जी भाई साहब जी: मैंने बीजेपी को चंदा दिया, वापस करो
इस बार पंचायत और नगरीय निकाय चुनाव में अनूठे रंग देखने को मिल रहे हैं। कहीं पार्टी से निष्कासित कार्यकर्ता पार्टी को दिया चंदा वापस मांग रहे हैं तो कहीं हारने पर प्रत्याशी मतदाताओं के घर-घर कर कथित रूप से उन्हें दिए पैसे की वसूली कर रहा है।
चुनाव हमारे लोकतंत्र का उत्सव है। मगर इस बार पंचायत और नगरीय निकाय चुनाव में अनूठे रंग देखने को मिल रहे हैं। कहीं पार्टी ने निष्कासित किया तो 24 कार्यकर्ता पार्टी को दिया चंदा वापस मांग रहे हैं तो कहीं हारने पर प्रत्याशी मतदाताओं के घर-घर कर कथित रूप से उन्हें दिए पैसे की वसूली कर रहा है। इसलिए कहा गया है, राजनीति जो करवाए कम हैं।
पहले राजनीति भी मिशन मोड की तरह होती थी। विचारधारा के लिए पूर्ण समर्पण। घर-परिवार को त्याग कर विचार के लिए जीवन होम कर दिया जाता था। अब जब से राजनीति में स्वार्थ और इस स्वार्थ के लिए जोड़ तोड़ ने जगह ली है तब से राजनीति व्यापार हो गई है मिशन नहीं।
जब पार्टी ही कारोबारी मोड में काम करने लगे तो कार्यकर्ता भी ऐसे हो जाएं तो क्या ही अचरज? ऐसा ही हुआ जब पार्टी ने निष्कासित करने के बाद बीजेपी के नेता ने पार्टी को दिया चंदा वापस मांग लिया। इसके लिए बाकायदा सोशल मीडिया पर पोस्ट लिखी।
सोशल मीडिया पर वायरल हो रही इस पोस्ट में अमित सूरी स्वयं को ग्वालियर महानगर में स्वामी विवेकानंद मंडल का पूर्व उपाध्यक्ष बनता रहे हैं। वे लिखते हैं कि पार्टी के जिला अध्यक्ष कमल माखीजानी ने 24 कार्यकर्ताओं को पार्टी से निष्कासित किया है। उन्होंने कहा कि पार्टी ने चुनाव के लिए बायोडाटा लेते समय 10-10 हजार रुपए लिए थे। यह पैसा लौटाना चाहिए। उन्होंने 96 नेताओं को पोस्ट टैग करते हुए चंदे की रसीद भी पोस्ट की है।
दूसरी तरफ, नीमच की घटना तो और भी शर्मिंदगी वाली है। यहां का एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें मनासा विकासखण्ड के पंचायत चुनाव हारने के बाद सरपंच प्रत्याशी मतदाताओं को बांटे पैसे को वसूल करते हुए दिखाई दे रहा है। खबरों के अनुसार राजू दायमा नामक प्रत्याशी ने वोट न देने वाले लोगों के घर-घर जा कर 4 लाख से अधिक की राशि की उगाही की।
वीडियो सामने आया तो पुलिस ने आरोपी राजू दायमा पर मामला दर्ज किया है। मगर सवाल यह है कि जब पैसे बांट कर चुनाव जीतने की जुगत लगाई जा रही थी तब पुलिस कहां थी? मामला तो तब दर्ज होना था जब पैसे बांटे जा रहे थे। तब न पुलिस को खबर हुई न निर्वाचन अमले को। हारे तो पैसे बांटने जैसा अपराध उजागर हुआ। जीत जाते तो लोकतंत्र को चोटिल करने की जुगत परंपरा बन जाती।
हुजूर बीजेपी की सेवा की है, अब थाने में बैठो
पंचायत और नगरीय निकाय चुनाव में यह संभवत: पहला मौका है जब हर क्षेत्र में बीजेपी ने अनुशासनहीनता पर सर्वाधिक कार्यकर्ताओं को निष्कासित किया है। बावजूद इसके नेता मैदान में डटे रहे। उनका तर्क है कि पार्टी समर्पित कार्यकर्ताओं को नजरअंदाज कर आयाराम को टिकट दे रही है तो हम समझौता क्यों करे?
