गुरु और वेदांत के वचनों में विश्वास ही श्रद्धा

अंधश्रद्धा और वास्तविक श्रद्धा में अंतर समझना आवश्यक है, जिस श्रद्धा के पीछे प्रमाण है, वह वास्तविक श्रद्धा है और जिसके पीछे प्रमाण नहीं है, वह है अंधश्रद्धा

Updated: Aug 23, 2020, 01:12 PM IST

भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म के मूल स्रोत वेद तथा इतिहास और पुराणों में श्रद्धा का अत्यंत महत्व बताया गया है।योग शास्त्र में लिखा है- श्रद्धा जननीव योगिनं पाति। जिसका अर्थ है-'माता जैसे शिशु का पालन करती है' वैसे ही योगी का पालन उसकी श्रद्धा करती है। श्रीमदभगवत गीता के अनुसार सभी मनुष्यों में श्रद्धा होती है। कहा गया है- 

सत्वानुरूपा सर्वस्य, श्रद्धा भवति भारत।

श्रद्धामयोSयं पुरुषो यो, यच्छद्ध: स एव स:।।

मनुष्य का जैसा अन्त:कारण होता है तदनुरूप उसकी श्रद्धा होती है। पुरुष श्रद्धामय है। जो जैसी श्रद्धा वाला है, वह वैसा ही है। वेदांत-ग्रंथों में बताई गई षट् संपत्तियों में श्रद्धा भी निरूपित है। वहां श्रद्धा का लक्षण बतलाया गया है-

गुरु वेदान्त वाक्येषु विश्वास: श्रद्धा

अर्थात गुरु और वेदांत के वचनों में विश्वास ही श्रद्धा है। जो गुरु के वेदांतानुकूल वचन है उन पर विश्वास मोक्ष मार्ग में सहायक है।

कुछ लोग श्रद्धा के संबंध में भ्रम के कारण अंधश्रद्धा को ही श्रद्धा मान बैठते हैं और उसको ही महत्व देने लग जाते हैं। और कुछ लोग श्रद्धा मात्र को ही अंधश्रद्धा कहते हैं। और जो प्रत्यक्ष सिद्ध है उसी पर विश्वास आवश्यक बताते हैं। किंतु अंधश्रद्धा और वास्तविक श्रद्धा में अंतर समझना आवश्यक है। जिस श्रद्धा के पीछे प्रमाण है, वह वास्तविक श्रद्धा है। और जिसके पीछे प्रमाण नहीं है, वह अंधश्रद्धा है।

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जैसे किसी की माता ने कहा कि शक्कर कड़वी होती है क्योंकि माता ने कहा है कि शक्कर कड़वी है इतने मात्र से यदि बेटा शक्कर की मिठास को जानते हुए भी शक्कर को कड़वी मान ले तो यह प्रत्यक्ष विरुद्ध होने के कारण अंधश्रद्धा कही जाएगी। किंतु धर्म और ब्रह्म प्रत्यक्ष का विषय नहीं है। इनका ज्ञान शब्द से होता है। आप्त द्वारा उच्चरित शब्द को ही प्रमाण माना जाता है। सबसे बड़ा आप्त ईश्वर है जिसके शब्द श्रुति और स्मृति हैं। इसके विरुद्ध जिस किसी के वचनों पर विश्वास अंधश्रद्धा है जैसे इह वटे यक्ष: लोगों ने कहना आरंभ कर दिया कि इस वट वृक्ष में यक्ष है। तो लोग उसे मान बैठते हैं। जबकि इसके पीछे कोई प्रमाण नहीं है।

हमारे शास्त्रों में चार पुरुषार्थों का वर्णन है- धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष। इसमें धन को अर्थ कहा गया और इंद्रियों की तृप्ति को काम। इसी तरह जो परलोक में हमारी सहायता करता है, उसे धर्म कहते हैं और ब्रह्म साक्षात्कार को मोक्ष कहा जाता है। धर्म और ब्रह्म दोनों ही शास्त्रैकसमधिगम्य है अर्थात इन दोनों का ज्ञान शास्त्र के अतिरिक्त किसी और साधन से नहीं हो सकता। यज्ञ करने से,माता पिता की सेवा करने से,ध्यान करने से, इंद्रिय निग्रह रूप तपस्या आदि से स्वर्ग मिलता है, यह बातें शास्त्रों के अतिरिक्त किसी और साधन से नहीं जानी जा सकती हैं।इसलिए यह माना जाता है कि श्रुति स्मृति सदाचार और आत्मा की प्रियता ही धर्म का लक्षण है।

श्रुति: स्मृति: सदाचार: स्वस्य च प्रियमात्मन:।

एतच्चतुर्विधं प्राहु:, साक्षाद् धर्मस्य लक्षणम्।।

यदि हम आत्मा के प्रियता को ही धर्म मान बैठे और वह प्रियता यदि सदाचार के विपरीत है तो प्रियता धर्म नहीं हो सकती। इसी तरह सदाचार भी स्मृति और श्रुति के अनुकूल होना चाहिए। धर्म के संबंध में परम प्रमाण श्रुति ही है। उसी प्रकार ब्रह्म के संबंध में भी श्रुति ही प्रमाण है।

यदि हम केवल अपने प्रियता को ही धर्म समझ ले तो भूत-प्रेत पिशाच आदि पर भी श्रद्धा धर्म मानी जाएगी किंतु वह एक आसुरी सम्पद् है।आजकल आसुर श्रद्धा बढ़ रही है। लोग किसी के भी चमत्कारों से प्रभावित होकर उस पर श्रद्धा करने लग जाते हैं। यदि उसका प्रतिवाद किया जाए तो उनका उत्तर होता है-हमने चमत्कार देखा है। हमारी इच्छाएं पूरी हुई है। इसलिए हम उसके वचन को प्रमाण मानते हैं आदि। परंतु यह सभी विचार भ्रामक हैं।

चमत्कार बाहर कहीं नहीं है अपितु अपने भीतर ही हैं।