मर्यादा को खोजती मर्यादा

मर्यादा और मर्यादित जीवन कोई एक घटनाभर नहीं है, जो किसी क्षण घटित हो जाएगी और हम मर्यादित हो जाएंगे। यह तो एक जीवनशैली है, जिसे बेहद सतर्कता और समर्पण से अर्जित करना होता है। वैसे भवनों की भी तो मर्यादा होती है। इसीलिए मर्यादा का एक पर्यायवाची सीमा भी है।हमें यह जान लेना होगा कि मर्यादा की अपनी कोई मर्यादा (सीमा) नहीं होती। यह आदि से उभरती है और अनंत को कूच कर जाती है। सारी सृष्टि इसी मर्यादा से बंधी है और जहां भी, जब भी इस मर्यादा का उल्लंघन होता है, तो उसके कुछ तात्कालिक और कुछ दीर्घकालिक दुष्परिणाम अवश्यमेव सामने आते ही हैं

Updated: Aug 13, 2020, 02:17 AM IST

यह बेहद रोचक है कि मर्यादा के लिए, मर्यादा की रक्षा के लिए, मर्यादा बनाये रखने के लिए किए जाने वाले संघर्ष अक्सर मर्यादा-हीनता के शिकार हो जाते हैं। जिस प्रकार धर्म की रक्षा के लिए तमाम अधार्मिक कृत्य सामाजिक मान्यता प्राप्त कर लेते हैं, ठीक उसी तरह मर्यादा की रक्षा के नाम पर सबसे ज्यादा अमर्यादित आचरण किया जाता रहा है। वैसे शायद ही कोई इस तथ्य से अनजान होगा। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की शुरुआत को लेकर संपन्न गतिविधियां भी इस व्यंजना से अछूती नहीं थीं। मर्यादा के पालन का उद्घोष बिजली के बल्ब को जलाने वाले बटन या स्विच जैसा नहीं है कि उसे त्वरित चालू बंद यानी आन-ऑफ किया जा सके। यह संभव नहीं है कि हम 4 अगस्त को मर्यादा का पालन अलग तरह से करें, 5 अगस्त को उसे एकदम सैद्धांतिक ढंग से व्याख्यायित करें और 6 अगस्त को पुनः 4 अगस्त की स्थिति में लौट आएं। मर्यादा और मर्यादित जीवन कोई एक घटना भर नहीं है, जो किसी क्षण घटित हो जाएगी और हम मर्यादित हो जाएंगे। यह तो एक जीवनशैली है, जिसे बेहद सतर्कता और समर्पण से अर्जित करना होता है। वैसे भवनों की भी तो मर्यादा होती है। इसीलिए मर्यादा का एक पर्यायवाची सीमा भी है।

हमें यह जान लेना होगा कि मर्यादा की अपनी कोई मर्यादा (सीमा) नहीं होती। यह आदि से उभरती है और अनंत को कूच कर जाती है। सारी सृष्टि इसी मर्यादा से बंधी है और जहां भी, जब भी इस मर्यादा का उल्लंघन होता है, तो उसके कुछ तात्कालिक और कुछ दीर्घकालिक दुष्परिणाम अवश्यमेव सामने आते ही हैं। 5 अगस्त 2020 को जो कुछ अयोध्या में घटा वह 500 वर्ष की अमर्यादित गतिविधियों का अंत है या नई अमर्यादित गतिविधियों को मिला नवजीवन है ? यह भी कहा जा सकता है, कि यह तो भविष्य के गर्भ में है, परन्तु हम सभी जानते हैं कि एक ही पल के अंतर में हम भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों को भोग रहे होते हैं। इसीलिए हम देख पा रहे हैं कि 6 अगस्त हमारे-आपके जीवन में कोई नई ऊर्जा का संचार नहीं कर पाया, न ही हमारे जीवन को अधिक मर्यादित कर पाया और न अधिक नैतिक बना पाया। तो ऐसा क्यों हुआ ? 500 साल यानी पांच शताब्दियां कोई कम समय नहीं होता, किसी संघर्ष के लगातार चलते रहने के लिए.. तो फिर 5 अगस्त हममें नया कुछ उत्साह उमंग क्यों नहीं भर पाया ? उस दिन इस घटना की दबी-छुपी तुलना 15 अगस्त 1947 से भी की गई थी। सोचिए 14 अगस्त 1947 की रात का भारत और 15 अगस्त 1947 की सुबह का भारत क्या एक से थे ? क्या कोई तुलना और समानता है, दोनों में ? इसलिए जरुरी है कि तुलना में भी मर्यादा बरती जाए।

