शाकाहार बनाम मांसाहार: क्या एक नयी ‘जाति व्यवस्था’ की तरफ हम बढ़ रहे हैं ?

– सुभाष गाताड़े – क्या किसी कौम की पहचान को खाने के किसी पदार्थ के साथ जोड़ा जा सकता है ? इसका कोई आसान जवाब ‘हां’ या ‘ना’ मे देना मुश्किल है, मगर जहां तक फ्रांस का सवाल है जहां भोजन को चूंकि रूपक के तौर पर मुल्क की अस्मिता के साथ जोड़ा जाता रहा […]

Publish: Jan 18, 2019, 01:39 AM IST

शाकाहार बनाम मांसाहार: क्या एक नयी ‘जाति व्यवस्था’ की तरफ हम बढ़ रहे हैं ?
शाकाहार बनाम मांसाहार: क्या एक नयी ‘जाति व्यवस्था’ की तरफ हम बढ़ रहे हैं ?
strong - सुभाष गाताड़े - /strong p style= text-align: justify क्या किसी कौम की पहचान को खाने के किसी पदार्थ के साथ जोड़ा जा सकता है ? इसका कोई आसान जवाब ‘हां’ या ‘ना’ मे देना मुश्किल है मगर जहां तक फ्रांस का सवाल है जहां भोजन को चूंकि रूपक के तौर पर मुल्क की अस्मिता के साथ जोड़ा जाता रहा है वहां पर यही मसला एक अलग अन्दाज़ में उपस्थित हुआ है अलबत्ता बिल्कुल नकारात्मक रूप में। /p p style= text-align: justify कबाब की बढ़ती लोकप्रियता-जिसकी खपत अब पिजा और बर्गर के बाद तीसरे नम्बर पर पहुंची है और जिसने लगभग 2 बिलियन डालर का मार्केट बनाया है- ने वहां दक्षिणपंथी ताकतों को यह बहाना प्रदान किया है। उन्होंने इसे सांस्कृतिक ‘इस्लामीकरण’ के तौर पर सम्बोधित किया है। उनका कहना यही है कि हर जगह दिखनेवाला कबाब जो नौजवानों एवं कम पैसेवालों के बीच जबरदस्त लोकप्रिय हो रहा है इसी बात का संकेत है कि ‘फ्रांस में अब मध्यपूर्व की संस्कृति ने जड़े जमायी हैं’। /p p style= text-align: justify वैसे यूरोप में यह पहला मौका नहीं है जब आप्रवासियों-जिनका एक बड़ा हिस्सा मध्यपूर्व के मुल्कों का होता है- के खिलाफ अपनी संकीर्ण सोच को प्रगट करने के लिए कबाब का इस्तेमाल हुआ। कुछ समय पहले वरिष्ठ पत्रकार वीर संघवी ने इटली की बदलती फिजां के बारे में लिखा था जिसमें इटली के मिलान के स्थानीय नगरपरिषदों के हवाले से बताया गया था कि ये परिषदें इस प्रस्ताव पर गम्भीरता से सोच रही हैं कि क्या ऐसे रेस्तरां पर पाबन्दी लगायी जानी चाहिए जो गैरइतालवी खाना परोसते हैं। /p p style= text-align: justify सियासत में लिपटे कबाब का यह प्रसंग हिन्दोस्तां जैसे ेसेक्युलर मुल्क में समुदाय विशेष की आस्था की दुहाई देते हुए नागरिकों के आहार को लेकर या उनके तौर-ए-जिन्दगी के बारे में चन्द सूबाई हुकूमतों या कौमी संगठनों द्वारा उठाये जा रहे कदमों पर सोचने के लिए मजबूर करता है। /p p style= text-align: justify जैसे पिछले दिनों गुजरात के पलिटाना का किस्सा सूर्खियां बना था। जैन लोगों के लिए पवित्र कहे जानेवाले नगर पलिटाना को शाकाहारी इलाका घोषित करने की अपनी मांग को लेकर जैन साधुओं ने भूख हड़ताल की थी। इसी हड़ताल के चलते सरकार के प्रतिनिधि ने ऐलान किया कि पलिटाना नगर को ‘‘शाकाहारी इलाका’ घोषित करने का निर्णय लिया गया