जी भाईसाहब जी: बीजेपी चकित आखिर कांग्रेस की पिच पर कैसे करे बैटिंग
MP Congress Manifesto: कांग्रेस के 144 और बीजेपी के 136 प्रत्याशियों की घोषणा के साथ ही मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव 2023 के मुकाबले की आधी तस्वीर तो साफ हो चुकी है। मुद्दे भी लगभग तय हो चुके हैं मगर इस बार मुद्दों को लेकर कांग्रेस ने ऐसी जमावट की है कि बीजेपी को चकित है कि वह आखिर कांग्रेस की पिच पर किस तरह बैटिंग करे?

अपनी योजना, रणनीति और जमावट के जरिए मध्य प्रदेश की राजनीति को एकतरफा करने का खेल खेलने वाली बीजेपी इनदिनों अलग तरह के राजनीतिक संकट में है। माना जाता था कि बीजेपी हमेशा कांग्रेस को अपने तय मुद्दों की पिच पर कांग्रेस को खेलने के लिए मजबूर करती है और उसके आक्रामक रवैए के कारण कांग्रेस हमेशा पिछड़ जाती है। बीजेपी ने साफ्ट हिंदुत्व के नाम पर कांग्रेस को ऐसे ही घेरा था। लेकिन इस बार तस्वीर उलट दिखाई दे रही है।
मध्य प्रदेश में ओबीसी के राजनीतिक समीकरण से शासन में बनी हुई बीजेपी का कोर इश्यू हिंदुत्व है। कांग्रेस इस मामले पर हमेशा बैकफुट पर रही है लेकिन जातीय जनगणना को लेकर कांग्रेस के दांव के आगे बीजेपी निरूत्तरित है।
राहुल गांधी ने जातीय जनगणना का मुद्दा हाथ में लिया तो मंडला आई कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने ऐलान किया कहा कि एमपी में सरकार बनी तो पढ़ो और पढ़ाओ योजना में कक्षा एक से आठ तक बच्चों को पांच सौ, नौवीं से दसवीं तक एक हजार रुपए दिए जाएंगे। 11वीं से 12वीं तक हर महीने पंद्रह सौ रुपए मिलेंगे। महिला मतदाताओं के लिहाज से लाड़ली बहना योजना को गेमचेंजर मान रही बीजेपी खासकर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को प्रियंका गांधी की योजना का तोड़ नहीं सूझा। उन्होंने धन की व्यवस्था से लेकर वादा पूरा न करने जैसे आरोप लगाए जरूर लेकिन जुबानी जमा खर्च के अलावा बीजेपी इस योजना का कोई वाजिब तोड़ खोज नहीं पाई है।
इसके आगे, घोषणा पत्र जारी करते हुए कांग्रेस ने बीजेपी की योजनाओं के जवाब में बेरोजगारी से निपटने के लिए युवा स्वाभिमान योजना, राजस्थान की तर्ज पर स्वास्थ्य का अधिकार कानून लागू करते हुए वरदान स्वास्थ्य बीमा योजना लागू करने का वादा किया है। कर्मचारियों के लिए पुरानी पेंशन और पदोन्नति बड़ा सवाल है जिसका बीजेपी सरकार में समाधान नहीं हुआ है। कांग्रेस ने दोनों की ही गारंटी दी है। जवाब में बीजेपी ने कई तरह की बातें करेगी लेकिन जाहिर है, 18 सालों के शासन और चुनाव के पहले सैकड़ों घोषणाओं के बाद भी ऐसे कई मुद्दे हैं जिनका जवाब बीजेपी के पास नहीं है। और कांग्रेस ने इन मुद्दों की पिच पर इस पेस और लाइन-लैंथ में गेंदबाजी कर दी है कि बीजेपी उलझती दिखाई दे रही है।
आखिर शिवराज की सीएम फेस बनाने में क्या मुश्किल?
