इस मासूमियत पर भला कौन न मर जाए ऐ खुदा
जनवरी से मार्च ढाई माह में आप ने जांच के कितने किट मंगवाने की व्यवस्था की?
देश के प्रधानमंत्री जी ने मुख्यमंत्रियों के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से पांचवीं बैठक और चर्चा की। लॉकडाउन में आगे क्या रियायतें दी जाए इन पर सुझाव मांगे। मीडिया के अनुसार सात राज्यों ने लॉकडाउन बढ़ाने की पैरवी की। कुछ एक राज्य जैसे गुजरात ने लॉकडाउन समाप्त करने की मांग की। भाजपा के मुख्यमंत्री ज्यादा सुझाव देने का जोखिम उठाने के बजाय प्रधानमंत्री पर ही छोड़ना सुरक्षित समझते हैं।
प्रधानमंत्री ने अपने वक्तव्य में मुख्यतः तीन बातें रखी -
1. आगे बढ़ने के लिए संतुलित रणनीति जरूरी है। गांव को संक्रमण से बचाना बड़ी चुनौती है। उन्होंने कहा कि जीवन का नया तरीका जन्म से लेकर जग तक के सिद्धांत पर आधारित होगा।
2. उन्होंने कहा कि हमारे पास नई वास्तविकता के लिए योजना होना चाहिए अब हमारे पास स्पष्ट जानकारी है कि संक्रमण कहां फैल रहा है। हालांकि उन्होंने संक्रमण फैलने का कोई विवरण नहीं दिया।
3. उन्होंने कहा कि हमने जोर दिया था कि जो जहां हैं वहीं रहे पर लोग घर जाना चाहते हैं। यह मानव स्वभाव है।
प्रधानमंत्री मोदी के पहले कथन का विश्लेषण हम करें तो अच्छा होता कि उनकी संतुलित रणनीति क्या है कम से कम इसका खुलासा मुख्यमंत्रियों के बीच वे करते। क्योंकि रणनीति का संबंध एक सीमित तबके से होने के बजाय 130 करोड़ की आबादी के देश से होना चाहिए। और जब वह कहते हैं कि जन से जहान तक तो इसमें 8 अरब की सारी दुनिया के देश और विदेश नीति भी शामिल हो जाती है। उन्होंने इसी में नई वास्तविकता के लिए योजना बनाने का संकेत दिया। और नई वास्तविकता क्या है? जिसे अंग्रेजी में न्यू नार्मल कहा गया है। यह नई वास्तविकता सोशल डिस्टेंसिंग व उसके नाम पर वर्क फ्रॉम होम आदमी की बजाय मशीन का ज्यादा इस्तेमाल और देश को मानव आधारित बनाने के बजाय मशीन आधारित बनाने की कल्पना लगती है।
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प्रधानमंत्री भूल रहे हैं कि हिंदुस्तान130 करोड़ की आबादी वाला देश है। यूरोप इटली फ्रांस जैसे देशों से 10 से लेकर 20 गुना बड़ा देश। यहां इंसान के पास एक पेट होता है। जिसमें भूख और प्यास लगती है। मशीन को भूख प्यास नहीं होती। अगर उनका सोच कोरोना के नाम पर यूरोप और अमेरिका की तर्ज पर ऑटोमेशन डिजिटलाइजेशन और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पर जाना है तो यह देश के 80 करोड़ लोगों के लिए मृत्यु की घंटी होगी। महात्मा गांधी ने कहा था कि मशीन ऐसी होनी चाहिए जिसे इंसान नियंत्रित करें परंतु ऐसी नहीं कि वह इंसान को नियंत्रित करे। डॉ. लोहिया ने स्मॉल स्केल टेकनालजी की चर्चा की थी। वे चाहते थे कि मशीन छोटी-छोटी तकनीक वाली हो जो अमानवीय श्रम सेतो मुक्ति दिलाए परंतु रोजगार खत्म ना करें। उन्होंने बंगाल में चलने वाले मानव रिक्शा की पीड़ा को देखा था और उन पर बैठना बंद कर दिया था ।वहां जानवर की जगह इंसान जुतता है। उन्होंने एक जगह लिखा था कि इन गरीबों की पीड़ा और वेदना को देखकर लगता है कि मेरा बस चले तो मैं भारत के राष्ट ध्वज पर आधा जानवर आधा इंसान बना दूं ताकि भारत के गरीब की पीड़ा को लोग समझ सकें।