विनोबा कहते हैं, ‘‘हम अपने को सदा संयम की मर्यादा में रखें लेकिन दूसरों से अपने को किसी प्रकार ऊंचा न मानें।‘‘ आज सबसे बड़ा संकट संयम की मर्यादा के लगातार टूटते जाने का है। मर्यादा की यह टूटन सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक व धार्मिक सभी क्षेत्रों में लगातार विस्तारित होती जा रही है। मर्यादा के बहुत से अर्थ ही नहीं, आयाम भी हैं। थिसारस में तो इसके चार दर्जन से भी ज्यादा अर्थ और पर्यायवाची हमारे सामने आते हैं। यही स्थिति पुरुषोत्तम शब्द को लेकर भी है और हम इसके 50 से भी ज्यादा पर्यायवाची व समानार्थी देख पाते हैं। रुचिकर यह है कि नर भी पुरुषोत्तम होते हैं और नारायण भी। यह एक अदभुत संयोग ही तो है। यह मनुष्य की असीमित क्षमता का सूचक भी है। एक ही संबोधन ब्रह्म और मनुष्य दोनों के लिए। थोड़ा आगे बड़ते हैं, तो ‘‘राम‘‘ आते हैं। इनके भी करीब 62 नाम हमारे सामने आते हैं। इन सभी संबोधनों को दोहराने और उच्चारित करने से हर बार राम के कुछ नए अर्थ और आयाम हमारे मस्तिष्क में उभरते हैं। अयोध्या के भी तमाम अर्थ हमारे सामने आते हैं। अयोध्या यानी जहां युद्ध न हो। अयोध्या का अर्थ अजेय भी है। तो यह है मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, का गुणगान, यशोगान। पर 5 अगस्त को सरकार कुछ बदले-बदले नजर आए। इतना होने के बावजूद अयोध्या में ‘‘सीता रसोई‘‘ को कम ही महत्व दिया जाता है। इस दौरान उन्होंने अधूरे मन से यह असफल प्रयास किया गया कि श्रीराम के जयघोष को जय-जय सियाराम जैसे कोमल अभिवादन से पुनः सुषोभित कर दिया जाए। परन्तु श्रीराम का जयघोष जब विजयघोष बन जाने को तत्पर हो तो, कोमलता और मर्यादा की पुर्नस्थापना बहुत आसान नहीं रह जाती। अनुगूंज बहुत देर तक अपनी ध्वनि से हमें अलग नहीं होने देती। इसलिए सिया या सीता को आत्मसात कर पाना आज के समय में बहुत कठिन होता जा रहा है। इसकी एक वजह यह भी है कि सीता प्रकृति का प्रतिरूप हैं। परिपूर्णता की प्रतीक भी हैं। सीता को भी उनके तमाम प्रतीकों (नाम के विभिन्न अर्थों) से समझा जा सकता है। सीता बिना जुता खेत है। सीता जुता खेत भी हैं। सीता खेत होने के साथ ही साथ उसे जोतने वाला हल भी हैं और आगे समझें तो सीता कृषि की देवी हैं। दूसरे ही पल वे लक्ष्मी भी हैं। इस सबके होते हुए सीता प्रणाम भी कहलाती हैं और मर्यादा का पर्यायवाची भी हैं। वे राम की तरह शासक या पुरुषोत्तम नहीं है। वे अस्त्र भी नहीं उठातीं। वे सिर्फ उर्वरता ही प्रदान करती हैं, वे शीतलता देती है और सभी ओर सुवास ही संप्रेषित करती हैं।