बीजेपी को अपने सबसे लोकप्रिय और सर्वाधिक लंबे समय तक मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के चेहरे से परेशानी क्या है? बीजेपी शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री चेहरा घोषित क्यों नहीं कर देती है? पीसीसी चीफ कमलनाथ ने जब यह सवाल पूछा तो राजनीतिक गलियारों में उस मुश्किल और मजबूरी का जिक्र हो गया जिसके कारण बीजेपी न तो शिवराज सिंह चौहान को सीएम का चेहरा बना रही है और न ही उनकी आभा से चुनाव प्रक्रिया को पूरी तरह से मुक्त कर पा रही है।
आपको याद होगा करीब चार माह पहले कांग्रेस में सीएम के चेहरे पर खींचतान का आरोप लगाते हुए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने तंज कसा था। सीएम चौहान ने कहा नेता कौन है, मुझे समझ नहीं आता। कोई कहते हैं भावी, फिर वही कहलवाते हैं अवश्यंभावी। उन्हीं की पार्टी के एक नेता कह देते हैं कि वे तो फेस ही नहीं हैं।
किसे पता था कि उस वक्त बीजेपी की राजनीति जिन शिवराज सिंह चौहान के इर्दगिर्द घूम रही थी उन्हीं सीएम चौहान मुश्किल बन जाएंगे और बीजेपी उनसे पल्ला छुड़ाने के जतन करेगी? याद कीजिए, 21 अगस्त को केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने शिवराज सरकार का ‘रिपोर्ट कार्ड’ जारी करते हुए कहा था कि शिवराज जी अभी मुख्यमंत्री हैं ही। चुनाव के बाद मुख्यमंत्री कौन होगा, ये पार्टी का काम है और पार्टी ही तय करेगी।
इससे संकेत मिलने लगे थे कि बीजेपी अब शिवराज सिंह चौहान से मुक्ति चाहती हैं और उनका विकल्प खोज रही है। फिर पीएम नरेंद्र मोदी 25 सितंबर कार्यकर्ता महाकुंभ में आए तो 40 मिनट के भाषण में उन्होंने न शिवराज सिंह चौहान का जिक्र किया और न ही शिव सरकार की योजना की तारीफ ही की। चर्चाओं को तब बल मिला जब बीजेपी ने कैलाश विजयवर्गीय, केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, प्रहलाद पटेल, फग्गनसिंह कुलस्ते जैसे सीएम दावेदार नेताओं को मैदान में उतार दिया। कुछ समय के लिए मुख्यमंत्री चौहान की बॉडी लेंग्वेज बदल गई थी लेकिन फिर उन्होंने दिशा बदल दी। वे जनता के बीच पहुंच गए और अपने दिल की बात रखते हुए पूरे तीन बार सीएम शिवराज सिंह चौहान भावुक हुए। वेजनता से ही पूछ रहे थे कि उन्हें सीएम बनना चाहिए या नहीं और कभी पूछ रहे थे उन्हें चुनाव लड़ना चाहिए या नहीं?
जनता से इस तरह भावुक संवाद के बाद शिवराज सिंह चौहान ‘पीडि़त’ की तरह देखे जाने लगे और पासा पलट गया। वे फिर ताकत में आ गए। इस तरह जिस बीजेपी को वे मुश्किल लग रहे थे उसकी के लिए वे मजबूरी बन गए। शह-मात की इस अंदरूनी राजनीति में इसके बाद भी यह प्रश्न बकाया है कि आखिर शिवराज सिंह चौहान को बीजेपी मुख्यमंत्री का चेहरा क्यों नहीं बना रही है? ऐसी भी क्या मजबूरी है?
दोनों दलों के असंतुष्टों को बीएसपी, बीएसपी को बीजेपी का सहारा
दो ताकतवरों की लड़ाई का फायदा तीसरा ही उठा जाता है। मध्य प्रदेश की राजनीति में यह कहावत एकदम सही साबित होती दिख रही है। पिछली विधानसभा में दो सदस्यों वाली (एक सदस्य बाद में बीजेपी चले गए थे) बीएसपी को कांग्रेस और बीजेपी की अंदरूनी लड़ाई का लाभ मिल गया है। टिकट न मिलने से कांग्रेस और बीजेपी के नाराज नेताओं के लिए बीएसपी बड़ा सहारा बन गई है।
