जी भाईसाहब जी: कांग्रेस छोड़ने के बाद गढ़ में हार सकते हैं मंत्री रामनिवास रावत 

MP News: मंत्री बनने के बाद कांग्रेस विधायक पद से इस्‍तीफा देने वाले वनमंत्री रामनिवास रावत की राह में राह में बीजेपी के नेता ही कांटें बिछा रहे हैं। सवाल उठ रहा है कि क्‍या रामनिवास रावत एक बार फिर अपने ही क्षेत्र में हार सकते हैं?

Updated: Sep 04, 2024, 02:21 PM IST

विजयपुर व बुधनी विधानसभा सीट पर जल्‍द उप चुनाव की घोषणा हो सकती है। बुधनी से शिवराज सिंह चौहान विधायक चुने गए थे। अब वे लोकसभा सदस्‍य हैं और केंद्रीय कृषिमंत्री बनाए जा चुके हैं। बुधनी में जीत को लेकर बीजेपी आश्‍वस्‍त है लेकिन चिंता तो विजयपुर की है। कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी में आए वनमंत्री रामनिवास रावत की अपने गढ़ विजयपुर में ही साख दांव पर है। 

विधानसभा और लोकसभा में जिस तरह से बीजेपी जीती है, उसे देखते हुए रामनिवास रावत की जीत मुश्किल नहीं दिखाई देती लेकिन उनके बीजेपी में आने से अब पार्टी में उनके अपने ही नाराज हैं। सबसे ज्‍यादा नाराज दो पूर्व विधायक सीताराम आदिवासी व बाबूलाल मेवरा। विजयपुर से सीताराम आदिवासी ने 2018 में छह बार के विधायक रामनिवास रावत को हराया था। जबकि 2023 में पूर्वमंत्री बाबूलाल मेवरा करीब 18 जार वोटों से रामनिवास रावत से हारे थे। 

राजनीति समीकरणों को देखें तो विजयपुर में जातिगत वोट बहुत महत्‍वपूर्ण हैं। यहां आदिवासी वोट हार-जीत में अहम् भूमिका निभाएंगा। यही कारण है कि बीजेपी दोनों पूर्व विधायकों की नाराजगी दूर करने के जतन कर रही है। पूर्व मंत्री बाबूलाल मेवरा की दो बार मुख्‍यमंत्री से भेंट तथा सीताराम आदिवासी के प्रभाव को देखते हुए उन्‍हें मंत्री दर्जा देने जैसे प्रस्‍तावों की चर्चा है। दोनों राजनेता और पार्टी भी मानती है कि यह नाराजगी राजनीतिक अस्तित्‍व से जुड़ी है अत: अपने अंसतुष्‍ट नेताओं को खुश करना बेहतर है। नाराज नेता भी इसी समीकरण के अनुसार मोलभाव कर रहे हैं। 

वनमंत्री रामनिवास रावत की जमीन मजबूत करने के लिए राज्य सरकार ने साम, दाम, दंड और भेद की नीति पर चलते हुए उनके गढ़ में विकास कार्यों के लिए खजाना खोल दिया है। एक ही विधानसभा क्षेत्र में 400 करोड़ से ज्यादा के काम शुरू कर दिए हैं।

बीजेपी की इस नीति के समानांतर कांग्रेस भी आदिवासी नेताओं की नाराजगी भुनाने में जुटी हुई है। उसका मुख्‍य लक्ष्‍य अपने वोटर के साथ बीजेपी से नाराज आदिवासी व अन्‍य मतदाताओं को एकजुट कर वनमंत्री रामनिवास रावत को चुनौती देना है। 

शिवराज सिंह चौहान का नहले पर दहला 

राजनीति को करीब से देखने वाले जानते हैं कि शिवराज सिंह चौहान फिनिक्‍स पक्षी की तरह है जो हर मात के बाद बार-बार उठ खड़े होते हैं। जब वे सांसद थे तब किसी ने सोचा नहीं था कि मध्‍यप्रदेश के मुख्‍यमंत्री बनाए जाएंगे। डेढ़ दशक के अपने मुख्‍यमंत्री कार्यकाल के दौरान कई बार उनके दिल्‍ली जाने की चर्चा हुई लेकिन वे मजबूती से बने रहे। 

केंद्रीय संगठन ने जब शानदार जीत के सूत्रधार होने के बाद भी जब उन्‍हें मध्‍यप्रदेश का मुख्‍यमंत्री नहीं बनाया तो मान लिया गया कि उनकी राहें मुश्किल हैं। इसके पीछे आकलन किया गया कि मध्‍यप्रदेश में उनकी बढ़ती लोकप्रियता से कुछ नेता स्‍वयं को खतरे में महसूस कर रहे थे। इसलिए उन्‍हें हटा दिया गया। लेकिन शिवराज की छवि मलीन नहीं हुई है। 

शिवराज सिंह चौहान को केंद्रीय कृषिमंत्री बनाया गया तो दिल्‍ली में नेताओं के समूह में उनका कद छोटा नहीं पड़ा बल्कि वे अपनी लाइन बड़ी करने में जुट गए हैं। सदन में भाषण और फिर बाहर सक्रियता के कारण वे लगातार चर्चा में बने हुए है। मध्‍यप्रदेश की बहनों के भाई अब शिवराज सिंह चौहान ने पीएम लखपति दीदी योजना पर ऐसी एक्‍सरसाइज शुरू कर दी है कि वे लखपति बहनों के भाई बन जाएंगे।

