उमा राम सुभाव जिन जाना ताहि भजन तजि भाव न आना

प्रेम के पीछे आनंद चलता है। जहां प्रेम का उदय हुआ वहीं आनंद होता है और जहां आनंद होता है वहीं प्रेम होता है

Updated: Oct 29, 2020, 04:53 AM IST

Photo courtesy: the pioneer
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सृष्टि के प्रारम्भ में वेद भगवान की स्तुति करते हैं भगवान् को योगनिद्रा से जगाते हैं। श्रीमद्भागवत की वेदस्तुति में भगवान् के अवतार का प्रयोजन बताया गया है कि दुरधिगमात्मतत्वनिगमाय
दुरधिगम जो आत्म तत्व है उसके निगम अर्थात् बोध के लिए आप श्री विग्रह धारण करते हैं। ‌उस विग्रह धारण करने के साथ-साथ जो आपकी लीलाएं होती हैं, उनकी चर्चा भक्त लोग करते हैं। संसार ताप से तप्त प्राणी जब सत्संग में जाता है और वहां महापुरुषों से आपके लीलामृत का पान करता है। लीलामृत सिंधु में अवगाहन करता है तो उसका ताप दूर होता है। क्यूंकि महापुरुषों के पास जो है वो प्रदान करते हैं। सांसारिक लोगों के पास जाएं तो उनके पास जो है वो प्रदान करते हैं। सांसारिक लोगों की चर्चा का विषय लोगों का जन्म और कर्म होता है। किसने कहां जन्म लिया और किसने अच्छे या बुरे कर्म किए। चाहे कोई भी समाज हो लोग तब-तक चुप रहते हैं जब-तक कोई चर्चा नहीं छिड़ती और चर्चा में यदि किसी की निंदा की चर्चा छिड़ जाय तो वही विषय बन जाता है।

लेकिन इससे मनुष्य के हृदय में राग-द्वेष की वृद्धि होती है। जब भगवान के भक्त एकत्रित होते हैं तो वहां भी जन्म कर्म की ही चर्चा होती है पर वो सामान्य मनुष्यों के जन्म कर्म की न होकर भगवान के दिव्य जन्म कर्म की चर्चा होती है। गीता में भगवान कहते हैं कि-
जन्म कर्म च मे दिव्यं
एवं यो वेत्ति तत्वत:।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म,
नेति मामेति सोSर्जुन।

तो भगवच्चरितामृत के अवगाहन से मनुष्य के हृदय में भक्ति का उदय होता है। भक्ति क्या है?? तो इसका उत्तर है कि- भजनम् भक्ति:
भजन ही भक्ति है। वर्तमान समय में भक्ति की परिभाषा बदल गई है। गायन की प्रधानता जहां हो उसी को भजन मान लेते हैं। कुछ तो नशे का साधन भी मान लेते हैं। लेकिन भजन वो है जिससे भगवान के प्रति प्रेम का उदय हो। तो भगवान को वेद वेद्य परब्रह्म परमात्मा मानकर जीवों का ध्येय ज्ञेय परमाराध्य मानकर उनके जन्म कर्म की चर्चा जो लोग करते हैं, और उन चरित्रों में जो उन्होंने भक्तों पर अनुग्रह किया है, उसकी चर्चा सुनकर उनके प्रति प्रेम का उदय होता है। 
उमा राम सुभाव जिन जाना
ताहि भजन तजि भाव न आना।।
प्रेम के पीछे आनंद चलता है। जहां प्रेम का उदय हुआ वहीं आनंद होता है और जहां आनंद होता है वहीं प्रेम होता है। नारद भक्ति सूत्र में प्रेम की परिभाषा मिलती है।
सा तस्मिन् परमप्रेमरूपा अमृत स्वरूपा च।
उस परब्रह्म परमात्मा में परम प्रेम का नाम भक्ति है। परमप्रेम का अर्थ ये है कि जिसके लिए हम सब कुछ छोड़ दें और जिसको किसी के लिए न छोड़ सकें उसी को परम प्रेम माना जाता है। जो कभी न टूटे उसको प्रेम कहते हैं। "प्रतिक्षणं वर्धमानं"
इस प्रकार के नि:स्वार्थ प्रेम को ही भक्ति कहते हैं।
प्रेम करना मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। जो प्रेम "मैं" और "मेरा" में है उसी की दिशा को यदि परिवर्तित करके भगवान की ओर मोड़ दिया जाय तो उसी को भक्ति कहते हैं। भक्ति की पराकाष्ठा ही तत्व बोध है। इस प्रकार शास्त्रानुमोदित मार्ग का अनुशरण करते हुए हम अपने चरम लक्ष्य की प्राप्ति कर जीवन को सफल बना सकते हैं।