मानव समुदाय की विविधता से भरे सांस्कृतिक गुलदस्ते से एक कटीली झाड़ी में बदलता भारत

सर्वधर्म समभाव को लेकर महात्मा गांधी ने लिखा है, 'प्रतिपक्षी को यदि हम झूठा मानते हैं तो उसके असत्य का सत्य से, अविवेक का विवेक से, अहंकार का नम्रता से और बुराई का भलाई से सामना करें। मेरा अनुयायी निंदा करने की नहीं बल्कि ह्दय परिवर्तन की पूरी कोशिश करेगा' क्या हम सब भारत की सभ्यता, संस्कृति, विविधता, सहिष्णुता और भाईचारे को बचाए रखने के लिए वर्तमान विघटनकारी शक्तियों के खिलाफ एकजुट होने की कोशिश करेंगे

Updated: Jun 09, 2022, 04:45 AM IST

photo Courtesy: Times of India
photo Courtesy: Times of India

‘‘भारत मानव जातियों का एक ऐसा विशाल संग्रहालय है, जिसमें हम संस्कृति के निम्नतम चरण से उच्चतम चरणों तक पहुंचे हुए मनुष्य का अध्ययन कर सकते हैं। इसके नमूने जीवाश्म या शुष्क अस्थियां नहीं हैं, बल्कि जीते-जागते मानव समुदाय हैं।’’
                                                                                                    इंपीरियल गजेटियर आफ इंडिया - 1881

आज से करीब 141 वर्ष पहले, अंग्रेज जो कि भारत पर राज कर रहे थे, द्वारा अंकित उपरोक्त पंक्तियों के दृष्टिगत वर्तमान भारतीय परिप्रेक्ष्य में भारत का आकलन करें तो सिवाय शर्मिंदगी के कुछ भी हाथ नहीं आएगा। भारत असाधारण व अत्यधिक नृजातीय विवधिताओं से भरपूर एक देश है। रोचक बात यह है कि ये विविधताएं पृथकता या अलगाव का प्रतीक नहीं हैं बल्कि ये आपसी मेलजोल और स्वयं अपने भीतर भी साफ-साफ नजर आती हैं।

भारत में अब तक कुल 4635 प्रकार के मानव समुदायों की पहचान कर ली गई है। गौरतलब है, इनके नाक-नक्श, भाषा, वेशभूषा, पूजा-पाठ की पद्धतियां, पेशे या आजीविका, खान-पान, आदतों और रिश्तों के स्वरूप अलग-अलग हैं। इन्हीं भिन्नताओं की वजह से आपसी टकराव होता रहा है, तो आपसी प्रेम भी इन विविधताओं की ही देन है। इसलिए जिस संघर्ष को हम महज हिन्दू-मुस्लिम के संकुचित दायरे में देख रहे हैं, वह वास्तव में एक भयानक षडयंत्र है, जो हिन्दू-मुस्लिम विवाद की आड़ में, 4635 प्रकार के भारतीय मानव समुदायों को एक ही छाप ‘‘हिन्दुत्व’’ के खूंटे से बांधकर भारत को एक विविधता भरे “सांस्कृतिक गुलदस्ते से एक कटीली झाड़ी” में परिवर्तित कर देना चाहता है। इस षडयंत्र के कर्ताधर्ता या षडयंत्रकारी बेहद चालबाज़ी से दो समुदायों या दो धर्मों के बीच विवाद को भड़काकर बकाया हजारों मानव समुदायों को हिंदुत्व के नीचे लाकर उनकी पहचान समाप्त कर देना चाहते हैं। 

इस सांप्रदायिक विवाद के चलते भाषा के विवाद को खड़ा करना, उत्तर दक्षिण भारत के मूल्यों में अलगाव को कृत्रिम रूप से रेखांकित करना, भोजन में व्याप्त विविधता को कटघरे में लाना, पोशाक या वेशभूषा को विवादास्पद बनाना, जैसे तमाम कारक समझा रहे हैं कि वास्तविक चुनौती ‘‘भारतीयता’’ और इसकी ‘‘विविधता’’ को दी जा रही है। मुसलमान वर्ग तो महज शुरुआत या चलताऊ भाषा में कहें तो सॉफ्ट टारगेट रहा है। मुस्लिम समुदाय को इसलिए निशाने पर लिया गया है, जिससे कि बाकी के 80 प्रतिशत समुदाय, जो कि विभिन्नता लिए हुए हैं, डर जाएं और भविष्य में सिर नहीं उठा सकें तथा वे भी किसी एक धार्मिक किताब या मसीहा से स्वयं को संबद्ध कर लें।