हमें सोचना होगा कि कवियों ने जिन प्रतीकों, बिम्बों व संभावनाओं को रचा है, वह राम व सीता के साथ ही साथ उनके इर्द गिर्द फैला पूरा संसार भी है। परन्तु हर युग की समस्या यह है कि व्यक्ति संपूर्णता में ग्रहण करने की बजाए सिर्फ उतना ही आत्मसात करता है, जितना उसके अनुकूल होता है। यह उसकी मन:स्थिति का द्योतक भी होता है। तभी तो हम,

‘‘विनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीति,

बोले राम सकोप तब भय बिनु होय न ‘‘प्रीति‘‘, कहते हैं।

परन्तु मंच से हम ‘‘भय बिनु होय न प्रीत‘‘ का घोष ही सुनते हैं। गौरतलब है वाल्मीकि रामायण में यह प्रसंग नहीं है। गोस्वामी तुलसीदास रचित, राम चरित मानस को व राम को अपना सर्वस्व मानने वाले महात्मा गांधी, मानस की कतिपय विवादास्पद टिप्पणियों को लेकर एकदम स्पष्ट तौर पर कहते हैं, कि मेरी इनसे पूर्ण असहमति है। राम के मुख से भी ऐसी कोई बात निकलती है, तो मैं इसका विरोध ही करूंगा। मैं राम का भक्त हूॅं, अंधभक्त नहीं। गांधी इतनी स्पष्टता, साहस और अंतरंगता अपने इष्ट से भी रखते हैं कि उनकी कमियों को नजरअंदाज नहीं करते। अतएव हमें यह स्वीकारने में गुरेज नहीं करना चाहिए कि भय से प्रेम नहीं उपज सकता। प्रेम एक अपने आप उपजी अनुभूति है और यह थोपी नहीं जा सकती। राम के द्वारा भी नहीं। बहरहाल आज समाज में अमर्यादित डर भरा वातावरण बनाया जा रहा है। तमाम असहमत लोग जेल में हैं। असहमत व्यक्तियों-संस्थाओं पर तमाम एजेंसियों द्वारा छापे पड़ रहे हैं, तो क्या इससे कोई प्रेममय वातावरण तैयार हो रहा है ? पर राम चरित मानस से जो अपने अनुकूल लगा वह न केवल अपना लिया बल्कि उसे बहुप्रचारित भी किया। अब यदि राष्ट्र प्रमुख यह स्थापित करेंगे, तो ?

बहरहाल यह कोई अकेला मुद्दा नहीं है। 5 अगस्त को ही जम्मू-कश्मीर की स्वायत्ता को खत्म करने और राज्य का दर्जा छीने जाने को एक साल पूरा हुआ था। तो क्या अब कश्मीरी अवाम के दिल में शासन प्रशासन के लिए प्रेम का सागर हिलोरे मारने लगा है ? महबूबा मुफ्ती अभी भी जेल में हैं। उधर भीमा कोरेगांव वाले मामले में तमाम बुद्धिजीवी पिछले करीब दो वर्षों से चार्जशीट का इंतजार कर रहे हैं। पता लगाया गया कि वे प्रेमपूर्ण हो गए हैं ? एन.एस.ए. और यू.ए.पी.ए. जैसे दमनकारी कानून क्या देश में सौहार्द व प्रेम बढ़ा पाए ? इन सबको छोड़िये। चीन ने हमें भयभीत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। परन्तु न तो हम उससे डरे और न ही उसकी विस्तारवादी नीतियों और उस आक्रमणकारी देश से प्रेम करने लगे। इसलिए सार्वजनिक उद्घोषणाएं बहुत मर्यादित होनी चाहिए। बात यहां खत्म नहीं होती बल्कि यहां से शुरु होती है। हमें यह समझना होगा कि यह समारोह विवादों को समाप्त करने की पहल का जरिया या माध्यम क्यों नहीं बन पाया। इतना ही नहीं आध्यात्मिकता को तो एक तरफ रख दीजिए, यह समारोह सही अर्थों में धार्मिक भी नहीं बन पाया। यह एक राजनीतिक पहल की असफल कोशिश तक सिमट कर रह गया।