कृषि और ग्रामीण विकास मंत्री शिवराज चौहान ने साफ कर दिया है कि ग्रामीण विकास मंत्रालय 1 करोड़ लखपति दीदियां बना चुका है। अब तीन वर्षों में तीन करोड़ लखपति दीदियां बनाएंगे। तय है कि इस उद्देश्‍य के साथ वे देश भर में यात्राएं करेंगे, महिला सम्‍मेलनों में भाग लेंगे और इस तरह उनकी लोकप्रियता का विस्‍तार होगा। यानी, उन्‍हें रोकने के विरोधियों के प्रयासों पर शिवराज सिंह चौहान का यह कदम दहला ही साबित होने वाला है।    

मोहन-ज्योति की जुगलबंदी बीजेपी का तीसरा कोण 

राजनीति में कुछ भी स्‍थाई नहीं होता, न दोस्‍ती, न दुश्‍मनी। हर संबंध और कार्य राजनीतिक दृष्टि, लक्ष्‍य और रणनीति से संचालित होता है। एमपी बीजेपी में ऐसा ही एक कोण बन रहा है जो मिल कर ताकतवर बन गए है। यह कोण मुख्‍यमंत्री मोहन यादव और केंद्रीय मंत्री ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया की जुगलबंदी से बन रहा है। 

ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया के बीजेपी में आने से सत्‍ता का संतुलन गड़बड़ा गया था। सिंधिय खेमे को अधिक तवज्‍जो मिलने से बीजेपी के मूल नेता खफा-खफा हैं। नीर-क्षीर संबंध बनाना दोनों की तरफ के नेताओं के लिए जरा मुश्किल काम था। इसी बीच, मोहन यादव को मुख्‍यमंत्री चुन लिया गया। कैलाश विजयवर्गीय, प्रहलाद पटेल, नरेंद्र सिंह तोमर जैसे कद्दावर नेताओं के बीच जगह बनाना मुख्‍यमंत्री मोहन यादव के लिए राजनीतिक चुनौती ही थी। ऐसे में ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया और मोहन यादव के बीच मिठास बढ़ गई। सिंधिया का उज्‍जैन कनेक्‍शन और केपी यादव से मिली हार ने इस मिठास को बढ़ाने का काम किया।

असल में 2019 का गुना लोकसभा चुनाव सिंधिया बीजेपी के प्रत्‍याशी केपी यादव से हारे थे। जब अल्‍पज्ञात नेता ने तत्‍कालीन कांग्रेस नेता ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया को लोकसभा चुनाव हराया तब केपी यादव बीजेपी के हीरो बन कर उभर गए थे। सिंधिया के बीजेपी में आने के बाद पार्टी ने केपी यादव से किनारा कर लिया। वे न घर के रहे न घाट के। 

सीएम मोहन यादव का साथ मिलने से अब गुना में केपी यादव का यादव कार्ड भी नहीं चल पा रहा है। इतना ही नहीं, किसी ओर नेता की मन की हुई हो या नहीं लेकिन मोहन यादव ने ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया की हर पसंद का पूरा ख्‍याल रखा है। दूसरी तरफ, सीएम मोहन यादव को सिंधिया का साथ मिल गया है। दोनों ने मिल कर अपने-अपने राजनीतिक समीकरण साध लिए हैं। 

मुद्दों को पकड़ जनता के बीच पहुंच जाए कांग्रेस 

चुनावी राजनीति में पिछड़ रही कांग्रेस अब आक्रामक रूप में दिखाई दे रही है। लंबे समय से यह आकलन किया जा रहा था कि कोई भी मुद्दा हो विपक्ष आक्रामक मूड में नजर नहीं आता है। प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद जीतू पटवारी ने कांग्रेस को नई शक्‍ल में मैदान में उतार दिया है। अब प्रदेश के अलग-अलग हिस्‍सों में धरना-प्रदर्शन किए जा रहे हैं। 

एक पखवाड़े में ही कांग्रेस ने भोपाल में चार बड़े प्रदर्शन किए हैं। प्रदर्शन भी प्रतीक रूप में नहीं बल्कि ऐसी ताकत के साथ की विपक्ष को रोकने के लिए पुलिस को आधुनिक संसाधनों का उपयोग करना पड़ रहा है। कांग्रेस के सहयोगी संगठन जैसे अनुसूचित जाति मोर्चा, महिला मोर्चा, युवा कांग्रेस भी सड़क पर ताकत दिखा रही है। 

कांग्रेस के इन प्रदर्शनों से मैदानी कार्यकर्ताओं में ऊर्जा का संचार तो हुआ है लेकिन इन प्रदर्शनों की टाइमिंग पर सवाल हैं। इस तरह के मैदानी प्रदर्शन चुनाव के करीब होने पर किए जाने चाहिए ताकि कार्यकर्तायों का उत्‍साह बनाए रखा जा सके। अभी टी-ट्वेंटी की तरह खेलने की जगह टेस्‍ट मैच की तरह खेलने की आवश्‍यकता है। ऐसा वक्‍त जब कार्यकर्ताओं की ऊर्जा को प्रदर्शन में जाया करने की जगह मुद्दों को समझ कर जनता के बीच जगह बनाने में जुट जाया जाए। घर-घर पहुंच कर मैदानी ताकत बढ़ाई जाए और फिर मौका आने पर प्रदर्शनों में शक्ति प्रदर्शन किया जाए जिसका राजनीतिक फायदा भी हो। जड़ और कंगूरों पर संतुलित कार्य करके ही पुराना राजनीतिक वैभव पाया जा सकता है।