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प्रधानमंत्री ने कहा कि हमने जोर दिया था कि जो जहां है वहीं रहे। परंतु घर जाना मानव स्वभाव है ।प्रधानमंत्री का यह कथन पूर्णतया गलत प्रस्तुति है। जब उन्होंने कहा जो जहां है वहीं रहे तो क्या उन्होंने यह सोचा था कि जो दो करोड़ प्रवासी मजदूर महानगरों में काम करने के लिए दूर-दूर से गांवों से आए हैं वे उनके अनुसार घर जाने के लिये नहीं बल्कि उनके कथन के विपरीत अपना घर छोड़कर हजार हजार किलोमीटर दूर क्यों गए? अगर गांव में ही उन्हें रोजी रोटी मिली होती तो वे इन महानगरों में क्यों आते ।जब प्रधानमंत्री जी की चाय वाले थे और उनकी चाय अपने घर के स्टेशन पर ही बिक जातीथी तो उन्हें घर छोड़कर बाहर जाने की आवश्यकता नहीं हुई।तब तो वह घर पर ही रहे। इसी प्रकार यह मजदूर हैं जो घर पर काम न मिलने की वजह से शहरों की ओर आए। प्रधानमंत्री इतने भोले हैं कि उन्हें यह ज्ञान नहीं है कि मजदूर किराए के मकानों में रहते हैं जहां उनको मिलने वाली मजदूरी से किराया बिजली पानी आदि का बिल देना होता है। उन्हें यह भी नहीं पता कि वे अलग कमरे का खर्च नहीं उठा सकते और अकसर पांच छह मजदूर एक साथ एक कमरे में रहते हैं और मिल बांटकर किराया चुकाते हैं। ऐसी ही स्थिति बहुत से उन छात्रों की है जो कोटा, पुणे, मुंबई, बेंगलुरु, दिल्ली, बेंगलुरु, महाराष्ट्र, रुड़की शिक्षा के केंद्रों में पढ़ने के लिए आए थे। उनमें से शायद ही आधे से 1% बच्चे ऐसे होंगे जिनके माता पिता की क्षमता उन्हें अलग कमरा लेकर पढ़ाने की होगी। वरना 99% बच्चे तीन चार एक साथ कमरे में रहते हैं। बांटकर किराया चुकाते हैं और मिल बांट कर खाना बनाते हैं तथा अपने भविष्य और देश के भविष्य के लिए तैयारी करते हैं।
हमारे मासूम प्रधानमंत्री को यह भी पता नहीं है कि इन मजदूरों और छात्रों का पेट भी होता है। जब यह मजदूर कारखाना बंदी की वजह से काम नहीं कर सकेंगे तो पेट कहां से भरेंगे। यह तो रोज कमाने रोज खाने वाले होते हैं। इनके कमरे पर रुपए तो दूर किलो 2 किलो आटा भी नहीं होता है। अधिकांश जब शाम को काम से लौटते हैं 250- 300 ग्राम सब्जी खरीद लाते हैं और बनाते हैं। दिल्ली के चार लाख से अधिक साइकिल रिक्शा चालक रात को सड़क के पास फुटपाथ पर सोते हैं या साइकिल रिक्शा पर हाथ पैर मोड़कर बंदर के समान रात काटते हैं। उन्होंने जब लॉक डाउन की अक्समात घोषणा की तब उन्होंने इन मजदूरों को क्या कोई अग्रिम सूचना दी थी? नहीं बल्कि अचानक पहले चरण में 21 दिन दूसरे चरण में 15 दिन फिर तीसरे चरण में 17 दिन यानी लगभग 53 दिन और उसके पहले के 4 दिन अघोषित कर्फ्यू के थे यानी 2 माह के लिए इन मजदूरों छात्रों को एक ही स्थान पर बंद रहना है। क्या प्रधानमंत्री ने देश के 40 करोड़ गरीबी की सीमा रेखा के नीचे वाले सामाजिक पेंशन पाने वालों के खातों में इस संभावित लोक डाउन के पहले तीन-चार माह की पेंशन की राशि अग्रिम डालने की व्यवस्था की थी? क्या प्रधानमंत्री ने कारखानों के मालिकों को यह आदेश दिया था कि 19 मार्च जिस दिन उन्होंने जनता कर्फ्यू का ऐलान किया था उसी दिन वे अपनेमजदूरों और और कर्मचारियों को 3 माह का अग्रिम वेतन दे दे ताकि वे एकमुश्त राशन खरीद सकें। कमरे पर रह सके। कम से कम जिंदा रहकर लॉकडाउन का पालन कर सकें।
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यह जो मजदूर हजारों किलोमीटर पैदल चल कर अपनी पत्नी के साथ सिर पर सामान लादकर बच्चों को लादकर तपती दोपहरी में नंगे पैर बच्चों को चलाकर और गर्भवती महिलाएं बाजू में बच्चे को दबाकर इसलिए नहीं निकले कि उन्हें घर जाना था बल्कि इसलिए निकले कि उन्हें भूख से नहीं मरना था।या तो वह बंद कमरों में भूख से मर कर सड़ी लाश बन जाते या उनके बच्चे दूध रोटी के बगैर तड़प कर मर जाते या फिर जोखिम उठाकर भागते ।