हमें याद रखना होगा कि भारत की अधिकांश जनसंख्या ‘‘लोक परंपरा’’ की संवाहक रही है और यह नई धारा उन्हें कमोवेश ‘‘नगरीय शास्त्रीयता’’ में ढाल देना चाहती है। लोक परंपरा पूरी तरह से समावेशी है और नगरीय शास्त्रीयता कमोवेश व्यक्तिवाद को प्रोत्साहित करती है। समावेशी या सामुदायिक संस्कृति में सांप्रदायिकता जैसे नगरीय विशेषणों के लिए ज्यादा जगह नहीं होती थी। परंतु संचार के आधुनिकतम साधनों की कृपा से ग्रामीण एवं लोक समुदाय को भी व्यक्तिवादी बनाने में सहायता मिली। धीरे-धीरे उत्तरी, पश्चिमी और पूर्वी भारत के अधिकांश हिस्से और दक्षिण भारत का एक हिस्सा हिन्दू - मुस्लिम के खेमे में बंटकर अपनी मूल या मौलिक पहचान को मिटाने पर तुल गया। दक्षिणपंथी समुदाय के लिए इससे ज्यादा अनुकूल और कुछ हो ही नहीं सकता था। उसने नागरिकों को इस हद तक मदहोश कर दिया कि अब वे अपनी आंचलिकता या वर्ग पहचान को महज जातिगत/ समुदायगत आरक्षण के परिप्रेक्ष्य में ही देख पाते हैं। 

अब थोड़ी बात वर्तमान परिस्थिति पर गांधी जी के उद्धरणों से, ‘‘हिन्दू और मुसलमान जानवर बन जाते हैं, पर उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि वे झुकी हुई कमर वाले जानवर नहीं हैं, सीधी कमर वाले मनुष्य हैं। इसलिए घोर विपत्तियों में उन्हें धर्म और श्रद्धा नहीं छोड़नी चाहिए।’’ भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ताओं ने पैगंबर हजरत मोहम्मद के बारे में जो कुछ कहा, वह सर्वथा अवांछनीय है। एक धार्मिक मान्यता एवं धर्म प्रवर्तक (पैगंबर) के बारे में कुछ भी कहने से पहले टिप्पणी करने वालों को सोचना चाहिए था कि वे भारत पर शासन करने वाले राजनीतिक दल के सदस्य हैं, और इस नाते उनकी जिम्मेदारी बाकियों से कहीं ज्यादा है। 

परंतु पिछले 8-9 वर्षों से मीडिया में हस्तक्षेप के माध्यम से भाजपा की मनमर्जी एवं एकाधिकार का वातावरण बन चुका है। वे यह समझ ही नहीं रहे हैं कि बेलगाम घोड़ा सबसे ज्यादा घातक तो सवार के लिए ही सिद्ध होता है। परंतु अपार एश्वर्य और असीमित शक्ति से लैस योद्धा यह भूल गए कि धरती पर हर जगह मखमली कालीन बिछे नहीं होते। कंकड़ - पत्थर  भी होते हैं। चट्टानें भी होती हैं। पहाड़ भी होते हैं और खाइयां भी। घमंड का घोड़ा चट्टान से टकरा गया और वे सिर के बल नीचे गिर पड़े। जिनकी थोड़ी बहुत रुचि भी इतिहास और वैश्विक राजनीतिक गतिविधियों में है, वे जानते हैं कि आजादी के पहले से ही “गुलाम भारत” की अंतरराष्ट्रीय मसलों से पूछ-परख रही है। 

