नवधा भक्ति में हमारी तृष्णा का समाधान

भौतिक सुखों की लिप्सा और धन की तृष्णा ने मनुष्य को धर्म से विमुख किया, सुख और शांति का कारक निष्काम भाव से किया गया धर्म कर्म

Publish: Jul 14, 2020, 09:42 PM IST

वर्तमान समय में हम लोग ये अनुभव कर रहे हैं कि समाज में नैतिक मूल्यों का ह्रास लगातार हो रहा है इसको दूर करने का एकमात्र उपाय है- धर्म।

धर्मो विश्वस्य जगत: प्रतिष्ठा

इस वचन के अनुसार धर्म ही जगत् का आधार है। धर्म से रक्षित होकर ही मानव समाज सुनियंत्रित और सुव्यवस्थित होता है। धर्म व्यक्ति और समाज में समन्यव स्थापित करके व्यष्टि और समष्टि का समान रूप से हित साधन करता है।

हमारे शास्त्रों में धर्म के कुछ ऐसे नियम बताए गए हैं जो समस्त मानव समाज के द्वारा अनुष्ठित होकर उसका श्रेय-साधन कर सकते हैं। धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, ज्ञान, विज्ञान, सत्य और अक्रोध मनुस्मृति के अनुसार ये मानव धर्म है। श्रीमद्भागवत में समस्त मनुष्यों के लिए धर्म के तीस लक्षणों का वर्णन है। नवधा भक्ति भी इन तीस साधनों के अन्तर्गत ही है। अध्यात्म रामायण में कुछ अन्तर से भगवान श्रीराम ने शबरी माता को नवधा भक्ति का उपदेश दिया है। तदनुसार प्रथम सत्संग, द्वितीय भगवत् कथा का कीर्तन, तृतीय भगवद् गुण की चर्चा करना,चतुर्थ भगवान के उपदेशों की व्याख्या, पंचम अपने गुरु देव की भगवद् बुद्धि से निष्कपट सेवा, षष्ठ पवित्र स्वभाव, यमनियमादि का पालन, भगवान की पूजा में प्रेम, सप्तम मंत्र जप, अष्टम भगवद् भक्तों को भगवान से अधिक समझना, समस्त प्राणियों को भगवान का ही रूप समझना, बाह्य पदार्थों में वैराग्य, शमदमादि सम्पन्न होना तथा नवम तत्‍व विचार करना नवधा भक्ति है, जो प्रेमलक्षणा भक्ति का साधन है।

इन सभी धर्मों के पालन में सभी मानवों का समान रूप से अधिकार है। इनमें किसी प्रकार का भेद भाव नहीं है। आजकल भौतिक सुखों की लिप्सा और धन की तृष्णा ने मनुष्य को धर्म से विमुख कर दिया है, फलत: वह सदा अशांत और व्यग्र रहता है। संसार की ठोकर खाकर यदि वह धर्म या साधु महात्माओं के निकट आता भी है तो उसी तृष्णा को लेकर आता है। इसमें संदेह नहीं कि धर्म कल्पवृक्ष के समान है। कल्पवृक्ष के नीचे जो भी कल्पना की जाती है,वह पूर्ण होती है। सच्चे साधू-महात्मा भी अपने त्याग-तप से जीवों के दुखों को दूर करने में सहायक बनते हैं। फिर भी नश्वर और दुःख मय संसार के स्वरुप का परिवर्तन कौन कर सकता है? वस्तुत: सुख शांति का हेतु तो निष्काम भाव से किया गया धर्म कर्म के आचरण से शुद्ध किया हुआ मन ही हो सकता है।