संत सच्चे सुख का मार्ग बताते हैं, चमत्कार नहीं दिखलाते

भक्ति मार्ग के पथप्रदर्शक संत हुआ करते हैं, जो संसार के भोगों के प्रति जीवों की आसक्ति का अंत कर उनको मोड़ कर भगवान की ओर लगाते हैं

Updated: Aug 25, 2020, 01:16 PM IST

शास्त्रों में तीन प्रकार के मनुष्य माने गए हैं- विषयी साधक सिद्ध सयाने। त्रिविध जीव जग वेद बखाने।। (रामचरितमानस)। विषयी,साधक और सिद्ध तीन प्रकार के जीव माने जाते हैं।विषयी वह है,जो शास्त्रों के अनुसार संसार के विषयों का सेवन करता हुआ अधर्म से बचता हुआ ऐसे कर्म करता है, जिससे परलोक में भी सुख मिले, वह विषयी है।और जो इहलोक और परलोक दोनों से विरक्त होकर देह को ही दुःख का कारण समझता हुआ और जन्म, मृत्यु,जरा,व्याधि के दु:ख दोषों पर विचार करे वह साधक है।जैसा कि गीता में कहा गया है- जन्म मृत्यु जरा व्याधि दुःख दोषानुदर्शनम्। 

वह सोचता है कि हमारी मृत्यु क्यों होती है? क्यूंकि हमने जन्म लिया। यह एकबार नहीं होता। मरण के पश्चात् फिर जन्म होता है। और फिर जन्म-मृत्यु,जरा-व्याधि आती है और यह निरन्तर चलता रहता है। इसीलिए साधक शास्त्रानुसार मोक्ष के साधन में निरत रहता है। इसके पश्चात् तीसरा जीवन मुक्त है, उसे सिद्ध कहते हैं। उसके लिए शास्त्र नहीं है। उसके शरीर,इन्द्रिय,मन, बुद्धि से जो कर्म होते हैं,वह स्वभाव बन जाते हैं।

साधना के समय कर्म प्रयत्न साध्य होते हैं और ब्रह्म साक्षात्कार के पश्चात् कर्म स्वभाव बन जाते हैं, जिससे स्वाभाविक रूप से लोक कल्याण होता रहता है। उन्हें यह अभिमान नहीं होता कि हम लोक कल्याण कर रहे हैं। चौथा एक पामर भी होता है जिसको गोस्वामी तुलसीदास जी ने जड़ कहा है। उसकी चेष्टाएं पशु के समान होती हैं। पशु को उचित-अनुचित, पाप-पुण्य का ज्ञान नहीं होता, वैसे ही पामरों की दशा होती है। इसलिए आवश्यक है कि दुर्लभ मानव शरीर में आकर पामरता का त्याग करके शास्त्रों के अनुसार अपने मन  को शुद्ध करके परमेश्वर की प्राप्ति के लिए जीवन में प्रयत्न करना चाहिए।

भक्ति मार्ग के पथप्रदर्शक संत हुआ करते हैं, जो जीवों को संसार के भोगों के प्रति जो उनकी आसक्ति है, उससे उनको मोड़ कर भगवान की ओर लगाते हैं। सांसारिक इच्छाओं का कभी भी अंत नहीं हो सकता। सांसारिक इच्छाएं वो हैं,जो अर्थ और काम की तृष्णा से उत्पन्न होती हैं, उनसे बचना चाहिए।

यह देखा जाता है कि यदि तीन इच्छाओं की पूर्ति होती है तो चार नई इच्छाएं खड़ी हो जाती हैं और उनकी पूर्ति करो तो सौ इच्छाएं खड़ी हो जाती हैं।तृष्णाओं का अंत नहीं है। अर्थ और काम की तृष्णा से प्रेरित होकर मनुष्य अशांत ही होता है। शांति उसे ही मिलती है जो कामनाओं से रहित है। गीता में लिखा है-

विहाय कामान्य: सर्वान् पुमांश्चरति नि:स्पृह:।

निर्ममो निरहंकार: स शान्ति मधिगच्छति।।

संत सच्चे सुख का मार्ग बताते हैं। चमत्कार दिखाकर सांसारिक तृष्णा की वृद्धि में सहायक नहीं होते हैं, हमें वास्तविक संतों का संग करना चाहिए, जो बहिर्मुख बनाते हैं उनसे बचना चाहिए।