हम इस बात को कैसे गले उतार सकते हैं कि कोई ऐसा आंदोलन या संघर्ष जो पांच शताब्दियों तक चला हो उसकी सफलता को समारोहित करने वाले कार्यक्रम में विपक्षी दलों को आमंत्रित ही नहीं किया जाएगा? क्या 15 अगस्त 1947 को ऐसा कुछ हुआ था? स्वतंत्रता दिवस पर तो उन जेलों के कर्मचारी भी शामिल थे जिनकी जेलों में उस दिन भी कुछ स्वतंत्रता सेनानी कैद थे। एक राष्ट्रीय समारोह तो इतना परिपूर्ण, इतना व्यापक, इतना समावेषी और इतना ही निर्मल होता है। सफलता तो व्यक्ति को पके फलों वाले वृक्ष की मानिंद बनाती है, जो झुककर अपने फल तोड़ लेने देने को लालायित रहता है। जाहिर है मर्यादा सिर्फ जयघोष से नहीं आती। वह तो आचरण से आती है। यह भी अजीब है कि अयोध्या में निहित आध्यात्मिकता को उभारने के स्थान पर अब इसे एक पर्यटन स्थल की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है, प्रोजेक्ट किया जा रहा है। यह समझाया जा रहा है कि यहां का पूरा अर्थतंत्र ही बदल जाएगा। अपने ईष्ट से भी लेन-देन? इतना ही नहीं, जाने अनजाने मथुरा-काशी के विवादित स्थलों के लिए नए संघर्ष की बात शुरु हो गई। यानी सुई अभी जय श्रीराम पर ही अटकी है उसे जय-जय सियाराम तक पहुंचने दिया जा रहा है। सच्ची अयोध्या तक पहुंचने का रास्ता तो छोटी पगडंडियों, पहाड़ों, वनों और गरीबों की झोपड़ी से होकर जाता है, उन्हें नष्ट करके नहीं। इसलिए हमें यह समझ लेना होगा कि हमने एक गलत राह पकड़ ली है और यह राह हमें और कहीं भी पहुंचा सकती है, परन्तु वास्तविक अयोध्या और वास्तविक राम तक नहीं।

इसलिए मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का मंदिर महज 160 फुट ऊंचा एक भवन और राम की 200 फुट से ज्यादा ऊंची मूर्ति भी राम के प्रति आस्था का प्रतीक नहीं बन पाएंगे। अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा अयोध्या को पूरी दुनिया से जोड़ भले ही दे परन्तु वहां के पड़ौसियों में जो दूरी बन गई है उसे न तो फोर लेन और न ही यह हवाई अड्डा जोड़ सकता है। जय-जय सियाराम कह देने भर से भी यह नहीं हो पाएगा। हमें समाज में लचीलेपन को पुनः स्थापित करना होगा। इसमें सिया-व-राम के साथ रहीम को भी लेना होगा। अंत में एक बार पुनः विनोबा की बात, ‘‘जो वाणी सत्य को संभालती है, उस वाणी को सत्य संभालता है।‘‘ याद रखिए महात्मा गांधी ने कहा था ‘‘ईश्वर सत्य नहीं सत्य ही ईश्वर है।‘‘ राम का नाम भी तो सत्य का पर्यायवाची ही है।