Swami Vivekanand: वे रोटी मांगते हैं, हम पत्थर पकड़ा देते हैं

127 th Anniversary of Swami Vivekananda's Chicago Address: स्वामी विवेकानंद ने 127 साल पहले 11 सितंबर 1893 को अमेरिका के शिकागो में आयोजित विश्व धर्म संसद में ऐतिहासिक भाषण दिया था। स्वामी विवेकानंद के जिन विचारों ने सवा सौ साल पहले अमेरिकी लोगों के दिलों को छू लिया था, क्या उनका थोड़ा भी असर उनके अपने देश में हिंदुत्व की सियासत करने वालों की कथनी और करनी में नज़र आता है?

Updated: Sep 11, 2020, 11:42 PM IST

“सांप्रदायिकता, धर्मांधता और उससे पैदा होने वाली खतरनाक उन्मादी सोच ने लंबे अरसे से इस सुंदर धरती पर कब्जा जमा रखा है। इन बुराइयों ने सारी दुनिया को हिंसा से भर दिया है। धरती को बार-बार इंसानों के खून से नहलाया है। सभ्यताओं को नष्ट किया है और भरे-पूरे राष्ट्रों को बर्बादी की गर्त में धकेलने का काम किया है। अगर बुराइयों के ये खौफनाक दानव नहीं होते, तो मानव समाज आज के मुकाबले कहीं ज्यादा विकसित हुआ होता। लेकिन इन बुराइयों का वक्त अब पूरा हो चुका है।”

स्वामी विवेकानंद ने यह बात अब से 127 साल पहले 11 सितंबर 1893 को अमेरिका के शिकागो में आयोजित विश्व धर्म संसद में दिए अपने भाषण में कही थी। महज 30 साल के युवा भारतीय संन्यासी के उस ओजस्वी भाषण की चर्चा अमेरिका में अगले कई दिनों तक होती रही। लेकिन स्वामी विवेकानंद के जिन विचारों ने सवा सौ साल पहले अमेरिकी लोगों के दिलों को छू लिया था, क्या उनका थोड़ा भी असर उनके अपने देश में हिंदुत्व की सियासत करने वालों की कथनी और करनी में नज़र आता है?

शिकागो

 इस सवाल का सबसे सटीक जवाब स्वामी विवेकानंद के धर्म संसद में दिए तमाम भाषणों में ही भरा है। 11 से 27 सितंबर 1893 के दौरान स्वामी विवेकानंद ने विश्व धर्म संसद को 6 बार संबोधित किया था। उनके ये भाषण भारतीय धर्म और दर्शन के उदात्त मानवीय मूल्यों की मिसाल हैं। वो मूल्य, जो धर्म की आड़ में नफरत की सियासत करने वालों के बर्ताव में दूर-दूर तक कहीं नज़र नहीं आते। 

 सभी धर्मों की मूलभूत एकता पर ज़ोर

मिसाल के तौर पर स्वामी विवेकानंद ने अपने पहले ही भाषण में सभी धर्मों की मूलभूत एकता पर ज़ोर दिया था। गीता में भगवान कृष्ण के संदेश को याद करते हुए उन्होंने कहा था: 

"ये विश्व धर्म संसद गीता के उस महान सिद्धांत की प्रासंगिकता का प्रमाण है, जिसमें भगवान कृष्ण कहते हैं: जो भक्त जिस भी रूप में मेरी भक्ति करता है, मैं उसकी भक्ति को उसी रूप में स्वीकार करता हूँ। मनुष्य अलग-अलग मार्गों से मुझे तक पहुंचने का प्रयास करते हैं और वे सभी मार्ग आखिरकार मुझ तक ही आते हैं।"

(ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:।। - गीता 4:11)

 स्वामी विवेकानंद ने अपने इस भाषण में सभी धर्मों और पूजा-पद्धतियों की बुनियादी एकता पर ज़ोर देने वाले हिंदू दर्शन का एक और उदाहरण “शिव महिमा स्तोत्रम” के एक श्लोक के रूप में भी पेश किया। धर्म संसद में शामिल प्रतिनिधियों के बीच उन्होंने कहा, 

"मैं आपको उस श्लोक के बारे में बताऊंगा, जिसे मैं बचपन से दोहराता आ रहा हूं और जिसे हर दिन लाखों लोग जपते हैं: रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषां। नृणामेको गम्यस्त्वमसि परसामर्णव इव।। यानि अलग-अलग जगहों से निकलने वाली धाराओं का जल जिस तरह समुद्र में मिलकर एक हो जाता है, उसी तरह अलग-अलग प्रवृत्तियों वाले इंसान, सीधे या टेढ़े-मेढ़े, अलग-अलग रास्तों पर चलते हुए एक ही ईश्वर तक पहुंचते हैं।"

बांटने वाली दीवारें खत्म हों

विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद का दूसरा भाषण 15 सितंबर 1893 को हुआ, जिसमें उन्होंने धर्म के नाम पर आपस में लड़ने वालों की तुलना कुएं के मेढक से की। इस छोटे लेकिन बेहद ओजस्वी भाषण में उन्होंने कहा: 