अनेक यूरोपीय नागरिकों का मानना था कि महात्मा गांधी ही विश्व में एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं, जो कि महायुद्ध को रुकवा सकते हैं। बापू ने हिटलर को पत्र लिखा भी लेकिन अंग्रेज सरकार ने उसे भारत से बाहर नहीं जाने दिया। इसी तरह आजादी के पहले फिलीस्तीन को लेकर महात्मा गांधी और नेहरु के विचार पूरी दुनिया में जाने जाते थे। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की वैश्विक परिकल्पना और राष्ट्रवाद की समीक्षा आज भी प्रासंगिक है। आजादी के बाद नेहरु को सारे विश्व में शांतिदूत माना जाता था। स्वेज नहर का विवाद उनकी मध्यस्थता से ही किनारे लगा था। गुटनिरपेक्ष आंदोलन में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। 

उनके बाद इंदिरा गांधी ने जिस तरह से बांग्लादेश के गठन में भारत की भूमिका सुनिश्चित की वह वास्तव में आश्चर्यजनक है। पूरा मुस्लिम विश्व हक्का बक्का रह गया और पाकिस्तान के साथ रहते हुए भी पाकिस्तान का साथ नहीं दे पाया। इसके बाद परमाणु शस्त्रों की समाप्ति को लेकर राजीव गांधी के प्रयासों और दूरदर्शिता का सारा विश्व कायल रहा है। उनके द्वारा अपने पड़ोसी देशों खासकर चीन व पाकिस्तान से मित्रता की पहल अनुकरणीय रही। अटल बिहारी वाजपेयी अपने समय के एक वैश्विक नेता के रूप में उभरे। डा. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में भारत ने एक वैश्विक आर्थिक शक्ति बनने की ओर ठोस कदम उठाया था। 

पिछले सात दशकों में शायद ही कभी भारत को कूटनीतिक स्तर पर इतना अपमान सहना पड़ा हो, जितना आज सहना पड़ रहा है। इंडोनेशिया, मलेशिया, पाकिस्तान, कतर, ईरान, बेहरीन, सउदी अरब, लीबिया, तुर्की जैसे देशों ने तो भारत की खुली आलोचना की ही है, वहीं मालदीव जैसा देश जो कि कमोवेश भारत पर निर्भर है, भी इस विषय पर भारत की निंदा करने में पीछे नहीं रहा है। ऐसा इसलिए हो पाया क्योंकि भारत में पिछले कई दशकों से अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों और ईसाईयों के खिलाफ लगातार वातावरण बनाया जा रहा है। 

भारतीय मीडिया में भी इस घटना को पूरी तरह से व निष्पक्षता से प्रस्तुत नहीं किया गया। अधिकांशतः, खासकर हिन्दी मीडिया में इस खबर का एकतरह से ब्लैकआउट ही किया गया। यदि बात सामने आई भी तो उसका पक्ष कुछ और था। गौरतलब है यदि अलकायदा की धमकी प्रथम पृष्ठ का समाचार बन सकती है तो मुख्य घटना जिसकी वजह से अलकायदा ने इतनी घृणित धमकी दी है, प्रथम पृष्ठ की खबर क्यों नहीं बनी? पिछले ही महीने अमेरिकी सरकार की एक रिपोर्ट में भारत में धार्मिक भेदभाव को लेकर गंभीर टिप्पणी की गई थी। भारत ने इसका कठोरता और कटुता से जवाब दिया था। तो अब एकाएक ऐसा क्या हो गया कि भारत सरकार, जिस दल से वह आती है, के प्रवक्ताओं को इस बयान के लिए ‘‘शरारती तत्व (फ्रिंज एलीमेंट्स) कहने को मजबूर है? इस दौरान एक और खबर भी सुर्खियों में है कि कतर की एक सरकारी एजेंसी एक भारतीय अरबपति के कारोबार में बहुत बड़ा निवेश करने जा रही है। तो सवाल उठाया गया है कि क्या इसलिये ............? खैर !

