारत की बढ़ती बेरोजगारी भुखमरी, घटता निर्यात, ढहती स्वास्थ्य सेवाएं, अर्थहीन होती शिक्षा प्रणाली, बढ़ती सांप्रदायिक हिंसा, बढ़ती आर्थिक असमानता, किसानों, मजदूरों, युवाओं, छात्रों, महिलाओं में बढ़ती आत्महत्याएं, खेती का लगातार संकट में बना रहना आदि जैसी तमाम समस्याएं मुंह बाये खड़ी हैं। परंतु लालकिले से पता लगा कि ये सब जिक्र के लायक ही नहीं हैं। 

यदि भ्रष्टाचार घुन है तो पिछले 10 वर्षों में "पेस्ट कंट्रोल’’ करने से परहेज क्यों रखा गया? इसी हफ्ते सीएजी ने जो खुलासे किए हैं कि वे न तो नेहरू जी के और न ही डॉ. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री कार्यकाल के हैं। सोचिए यह कैसे संभव है कि मंत्रीमडंल जिस सड़क के निर्माण के लिए प्रति किलोमीटर 18 करोड़ रू. स्वीकृत करता है, उस सड़क पर 250 करोड़ प्रति किलोमीटर खर्च हो गया हो? आयोध्या स्थित राममंदिर परिक्षेत्र में हो रहे विकास में खुला भ्रष्टाचार सामने आया है। आयुष्मान योजना में लाखों लोगों के पंजीयन एक ही मोबाइल नं. (9999999999) पर हो गये हों। बड़ी संख्या में मृत लोगों का इलाज इस योजना के अन्तर्गत हो रहा है। परंतु बात हमेशा अन्य पक्ष को केंद्र में रखकर ही क्यों की जाती है?
 
भाषण सुनते हुए महाभारत का एक बेहद रोचक प्रसंग याद आ गया। पांडव वन में अज्ञातावास में थे। उनकी कुटी के पास एक विप्र भिक्षा मांगने आया। युधिष्ठिर ने उसे अगले दिन यानी कल आने को कहा। यह सुनते ही भीम ने उनके पैर पकड़ लिए और कहा कि आप तो भगवान हो गए। आपको तो अपना भविष्य मालूम है। युधिष्ठर विचलित हो गए और पूछा, भीम तुम कहना क्या चाहते हो। मैंने ऐसा क्या कह दिया जो तुम इतना उलाहना दे रहे हो। भीम ने कहा, कि क्या आपको मालूम है कि आप कल रहेंगे? आपने किस आधार पर इस विप्र को कल आने को कहा। जो अभी है, वही तो सच है। अगला पल तो अंधकार में है। अब आगे क्या लिखें समझ ही गये होंगे।
 
भारत जबरदस्त मंहगाई से जूझ रहा है। खाने-पीने की वस्तुओं में तो जैसे आग लगी हुई है। बात सिर्फ टमाटर तक सीमित नहीं है। सोचिए यदि जीरा 800 रू. किलो और लाल मिर्ची 300 रू. किलो हो तो क्या स्थिति बनेगी। खाद्य तेल, दालें, गेहूं, चावल ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो सामान्य उपभोक्ता की पहुंच में हो। बहुत से लोग मध्य आय वर्ग से निम्न आय वर्ग में पहुंच गए है। बेरोजगारी भी तो अपने चरम पर है। लद्यु और मघ्यम उद्योग बंद हो रहे हैं। बडे़ उद्योगों में रोजगार कम होते जा रहे हैं। कृषि और कृषक दोनों की स्थितियां लगातार बिगड़ रहीं हैं। परंतु किसी भी समस्या से निपटने का कोई ठोस प्रस्ताव इस भाषण में नहीं था। आंकड़ों की जादूगरी से वास्तविकता तो नहीं बदल जाती है।

सबसे बड़ा सवाल यह है कि देश को समझना होगा कि चुनाव जीतने की क्षमता शासन को सुचारू व जनोपयोगी बनाने की क्षमता स्वमेव नहीं दे देती। यह तय है कि भाजपा की चुनाव लड़ने में महारत होती जा रही है, उसका एक बड़ा कारण उसकी आर्थिक सम्पन्नता है। और सम्पन्नता कहां से और कैसे आती है, यह कोई छुपी बात नहीं है। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में पसमांदा समाज का उल्लेख किया। परंतु पसमांदा जिस व्यापक समुदाय/धर्म का हिस्सा है, क्या उसके बारे बात नहीं होना चाहिए। देश में बढ़ती सांप्रदायिकता क्या सरकार और प्रधानमंत्री की चिंता का विषय नहीं है? हमें सोचना होगा कि छात्र आत्महत्या क्यों कर रहे हैं। कोटा में पिछले कुछ सप्ताहों में 22 छात्र आत्महत्या कर चुके हैं। और स्थानीय पुलिस व प्रशासन इसका उपाय यह कर रहा है कि पंखे स्प्रिंगा से लटकाएं जाएं। तो आत्महत्या क्या पंखों से लटकने के शौक के चलते की जा रहीं है? आई आई टी जैसे संस्थानों में छात्र रैगिंग के डर से आत्महत्या कर रहे हैं। परंतु समाधान का जिक्र तक नहीं।