यही कारण है बागियों को मैनेज करने में बीजेपी को खासी मशक्कत करनी पड़ी। पार्टी और सरकार पर आरोप लगे कि उन्हें पुलिस के जरिए नियंत्रित करने की कोशिश की जा रही है। बीजेपी के धनपुरी के पूर्व मंडल अध्यक्ष ने सोशल मीडिया में पोस्ट कर बताया कि शहडोल में मुख्यमंत्री की सभा के दौरान बीजेपी के नेताओं को पुलिस थाने में बैठाया गया। जिन बीजेपी नेताओं को अमलाई थाने में बैठाया गया वे बरसों से पार्टी के समर्पित कार्यकर्ता रहे हैं।
खबरों में बताया गया कि जिन नेता जी को थाने में बैठाया गया है वे 1982 से पार्टी से जुड़े रहे हैं। कांग्रेस सरकार में दीवारों पर नारे लिख लिख कर बीजेपी का प्रचार किया करते थे। इस बार पार्टी से टिकट नहीं मिला तो बहू निर्दलीय मैदान में उतर गईं। कहा गया कि अब जब पार्टी के निर्णयों के खिलाफ वे मुखर हैं तो उनकी आवाज को बलपूर्वक दबाया जा रहा है। पुलिस थाने में हंसते-मुस्कुराते फोटो लिए गए और वायरल हुए तो दबाव की राजनीति का यह चेहरा भी बेनकाब हुआ।
उमा के दर्द की दवा कौन करे
कभी शराबबंदी के लिए सड़क पर उतरने की धमकी, कभी शराब दुकान पर पत्थर तो कभी गोबर, कभी ट्वीट के जरिए हमला तो कभी मुख्यमंत्री से मुलाकात कर आपसी विवाद न होने का संकेत देना। मध्य प्रदेश की राजनीति में पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ऐसे ही सुर्खियों में है। इस सबके बाद भी पार्टी उन्हें गंभीरता से नहीं ले रही है। और यह नजरअंदाजी उमा भारती के बेचैनी बढ़ा रहा है।
अब शराबबंदी के लिए उमा भारती ने पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष जेपी नड्डा को पत्र लिखा तो अपने राजनीतिक इतिहास को बताते हुए 41 ट्वीट भी किए। जब उमा की सक्रियता बढ़ी थी तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से उनकी मुलाकात हुई थी। माना गया था कि पार्टी शायद अपनी इस तेज तर्रार नेता का गुस्सा शांत करेगी मगर ऐसा कुछ हुआ नहीं।
खुद उमा भारती लिखती है कि तीन महीने निरंतर नीति निर्मातों से मेरी मुलाकातों के दौर चले और आज भी मुझे भरोसा है कि उन मुलाकातों का कोई परिणाम आएगा। मैं लगातार इस संबंध में सक्रिय हूं। अभी से लेकर अक्टूबर तक मैं अकेले ही शराब की दुकानों और अहातों के सामने खड़ी होऊंगी, फिर अक्टूबर में (दो अक्टूबर) गांधी जयंती पर भोपाल की सड़कों पर महिलाओं के साथ मार्च करूंगी।
मैदान पर उतरने के घोषणा दोहराने के साथ ही उमा भारती ने राष्ट्रीय अध्यक्ष से मांग की है कि बीजेपी शासित राज्यों में समान आबाकारी नीति हो। यानि गुजरात में शराबबंदी है तो मध्यप्रदेश में भी शराब पर प्रतिबंध हो।
पार्टी ने अब तक उमा भारती को कोई तवज्जो नहीं दी है। उमा भारती और उनके समर्थकों के लिए यही पीड़ादायक है कि 2003 की राजनीति की धुरी रही उमा भारती आज हाशिए पर है और कोई उन्हें पूछ नहीं रहा है। जब लगता है कि बात बनने वाली है तब उमा कुछ शांत नजर आती है मगर संगठन निष्क्रिय बना रहता है तो वे फिर कोई नया बयान दे कर राजनीतिक लहरें उठाने का प्रयास करती हैं। अपनी नई राजनीतिक जमीन तलाश रही उमा भारती की नाराजगी के संदर्भ में प्रदेश संगठन यह कह कर पल्ला झाड़ लेता है कि वे राष्ट्रीय नेता हैं। उनके बारे में कोई भी निर्णय केंद्रीय संगठन लेगा और केंद्रीय संगठन इस पूरे मामले को स्थानीय मुद्दा मानता है।
दोनों संगठनों की इस बेरूखी ने उमा भारती की पीड़ा को बढ़ा दिया है। वे जानती है कि अभी ही संगठन उन्हें नजरअंदाज कर रहा है तो 2003 के टिकट चयन में उनकी जरा भी नहीं सुनी जाएगी। इसीलिए वे सक्रियता साबित करने का हर संभव जतन कर रही हैं। देखना होगा, उनका यह दर्द लाइलाज रहेगा या पार्टी कोई दवा करेगी।
राष्ट्रपति प्रत्याशी के रूप में द्रोपदी मुर्मु से किसका फायदा
राजग की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू 15 जुलाई को भोपाल आएंगी। वह मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के आवास पर प्रदेश के भाजपा विधायकों और सांसदों के साथ दोपहर का भोजन करेंगी। जबकि विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार यशवंत सिन्हा अपने लिए समर्थन जुटाने के लिए 14 जुलाई को भोपाल आएंगे । सिन्हा भी 14 जुलाई को भोपाल में कांग्रेस के विधायकों तथा सांसदों से मिलेंगे और उनके साथ दोपहर का भोजन करेंगे।
आदिवासियों को केंद्र में रख कर हो रही राजनीति के बीच केंद्र सरकार ने द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर आदिवासी समुदाय के बीच एक सकारात्मक संदेश देने की कोशिश की है। बीजेपी कह रही है कि कांग्रेस यदि आदिवासी हितैषी है तो वह मुर्मु का समर्थन करे। जबकि कांग्रेस ने आदिवासियों के वनों पर अधिकार का मुद्दा उठा दिया है। कांग्रेस ने आरोप लगाया है कि सरकार ने वनाधिकार कानून में परिवर्तन कर आदिवासी समुदाय के हितों को गंभीर चोट पहुंचाई है, जबकि मुर्मू को प्रतीक बनाकर वह खुद को इन्हीं वर्गों का सबसे बड़ा हितैषी साबित करना चाहती है।
देखना होगा कि दोनों प्रत्याशियों के भोपाल आने पर आदिवासी राजनीति के मुद्दे को कितनी हवा मिलती है और क्या बीजेपी इसे 2023 के विधानसभा चुनाव में भूना पाएगी या नहीं।