"मैं एक हिंदू हूं। मैं अपने छोटे से कुएं में बैठकर सोच रहा हूं कि सारी दुनिया मेरे इस छोटे से कुएं में ही समाई हुई है। ईसाई अपने छोटे से कुएं में बैठकर उसे ही सारी दुनिया समझता है। मुसलमान अपने कुएं में बैठकर मानता है कि दुनिया का दायरा इतना ही है। मैं अमेरिका को धन्यवाद देता हूं कि आप दुनिया को इन अलग-अलग दायरों में बांटने वाली दीवारें खत्म करने का महत्वपूर्ण प्रयास कर रहे हैं।"

 ज़ाहिर है, स्वामी विवेकानंद न सिर्फ धर्म के आधार पर लोगों को बांटने वाली सोच के खिलाफ थे, बल्कि बंटवारे करने वाली इन दीवारों को गिराने की वकालत भी करते थे। खास बात ये है कि स्वामी विवेकानंद के इन विचारों की जड़ें भारतीय धर्म-दर्शन में बेहद गहरे तक धंसी हैं। यही वजह है कि सांप्रदायिक ताकतों को उनके सर्व-समावेशी विचारों से कितना भी परहेज़ हो, उन्हें खुलकर खारिज करने का दुस्साहस वो नहीं कर पाते। हिंदू धर्म-दर्शन के मामले में स्वामी विवेकानंद की धाक और प्रतिष्ठा ऐसी है कि हिंदुत्व की सियासत के बड़े से बड़े ठेकेदार उनके विचारों को सरेआम चुनौती देने की हिमाकत नहीं कर सकते। 

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भगवान कृष्ण ने कहा, मैं हर धर्म में समाया हूं

विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद का सबसे लंबा भाषण हिंदू धर्म-दर्शन के बारे में ही था, जो उन्होंने 19 सितंबर 1893 को दिया था। अपने इस भाषण में उन्होंने पूरी मानवता को एक सूत्र में पिरोने का संदेश देते हुए कहा था,

"ईश्वर ने भगवान कृष्ण के रूप में अवतार लेकर हिंदुओं को बताया: मैं माला में पिरोए धागे की तरह हर धर्म में समाया हूं। तुम्हें जब भी कहीं ऐसी असाधारण पवित्रता और ऊर्जा दिखाई दे, जो सारी मानवता को सही रास्ता दिखाने और उसे नई ऊंचाइयों पर ले जाने का काम कर रही हो, तो समझ लेना मैं उसमें समाहित हूं।"

शिकागो

भारत की सबसे बड़ी ज़रूरत धर्म नहीं

विश्व धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद का चौथा भाषण तो कमाल का है। 20 सितंबर 1893 को दिए इस भाषण का शीर्षक है, “धर्म नहीं है भारत की सबसे बड़ी ज़रूरत।” इस भाषण का एक हिस्सा तो मानो देश की मौजूदा हालत का ही बयान है। रोज़ी-रोटी की समस्या से ध्यान भटकाने के लिए धर्म की आड़ लेने वालों को कड़ी फटकार लगाते हुए स्वामी विवेकानंद कहते हैं :

"भारत की लाखों पीड़ित जनता सूखे हुए गले से जिस चीज के लिए बार-बार गुहार लगा रही है, वह है रोटी। वे हमसे रोटी मांगते हैं और हम उन्हें पत्थर पकड़ा देते हैं। भूख से मरती जनता को धर्म का उपदेश देना, उसका अपमान है। भूखे व्यक्ति को तत्व-मीमांसा की सीख देना उसका अपमान है।"

आपसी कलह नहीं, शांति और सद्भावना 

स्वामी विवेकानंद ने विश्व धर्म संसद में अपना छठा और अंतिम भाषण 27 सितंबर 1893 को दिया था। सम्मेलन के समापन सत्र को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था: 

"पवित्रता, शुद्धता और उदारता, दुनिया के किसी एक धर्म की मिल्कियत नहीं हैं। सभी धर्मों ने सर्वश्रेष्ठ गुणों वाले महान पुरुषों और महिलाओं को जन्म दिया है। यह बात साबित होने के बाद भी अगर कोई व्यक्ति सिर्फ अपने धर्म के आगे बढ़ने और बाकी धर्मों के नष्ट होने का सपना देखता है, तो मुझे उस पर दिल की गहराइयों से तरस आता है। ऐसे लोगों को मैं बताना चाहूंगा कि तमाम विरोधों के बावजूद बहुत जल्द हर धर्म के बैनर पर लिखा होगा "युद्ध नहीं, सहयोग", "विनाश नहीं, मेल-मिलाप", "आपसी कलह नहीं, शांति और सद्भावना।" 

ज़ाहिर है स्वामी विवेकानंद का अमन और भाईचारे का यह संदेश नफ़रत की सियासत करने वालों को कभी रास नहीं आ सकता। फिर भी उनके नेता अगर गाहे-बगाहे स्वामी विवेकानंद का नाम लेते हैं, तो यह लोगों को गुमराह करने के लिए रचे जाने वाले एक और स्वांग से ज़्यादा कुछ नहीं। ठीक वैसे ही, जैसे मनुस्मृति को दिल में बसाने वाले भी खुद को बाबा साहब आंबेडकर का भक्त बताने लगते हैं, अहिंसा को कमज़ोरी मानने वाले भी दुनिया के सामने भगवान बुद्ध का गौरव गान करते हैं या मन ही मन गोडसे की पूजा करने वाले भी 2 अक्टूबर और 30 जनवरी को बापू का नाम जपने लगते हैं।