है। उस वक्त भी यह सवाल उठा था कि एक लाख आबादी वाले इस नगर की 25 फीसदी आबादी मुस्लिम है इतनाही नहीं स्थानीय सरकारी अधिकारी बताते हैं कि नगर की चालीस फीसदी आबादी मांसाहारी है। इन सभी के अपने हिसाब से आहार के अधिकार का क्या होगा ? /p p style= text-align: justify बहरहाल अब ताज़ा प्रसंग देश भर में फैली सोलह आई आई टी से सम्बधित है जो पिछले दिनों अलग कारणों से सूर्खियों में आयी। मध्यप्रदेश के किन्हीं जैन नामक व्यापारी तथा ‘भारतीय संस्कृति रक्षक’ नाम से इनके कुछ अन्य समविचारी लोगों के दस्तखत से मंत्रालय को भेजे गए पत्र को आधार बना कर मानव संसाधन विकास मंत्रालय की तरफ से उन्हें पत्र भेजा गया था और यह सवाल पूछा गया था कि वहां शाकाहार एवं मांसाहार करनेवाले छात्रों की खाने की अलग अलग अभिरूचियों को लेकर वह क्या कर सकते हैं। मंत्रालय का संकेत इन छात्रों के लिए अलग अलग मेस बनाने को लेकर था। जनाब जैन ने अपने पत्र में यह दावा किया था कि ‘‘मांसाहारी भोजन के सेवन से’’ छात्रों में ‘‘पश्चिमी संस्कृति’’ का प्रभाव बढ़ सकता है इसलिए उसे नियंत्रित किया जाना चाहिए। गौरतलब था कि मंत्रालय की तरफ से नागरिकों के एक छोटेसे समूह द्वारा भेजे उपरोक्त पत्र को भी फारवर्ड करते हुए एक कवरिंग लेटर भेजा गया था। /p p style= text-align: justify मंत्रालय के प्रस्तुत पत्रा का मजमून जब आलोचना का सबब बना जब यह कहा जाने लगा कि किस तरह मंत्रालय यह भी तय करने को आमादा है कि किसे क्या खाना चाहिए। तब मंत्रालय की तरफ से यह सफाई जारी की गयी कि इसके बारे में उसने कोई दृष्टिकोण नहीं रखा है। आगे यह भी जोड़ा गया कि चूंकि यह प्रशासकीय मामला है जिसे सम्बधित आई आई टी को ही तय करना होता है जो स्वायत्त हैं लिहाजा उसमें मंत्रालय की तरफ से निर्देश नहीं दिया जा सकता। /p p style= text-align: justify छात्रों को क्या खाना चाहिए इसको लेकर मंत्रालय की इस अतिसक्रियता के दौरान दो अन्य तथ्य भी सामने आए। यह उजागर हुआ कि आई आई टी दिल्ली ने मंत्रालय की तरफ से ऐसा कोई पत्र आने के पहले ही वहां शाकाहारी भोजन अनिवार्य बना दिया है। छात्रों के एक हिस्से के मुताबिक यह ऊपरी दबाव से हुआ जबकि छात्रों का एक हिस्सा मांसाहार के गिरते स्तर आदि को कारण बता रहा था। इतनाही नहीं यह बात भी उजागर हुई कि आई आई टी चेन्नई में शाकाहारी छात्रों के लिए एक अलग मेस का प्रावधान है जहां छात्रों की आबादी का महज पांच फीसदी हिस्सा खाना खाने जाता है। /p p style= text-align: justify फिलवक्त़ हम चन्द नागरिकों के पत्र के आधार पर शिक्षा संस्थानों को पत्र भेजने के औचित्य के प्रश्न को मुल्तवी भी कर दें मगर इस बात को प्रश्नांकित करना बेहद जरूरी है कि आखिर क्या मांसाहारी भोजन को ‘‘पश्चिमी संस्कृति’’ का प्रतिबिम्बन कहा जा सकता है। क्या यह वक्तव्य भारत की व्यापक आबादी की खाने पीने की अभिरूचियों के प्रति पूरी अनभिज्ञता नहीं दिखाता है। /p p style= text-align: justify