जो इन्द्रियों से ग्रहण करते हैं वह भी आहार

आहार शुद्धि से ही मन, प्राण और वाणी की शुद्धि होती है और इनकी शुद्धि के बिना आध्यात्मिक विकास नहीं संभव

Updated: Aug 20, 2020, 12:28 PM IST

आज एक श्रेष्ठ साधक ने जिज्ञासा की है कि हमारा आहार कैसा होना चाहिए?

उत्तर- सनातन धर्म में आध्यात्मिक उन्नति के कर्म, उपासना और ज्ञान ये तीन उपाय बतलाए गए हैं। सबमें आहार-शुद्धि का ध्यान रखा जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता में आहार के सम्बंध में कहा गया है कि - 

आयु: सत्वबलारोग्य- सुखप्रीतिविवर्धना:।

रस्या: स्निग्धा: स्थिरा हृद्या आहारा: सात्त्विकप्रियाः।।

आयु, बुद्धि,बल,आरोग्य सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले, रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय, ऐसे आहार (भोजन-पदार्थ) सात्त्विक पुरुष को प्रिय होते हैं। अर्थात् इन पदार्थों के भक्षण से सत्व गुण की वृद्धि होती है।

 कट्वम्ललवणात्युष्ण तीक्ष्णरूक्षविदाहिन:।

 आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदा:।।

अत्यधिक कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त गरम, तीखे, रुखे, दाहकारक तथा दुःख-शोक और रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार राजस पुरुष को प्रिय लगते हैं अर्थात् इन पदार्थों के भक्षण से रजोगुण की वृद्धि होती है।

यातयामं गतरसं पूति पर्युषितञ्च यत्।

 उच्छिष्टमपि चामेध्यं, भोजनं तामसप्रियम्।।

अधपका, रसरहित, दुर्गंधयुक्त, बासी, उच्छिष्ट तथा अपवित्र (मांसादि) भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है अर्थात् इन पदार्थों के भक्षण से तमोगुण की वृद्धि होती है।

इन तीनों में राजस और तामस की अपेक्षा सात्त्विक को श्रेष्ठ बताया गया है। शुद्ध अन्न वही माना जाता है जो तमोगुणी और रजोगुणी न हो, शास्त्र निषिद्ध न हो। उदाहरणार्थ-

लशुनं गृञ्जनं चैव पलाण्डुं कवकानि च।

अभक्ष्याणिद्विजातीना- ममेध्यप्रभवाणि च।।

अर्थात् लहसुन, गाजर, प्याज, छत्राक (मशरूम) और अशुद्ध स्थान में उत्पन्न हुए अन्न-शाकादि का भक्षण नहीं करना चाहिए तथा मांस भक्षण तो सर्वथा त्याज्य है। क्योंकि-

 नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित्।

 न च प्राणिवध: स्वर्ग्य-स्तस्मान्मांसंविवर्जयेत्।।

अर्थात् प्राणियों की हिंसा किए बिना कभी भी मांस उत्पन्न हो नहीं सकता और प्राणीवध स्वर्गप्रद नहीं है, अतः मांस को त्याग देना चाहिए।

यह तो हुई उस आहार की चर्चा जो मुख से लिया जाता है, वस्तुत: "आह्रियन्ते इति आहारा: विषया:" इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिनका इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण होता है वे सब आहार हैं।

अतः शब्द,स्पर्श,रूप,रस और गंध को भी आहार कहा जाता है। शब्द भी दो प्रकार के होते हैं- शुद्ध और अशुद्ध।उसी प्रकार स्पर्श,रूप रस,गंध ये भी दो-दो प्रकार के होते हैं। इनका भी हमारे मन पर प्रभाव पड़ता है। जो कुछ हम कान से भला या बुरा सुनते हैं वह हमारे मन में सदा के लिए अंकित हो जाता है। इसलिए अशुद्ध शब्दों को नहीं सुनना चाहिए।

एक दर्शन शास्त्र के आचार्य थे, वे सिर नीचा कर चिन्तन करते हुए प्रतिदिन पढ़ाने जाते थे और वैसे ही लौट आते थे। एकदिन तीव्र ज्वर के कारण वे बेहोश हो गए, उनके मुख से गंदी गालियां निकलने लगी। उनके मित्रों को इससे आश्चर्य हुआ।जब वे स्वस्थ हो गये तो उनके मित्रों ने उनको कहा कि आप बेहोशी में गालियां बोल रहे थे। आचार्य को भी आश्चर्य हुआ। वे उसका कारण ढूंढ़ने लगे।

एक दिन महाविद्यालय जाते समय दो स्त्रियों की गालियां उन्हें सुनाई दी थी, गाली के शब्द वे ही थे जो आचार्य जी बेहोशी में बोल रहे थे। उनके समझ में आ गया कि इन्हीं शब्दों के संस्कार पड़ गये थे।जब अनजाने में भी अनुचित शब्दों का मन पर प्रभाव पड़ता है, तब जो जानबूझकर सुना जाता है तो उसका प्रभाव तो पड़ेगा ही। इसलिए वैदिक मंगलाचरण है कि - भद्रं कर्णेभि: श्रृणुयाम।

हम अपने कानों से भद्र (कल्याण प्रद) सुने यही कारण है कि भगवत्कथा के श्रवण से अन्त:करण शुद्ध होता है और ग्राम्य कथा के श्रवण से अशुद्ध। अभिप्राय ये है कि जो हम इन्द्रियों से ग्रहण करते हैं वह भी आहार होता है। अतः आहार शुद्धि से ही मन, प्राण और वाणी की शुद्धि होती है और इनकी शुद्धि के बिना आध्यात्मिक विकास संभव नहीं है।