इसी के समानांतर महिलाओं के विरूद्ध अपराधों में जबरदस्त वृद्धि होती जा रही है। बुलडोजर से न्याय नहीं मिल सकता। विध्वंस कभी भी सकारात्मक परिणाम नहीं दे सकता। हमें समझना होगा कि एक आरोपी का घर बिना व्यवस्थित प्रक्रिया के बुलडोजर से तोड़ा जा रहा है और दूसरी ओर सर्व सेवा संघ का बनारस में विनोबा व जयप्रकाश नारायण द्वारा स्थापित आश्रम, पुस्तकालय भी बुलडोजर से ढहाया जा रहा है। क्या इस तरह से न्यायप्रणाली से खिलवाड़ जारी रहेगा? अगर प्रधानमंत्री 140 करोड़ लोगों को अपना परिवार जन मानते हैं तो कुछ के साथ दमनकारी व्यवहार कैसे हो सकता है? यदि बिना मुकदमे के तमाम लोग 5-5 साल से जेल में हैं तो क्या हमें अपने लोकतांत्रिक ढांचे को लेकर सवाल नहीं करना चाहिए?

ऐसे तमाम विषय थे, जिन पर लालकिले से बात होना चाहिए थी। परंतु सबकुछ जैसे ’’मैं’’ में समा गया। बाकी सारा संसार जैसे कहीं विलुप्त सा हो गया। विशिष्ट दिवसों पर अपेक्षाएं भी विशिष्ट ही होती है। कुछ तो ऐसा होता ही है, जिसे दलीय राजनीति से अलग रखकर देखा, कहा और सुना जा सकता है। इस दिन तो पड़ोसी से प्रेम की बात करनी ही चाहिए। वैश्विक पहचान तभी सशक्त बनी रह सकती है जब घरेलू संपन्नता का दायरा व्यापक हो रहा हो। सत्ता का केन्द्रीयकरण कम हो रहा हो। परंतु आज तो पूरा तंत्र घनघोर व्यक्ति केंद्रित होता जा रहा है। वर्तमान परिस्थितियां अब निश्चित बदलाव की मांग कर रहीं हैं। शासकों को अपने रवैये में और नीतियों में परिवर्तन के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए। 

सुकरात कहते हैं, ’’शायद किसी भी व्यक्ति को हानि पहुंचाना सही नहीं होगा, चाहे वह अच्छा हो या बुरा। लोगों को अगर हानि पहुंचाई जाए तो वे पहले से भी अधिक बुरे बन जाते हैं। अतएव एक न्यायसंगत व्यक्ति अच्छा व्यक्ति होता है और यह उसका काम नहीं है कि वह किसी को भी किसी भी समय हानि पहुंचाए। एक संगीतज्ञ अपनी कला का उपयोग अपने शिष्यों को बेसुरा बनाने के लिए नहीं करेगा। ठीक इसी तरह एक न्यायसंगत व्यक्ति अपने न्याय की भावना का उपयोग दूसरों को अन्यायी बनाने के लिए नहीं करेगा। न ही एक भला व्यक्ति अपनी अच्छाई का उपयोग दूसरे लोगों को बुरा बनाने के लिए करेगा।’’
    
अगला स्वतंत्रता दिवस तो अभी दूर है। परंतु संविधान बदल देने की गुहार के बीच हमसब एक कठिन समय से गुंजर रहे हैं। मणिपुर में खतरे की घंटी लगातार बज रही है, कान में ऊंगली डाल देने से उसकी गूंज रूक नहीं जाएगी। परंतु हमें रूककर अपनी दिशा जरूर तय करनी होगी। आम भारतीय नागरिक के सक्रिय होने का समय आ गया है। अंत में नेहरू जी ने पहले आम चुनाव के पूर्व जो कहा था उस पर गौर करिए, ’’हमारा चुनाव प्रचार चाहे वह भाषण से हो या लेखन के माध्यम से, निजी नहीं होना चाहिएइसमें नीतियों और कार्यक्रमों की बात होनी चाहिए।’’ यह बात आज भी उतनी ही प्रासंगिक है।