इस सम्बन्ध में हम ‘पीपुल्स आफ इंडिया’ नामक बृहद शोध परियोजना के संचालक तथा जानेमाने विद्वान कुमार सुरेश सिंह के अध्ययन के निष्कर्षों पर हम गौर कर सकते हैं। अपने किस्म के इस अनूठे और विशाल अध्ययन के अन्तर्गत जो कई सालों तक चला था तथा जिसमें पूरे देश के पैमाने पर सर्वेक्षण किया गया था उन्होंने यही पाया था कि ‘‘शाकाहारवाद को अधिक मूल्यवान माने जाने के बावजूद हकीकत यही है कि भारत के समुदायों का महज 20 फीसदी तबका शाकाहारी कहा जा सकता है। ऐसे शाकाहारी मिलते हैं जो अंडे खाते हैे। ऐसे शाकाहारी भी हैं जो प्याज और अदरक से परहेज करते हैं। पुरूष अधिकतर मांसाहारी होते हैं कई समुदायों में महिलाएं शराब पीती हैं। धूम्रपान बहुत आम है तम्बाकू का सेवन तथा पान का सेवन भी तमाम समुदायों में बड़े पैमाने पर प्रचलित है।’’ उनका निष्कर्ष यही था कि ‘‘हम स्थूलतः खाने पीने वाले धूम्रपान करनेवाले और मांसाहार करनेवाले लोग हैं’’। /p p style= text-align: justify कहने का तात्पर्य यही है कि शाकाहार बनाम मांसाहार को हम धार्मिक समुदायों के खेमे में बांटा नहीं जा सकता। यह समझने की जरूरत है यह एक तरह से आम तौर पर मांसाहार न करनेवाले उच्च वर्णीय हिन्दुओं के अलावा बाकी सभी मांसाहारी हैं। फिर प्रश्न यही उठेगा कि एक छोटे अल्पमत की खाने पीने की प्राथमिकताओं को शेष समाज के लिए मापदण्ड क्यों बनाया जाए ? /p p style= text-align: justify हकीकत यही है कि वही मापदंड बना हुआ है। आज हमारे यहां शाकाहार एक स्थापित नियम बना है जबकि स्थिति यही रही है कि विभिन्न धार्मिक ग्रंथों में भी देवताओं द्वारा मांसाहार का उल्लेख है। मानववंशविज्ञानी फ्रांसिस जिम्मेरमान यह भी बताते हैं कि आयुर्वेद भी ऐसे सन्दर्भ मिलते हैं कि इलाज के लिए अगर मांस भक्षण जरूरी हो तो मरीज से इस बात को छिपाया भी जा सकता है। /p p style= text-align: justify आलम यही है कि गुजरात राज्य तथा कई अन्य स्थानों पर आवासीय कालोनियां इसी आधार पर आप को मकान बेचने या किराये पर देने का विरोध कर सकती हैं ताकि खास उच्च जातीय समुदायों का इसमें वर्चस्व बना रहे। देश के एक अग्रणी अखबार ने बाकायदा नोटिस निकाल कर अपने कर्मचारियों को कहा कि वह कैन्टीन में मांसाहारी पदार्थ लाना छोड़ दें क्योंकि उससे लोगों को दिक्कत होती है। /p p style= text-align: justify प्रस्तुत मसले पर लिखे अपने आलेख में प्रोफेसर जानकी नायर (द हिन्दू 10 नवम्बर 14) बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में अलग अलग जातियों द्वारा बनाए अपने छात्रावासों या मेस की चर्चा करते हुए बताती हैं कि ‘उन दिनों से हम दूर चले आए हैं। हमारे जनतांत्रिक गणराज्य ने विश्वविद्यालय प्रणाली में नये दायरों का निर्माण किया है जिसके माध्यम से नए भविष्यों की कल्पना की जा सकती है। प्रश्न उठता है कि साझा भोजन के छोटे अन्तराल के बाद क्या हम नयी सेक्युलरीकृत जाति व्यवस्था की तरफ नए सिरेसे बढ़ रहे हैं। ’ /p