सच्चिदानंद ही पूर्ण स्वतंत्र और सब पर आधिपत्य वाला है

जीने की इच्छा अर्थ है सत् होने की इच्छा, ज्ञान की इच्छा का अर्थ है चित् होने की इच्छा, सुख की इच्छा का अर्थ है आनंद की इच्छा और तीनों के मिलान से बनता है सच्चिदानंद

Updated: Oct 27, 2020, 04:49 AM IST

प्रत्येक प्राणी के मन में भगवत्सम्मिलन की इच्छा स्वाभाविक रूप से होती ही है। हमारा मनुष्य जीवन एक प्रकार की यात्रा है। जैसे हम घर से निकलते हैं तो कहीं जाने के लिए निकलते हैं। यात्रा के पूर्व ही प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति अपना उद्देश्य सुनिश्चित कर लेता है कि हमें कहां जाना है।एक देश से दूसरे देश में जाने को ही यात्रा कहते हैं। इसी प्रकार जीवन में किसी सन् संवत्सर में प्राणी जन्म लेता है और कहीं जाकर किसी सन् संवत्सर में उसके जीवन का अंत हो जाता है। तो वो भी उसकी एक यात्रा है।

जैसे एक देश से देशांतर की यात्रा का कोई उद्देश्य होना चाहिए। उसी को दार्शनिक ग्रंथों में पुरुषार्थ कहते हैं। पुरुष का जो प्रयोजन है उसका नाम पुरुषार्थ है। सबसे पहला प्रयोजन ये है कि प्रत्येक मनुष्य जीवित रहना चाहता है। कोई भी मरना नहीं चाहता। यहां तक देखा जाता है कि गंदी नाली में विचरण करने वाले शूकर भी मरना नहीं चाहते। मार खाने वाले कुत्ते भी नहीं मरना चाहते। हमारे गुरुदेव एक उदाहरण दिया करते हैं कि एक वृद्धा स्त्री थी, जो अत्यंत निर्धन थी। जंगल में जाकर लकड़ी काटती थी, बेचती थी और वही उसकी जीविका का साधन था। एक दिन वो जंगल गई, लकड़ियां इकठ्ठी की, बोझ बनाया और उठाने लगी। उठाते समय बोझ संभला नहीं वो गिर पड़ी। कराहने लगी, और मुंह से निकला-क्या बताएं मौत भी नहीं आ रही है। जैसे ही उसने कहा कि मौत नहीं आ रही है, इतने में मौत आकर खड़ी हो गई। और विकराल रूप धारण करके जोर से बोली-क्यूं बुलाया? तो बुढ़िया कहती है कि ये लकड़ी का बोझ मेरे सिर पर उठा दो इसीलिए बुलाया है।

इस प्रकार कोई भी व्यक्ति मरना नहीं चाहता। तो मनुष्य का पहला प्रयोजन है कि वह मृत्यु से बचकर जीवन सुरक्षित रखना चाहता है। और दूसरा प्रयोजन है कि कोई भी व्यक्ति अज्ञानी नहीं रहना चाहता। आप दूसरों से भले ही कह दें कि हम कुछ नहीं जानते, लेकिन दूसरा व्यक्ति यदि आपसे कह दे कि तुम मूर्ख हो, कुछ नहीं जानते तो यह गाली हो जायेगी। बेवकूफ शब्द का अर्थ क्या है? जिसमें वकूफ़ नहीं, अकल नहीं, ज्ञान नहीं है वो बेवकूफ़ है। तो कोई कितना ही मूर्ख क्यूं न हो, वो अपने आप को बुद्धिमान ही समझता है। मूर्खता से सबके मन में घृणा है, सब ज्ञान चाहते हैं। तीसरी बात सबलोग सुख चाहते हैं। समस्त दुखों की आत्यंतिक निवृत्ति और परमानंद की प्राप्ति ये मनुष्य के जीवन का लक्ष्य है। लेकिन दुःख का अभाव पुरुषार्थ नहीं है। क्यूंकि दुःख का अभाव तो पत्थर में भी है। पत्थर में चोट करें उसको मारें तो वो रोता है? लेकिन हम पत्थर नहीं बनना चाहते। हम तो दुःख की निवृत्ति भी चाहते हैं और सुख की प्राप्ति भी चाहते हैं। सुख भी थोड़ा नहीं, दुःख मिश्रित नहीं, जिसका अंत हो ऐसा भी नहीं। किसी कवि ने कहा है कि-
वह सुख,सुख ही नहीं, जिसमें दुःख है डरना है रोना है।

मिलावट से जो है खाली, उसी का नाम सोना है।।

जिसमें दुःख हो, डर हो, रोना हो, वह सुख ही नहीं है। जो दुःख से सदा अमिश्रित है, अनंत है, अखण्ड है ऐसा सुख प्रत्येक प्राणी चाहता है।चौथी इच्छा प्रत्येक प्राणी स्वतंत्र रहना चाहता है। आप अपने कमरे का दरवाजा भीतर से बंद करके दिनभर पड़े रहें आपको घबराहट नहीं होगी लेकिन कोई बाहर से बंद कर दे तो पांच मिनट में बेचैनी हो जायेगी। क्यूंकि आप परतंत्रता का अनुभव करने लग जायेंगे। परतंत्रता से सबलोग डरते हैं। सब स्वतंत्र और बन्धन मुक्त रहना चाहते हैं और पांचवीं इच्छा सबके ऊपर हमारा आधिपत्य हो। पिता चाहता है कि पुत्र हमारी आज्ञा का पालन करे, पुत्र चाहता है कि पिता जी हमारी बात मान जाएं। पति चाहता है कि पत्नी पतिव्रता हो, और स्त्री चाहती है कि पति हमारे इशारे पर नाचे। इस प्रकार आधिपत्य की भावना सबके मन में होती है। ये पांच इच्छाएं होती हैं। इन पांचों को यदि हम दूसरे शब्दों में समझना चाहें तो जीने की इच्छा अर्थ है सत् होने की इच्छा, ज्ञान की इच्छा का अर्थ है चित् होने की इच्छा, सुख की इच्छा का अर्थ है आनंद की इच्छा। तीनों को मिलाने से सच्चिदानंद बनता है। सच्चिदानंद ही पूर्ण स्वतंत्र और सब पर आधिपत्य वाला है। इस प्रकार सब लोग सच्चिदानंद, सर्व तंत्र स्वतंत्र सर्वाधिष्ठान परमात्मा से मिलना चाहते हैं।