मिशन 2023 के लिए बीजेपी ने 136 तथा कांग्रेस ने 144 उम्मीदवारों की घोषणा कर है। टिकट न मिलने से नाराज इन पार्टियों के नेता अब बीएसपी, सपा, आम आदमी पार्टी, निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ने की संभावना टटोल रहे हैं। पाला बदल रहे नेताओं के लिए बहुजन समाज पार्टी पसंदीदा पार्टी बन गई है। बीएसपी ने हाथों हाथ लेते हुए इन नेताओं को टिकट भी दे दिए हैं। जैसे, सागर जिले की बंडा सीट से बीजेपी प्रदेश कार्यसमिति सदस्य रंजोर सिंह बुंदेला प्रत्याशी बनाए गए हैं। वे मंडी अध्यक्ष रहे हैं और वर्तमान में नगर परिषद के उपाध्यक्ष हैं। बीएसपी ने छतरपुर से कांग्रेसी नेता रहे डीलमणी सिंह को और राजनगर विधानसभा से बीजेपी के नेता रहे घासीराम पटेल को उम्मीदवार बनाया है। बीएसपी की पांचवी लिस्ट में भी ऐसे ही दो पूर्व विधायकों के नाम शामिल हैं। बीएसपी की ओर से जारी की गई पांचवी सूची में भिंड की लहार से बीजेपी के पूर्व विधायक को उसी सीट से प्रत्याशी बनाया गया है। वहीं सतना की नागौद सीट से कांग्रेस के पूर्व विधायक यादवेंद्र सिंह को भी उसी सीट से उम्मीदवार घोषित किया है।
बीएसपी ने राज्य में अपनी ताकत बढ़ाने के लिए गोंडवाना गणतंत्र पार्टी से समझौता किया है। राजनीतिक आकलन है कि इस गठबंधन के लिए बीएसपी का सहारा बीजेपी बनी है। यह गठबंधन आदिवासी क्षेत्रों में असर दिखा सकता है। यानी, आदिवासी क्षेत्रों में बीजेपी सरकार से नाराज मतदाताओं के सामने कांग्रेस को वोट देने के अलावा बीएसपी-जीजीपी को चुनने का अधिकार होगा। यानी बीएसपी वास्तव में कांग्रेस के लिए वोट काटने वाली साबित होगी।
हार का डर और अतीत का जख्म लिए मिले राकेश सिंह और प्रहलाद पटेल
विधानसभा चुनाव में जबलपुर पश्चिम सीट पर दो बार के विधायक और कमलनाथ सरकार में वित्त मंत्री रहे तरुण भनोट के खिलाफ बीजेपी ने जबलपुर के सांसद राकेश सिंह को मैदान में उतारा है। यह मुकाबला प्रदेश के सबसे रोचक मुकाबलों में से एक है। एमपी बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष रहे राकेश सिंह को कांग्रेस नेता तरुण भनोट से चुनौती मिल रही है। राकेश सिंह को अपनी ही पार्टी के नेताओं का समर्थन व साथ नहीं मिलने का डर है। ऐसा ही डर उन तस्वीरों में भी दिखाई दिया जो सोशल मीडिया पर वायरल हुई।
केंद्रीय मंत्री तथा नरसिंहपुर सीट से बीजेपी उम्मीदवार प्रहलाद पटेल ने सोशल मीडया साइट एक्स पर तस्वीर पोस्ट करते हुए लिखा था कि मेरे निवास जबलपुर में बीजेपी उम्मीदवार सांसद राकेश सिंह मेरी नाम पट्टिका देखकर अचानक पधारें। मैंने उन्हें चाय पिलाई और शुभकामनाएं दी।
इस पोस्ट में यूं तो सब अच्छा था लेकिन प्रहलाद पटेल के शब्दों में अतीत की पीड़ा दिखाई दी। असल में प्रहलाद पटेल और राकेश सिंह दोनों ने जबलपुर के साइंस कॉलेज से राजनीति की शुरुआत की थी। उस वक्त वे मित्र थे। फिर 2004 के बाद दोनों में दूरियां बढ़ गईं। 2004 में प्रहलाद पटेल को जबलपुर लोकसभा क्षेत्र से बीजेपी का प्रत्याशी बनाया जाने वाला था लेकिन उन्हें कमलनाथ के मुकाबले के लिए छिंदवाड़ा भेज दिया गया और उस वक्त के जिला पंचायत अध्यक्ष राकेश सिंह ने जबलपुर से चुनाव लड़ा। बाद में प्रहलाद पटेल का नाम कई बार प्रदेश अध्यक्ष बनने के लिए दौड़ में रहा लेकिन अध्यक्ष बने राकेश सिंह। राजनीतिक वर्चस्व की इस लड़ाई में प्रहलाद पटेल हमेशा पीछे ही रहे।
अब जब उन्होंने यह लिखा कि नाम पटिका पढ़ कर राकेश सिंह उनसे मिलने आए तो साफ हुआ कि राकेश सिंह उनसे इरादे से मिलने नहीं आए थे बल्कि नाम देख कर रूक गए। पोस्ट किए गए फोटो को देख दोनों के बीच की दूरियों का अंदाजा लगाना आसान था। इस तरह प्रहलाद पटेल की पीड़ा को अनुभव किया गया जो उन्हें 19 साल पहले मिली थी। यह कटुता उस वक्त भी दिखाई दी जब विदा लेते हुए दोनों नेताओं ने एक दूसरे के हाथ जोड़े। यह अंदाजा लगाना सही है कि चुनाव में साथ के लिए राकेश सिंह अपने प्रतिद्वंद्वी माने जाने वाले प्रहलाद पटेल के घर गए जरूर लेकिन रिश्तों में मिठास जरा भी नहीं है।