अपने और अपने बच्चों के जीवन के खातिर यह पुलिस के डंडों से पिट रहेहैं रेल से कटकर मर रहे हैं। यह मरने के लिए नहीं बल्कि जीवन की तलाश में वापस जा रहे हैं ।प्रधानमंत्री को यह पता नहीं है कि यह जीने की तलाश में ही तो गांव छोड़कर शहर आए थे। क्या उनकी धरती गुजरात के उनके किसी मंत्री अफसर कार्यकर्ता ने उन्हें यह नहीं बताया कि हजारों लाखों लोग अहमदाबाद की सड़कों पर निकल पड़े हैं और नारा लगा रहे हैं कि रोटी दो या गोली दो। तो उनके सामने दो ही विकल्प हैं रोटी या गोली। प्रधानमंत्री ने अपने इस बयान से देश को गुमराह करने का प्रयास किया है। हो सकता है कि वे अब इन भयभीत कारखानों दारो को तसल्ली दे रहे हो जिन्हें तत्काल कारखाना शुरू करना है तो मजदूर चाहिए क्योंकि मशीनीकरण में वक्त लगेगा ऑटोमेशन में वक्त लगेगा। परंतु तब तक अगर उत्पादन चालू रखना है तो यही मजदूरों का ही सहारा है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री ने बिहार के मुख्यमंत्री से अपील की है कि मजदूरों को वापस पहुंचाएं। उन्हें तब तक मजदूरों की याद नहीं आई जब वे शहर में बंदी की हालत में थे। अब अपने लाभ के लिए लिए बुलाने की पहल कर रहे हैं।
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प्रधानमंत्री के वार्तालाप में उनकी पार्टी के अलावा पंजाब, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना और तमिलनाडु के गैर भाजपा मुख्यमंत्रियों ने भाग लिया था। यह पीड़ादायक है कि जब प्रधानमंत्री गुमराह करने वाला कथन बोल रहे थे कि मजदूर घर जाना चाहते हैं यह मानव स्वभाव है तो एक भी मुख्यमंत्री ने उन्हें न तो उत्तर देने का साहस किया कि प्रधानमंत्री मजदूर इसलिए नहीं भागे हैं कि वे घर जाना चाहते हैं। इसलिए भागे हैं कि आपकी इवेंट मैनेजरी और अनियोजित घोषणा ने उन्हें मरने या भागने के अलावा कोई विकल्प नहीं छोड़ा। इसके लिए आप गुनहगार हैं। आज आप गांव के संक्रमण की चर्चा कर रहे हैं और ग्रामों में बाप-बेटे, भाई-भाई में फूट के लिए लोगों को उकसा रहे हैं। ताकि जब यह गांव पहुंचे तो इनका विरोध हो। आप अपने अपराध को छुपाने के लिए देश में आग लगा रहे हैं और मासूम बनकर बयान दे रहे हैं।
एक भी मुख्यमंत्री ने साहस से नहीं पूछा कि 8 जनवरी को कोरोना की सूचना मिल जाने के बाद आप 19 मार्च तक के दो माह क्या कर रहे थे। आपका दिव्य ज्ञान कहां था? आप के उपदेश कहां थे? आप नमस्ते ट्रंप के आयोजन में 1 लाख लोग इकट्ठे कर संक्रमण क्यों फैला रहे थे? एक भी मुख्यमंत्री ने नहीं पूछा कि जनवरी से मार्च ढाई माह में आप ने जांच के कितने किट मंगवाने की व्यवस्था की? और बाद में चीन के जिस वुहान से कोरोना शुरू हुआ उसी की 32 कंपनियों को किट बनवाने का ठेका क्यों दिया तथा 5 लाख असफल किट जिन्हें आप की ही सरकार ने बाद में वापस किया उन्हें क्यों बुलाया था? किसी भी मुख्यमंत्री ने यह नहीं पूछा कि दुनिया के अनेकों देश अपनी आधी से अधिक आबादी की जांच करा चुकेहैं। उनके यहां संक्रमण की संख्या ज्यादा इसलिए है क्योंकि उनके यहां ज्यादा जांच हुई हैं। आपने दो माह में 130 करोड़ आबादी में मुश्किल से तीन चार लाख लोगों की जांच अभी तक कराई है। यह बताने के लिए भारत में अन्य देशों की तुलना में संक्रमण कम फैल पाया है । आप बहुत महान हैं। जब व्यापक आबादी की जांच होगी तब ही तो मालूम चलेगा कि संक्रमण कितना रुका है। हम तो चाहते हैं कि देश और दुनिया से कोरोना पूर्णतः मुक्त हो। परंतु आपके देश के गुमराह करने वाले भोले भाले व बयान पर यह कहकर बात समाप्त करूंगा कि "इस मासूमियत पर भला कौन न मर जाए ऐ खुदा।"