करीब पंद्रह देशों ने भारत से उक्त टिप्पणियों के सबंध में माफी मांगने को कहा है। यह बेहद संवेदनशील मसला है। परंतु यह तो तय है कि यह आजादी के बाद से भारत की सबसे बड़ी कूटनीतिक चूक और पराजय है और प्रधानमंत्री व भाजपानीत केंद्र सरकार को यह स्वीकारना चाहिए | तभी कुछ रास्ता निकल पाएगा। खाड़ी के देशों में भारतीय प्रधानमंत्री का अपमान हो रहा है। उपराष्ट्रपति के सम्मान में होने वाला भोज निरस्त हो रहा है व तमाम भारतीयों को नौकरी से निकाले जाने के अपुष्ट समाचार हैं। यह भी सामने आ रहा है कि अनेक बड़े शोरूम व मॉल्स भारतीय सामानों को अपने यहां से हटा रहे हैं। खबर है कि भारत को अमेरिका के मुकाबले ज्यादा कीमत पर तेल बेचा जा रहा है। सूत्र कह रहे हैं कि कुछ देश भारत को तेल की आपूर्ति पर पुनर्विचार भी कर रहे हैं।

वास्तविकता तो यह है कि पिछले 10-12 दिनों में जो कुछ भी घटा वह एकाएक नहीं हो गया। पिछले कुछ वर्षों से भारत में अल्पसंख्यकों के साथ हो रहे व्यवहार को लेकर पूरी दुनिया में चिंता व्याप्त थी। भाषाई उग्रता लगातार बेलगाम होती जा रही थी। वह अश्लील, अभद्र और धमकी भरी होती जा रही थी। पैगंबर साहब पर सीधी व गैरजरुरी टिप्पणी को लेकर भी सरकार उदासीन बनी रही। करीब 2 हफ्ते बाद अब प्रवक्ताओं के खिलाफ दिल्ली पुलिस ने आपराधिक मामले दर्ज किए है | इसी के और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के हाहाकारी प्रसारण के चलते कानपुर में स्थिति बिगड़ी। एडिटर्स गिल्ड आफ इंडिया ने इस पर काफी तीखी फटकार भी लगाई है। 

प्रधानमंत्री का यह नारा कि देश को झुकने नहीं दूंगा कहीं न कहीं प्रभावित अवश्य हुआ है। विदेशी प्रतिक्रिया के बाद ही थोड़ा बहुत हो पाया है। यह विचित्र बात है कि भारत सरकार स्वयं इस तरह के अशालीन, गैरकानूनी व धार्मिक भावना भड़काने वालों को अलग-अलग श्रेणियों में बांट रहीं है। पूर्व में कुछ को तो महज असहज टिप्पणियों के लिए ही गंभीर धाराओं में जेल भेज दिया गया है। आवश्यकता तो इस बात की है कि देश की आंतरिक सांप्रदायिक कटुता को खत्म किया जाए। 

राहुल गांधी पुनः एकबार सही साबित हुए हैं | ऐसे में मुख्य विपक्षी दल और महात्मा गांधी के वारिस होने के नाते भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। उनका अति सक्रिय होना आज की अनिवार्यता है। सरकार की धीमी और ढीली प्रतिक्रिया का उत्तर बेहद तत्परता और ऊर्जा से देना आवश्यक है। राजनीति में अब सही को सही और गलत को गलत, स्पष्ट रूप से कहने का समय आ गया है। संघ और भाजपा अपनी इस चूक से कोई नया मार्ग जरुर निकालने की कोशिश करेंगे। 

यह तो भविष्य ही बता पाएगा कि भारतीय समाज में शालीनता का युग क्या पुनः लौटेगा? सर्वधर्म समभाव को लेकर महात्मा गांधी ने लिखा है, ‘‘प्रतिपक्षी को यदि हम झूठा मानते हैं तो उसके असत्य का सत्य से, अविवेक का विवेक से, अहंकार का नम्रता से और बुराई का भलाई से सामना करें। मेरा अनुयायी निंदा करने की नहीं बल्कि ह्दय परिवर्तन की पूरी कोशिश करेगा।’’ क्या हम सब भारत की सभ्यता, संस्कृति, विविधता, सहिष्णुता और भाईचारे को बचाए रखने के लिए वर्तमान विघटनकारी शक्तियों के खिलाफ एकजुट होने की कोशिश करेंगे ?

(ये लेखक के स्वतंत्र विचार हैं)