बेघर होने जा रहें लाखों आदिवासियों पर इतनी खामोशी क्यों? - अब्दुल रशीद

बेघर होने जा रहें लाखों आदिवासियों पर इतनी खामोशी क्यों? अब्दुल रशीद सुप्रीम कोर्ट ने जंगलों से आदिवासियों को निकालने का आदेश दिया है। इस आदेश के बाद देश के 17 राज्यों के जंगलों से करीब 23 लाख आदिवासी परिवार बेघर हो जाएंगे। वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) के तहत जंगल में ज़मीन के पट्टों पर इन […]

Publish: Feb 28, 2019, 10:29 PM IST

बेघर होने जा रहें लाखों आदिवासियों पर इतनी खामोशी क्यों? – अब्दुल रशीद
बेघर होने जा रहें लाखों आदिवासियों पर इतनी खामोशी क्यों? – अब्दुल रशीद
h1 style= text-align: center बेघर होने जा रहें लाखों आदिवासियों पर इतनी खामोशी क्यों? /h1 ul li style= text-align: justify strong अब्दुल रशीद /strong /li /ul p style= text-align: justify सुप्रीम कोर्ट ने जंगलों से आदिवासियों को निकालने का आदेश दिया है। इस आदेश के बाद देश के 17 राज्यों के जंगलों से करीब 23 लाख आदिवासी परिवार बेघर हो जाएंगे। वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) के तहत जंगल में ज़मीन के पट्टों पर इन लोगों का दावा खारिज हो गया है। /p p style= text-align: justify वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) को कई NGO और रिटायर्ड वन अधिकारियों ने कोर्ट में चुनौती दी हुई है। वाइल्ड लाइफ फर्स्ट और अन्य बनाम पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के मामले में कोर्ट ने 19 फरवरी को एक आदेश दिया है। जिसमें 17 राज्यों के चीफ सेक्रेटरी से कहा गया है कि वो खारिज दावों वाले लोगों को 12 जुलाई 2019 से पहले जंगलों से तकरीबन 11 लाख परिवारों को बाहर करें।जो दावे पेंडिंग हैं उन्हें भी इस तारीख तक निपटाना है। इस दिन मामले की फिर से सुनवाई होगी। /p p style= text-align: justify जंगलों से आदिवासियों को निकालने का आदेश देने वाला सुप्रीम कोर्ट ने 2011 के एक फैसले में आदिवासी समुदायों के उत्पीड़न पर फटकार लगा चुका है और जंगलों पर उनका जायज हक भी मान चुका है। /p p style= text-align: justify बहरहाल सुप्रीम कोर्ट के नए आदेश के बाद लाखों आदिवासी वनवासी और जनजातीय परिवारों पर बेघर होने का खतरा मंडरा रहा है।आदिवासी मामलों के मंत्रालय के अनुसार वनवासियों के 42.19 लाख दावे किए गए थे जिनमें से 18.89 लाख ही स्वीकार किए गए हैं। जिससे यह साफ़ है के 23 लाख से ज्यादा आदिवासी और वनवासी परिवारों पर तलवार लटकी है। /p p style= text-align: justify देश के आदिवासी जो जंगल की जमीन पर बसे हुए हैं उनको पट्टे दिए जाएं या नही इस मामले में सरकार का पूरा अमला पट्टे दिए जाने के सख्त खिलाफ रहता है और सामान्य सरकारी तर्क यह है कि आदिवासी खेती करने के लिए जंगलों को काट लेते हैं वहां पर पेड़ों की जगह खेत बना लेते हैं और फिर उस जमीन पर पट्टे की मांग करते हैं। और सरकारी तंत्र यह मानती रही है कि आदिवासियों की वजह से जंगल घट रहे हैं और जंगली जानवरों पर भी खतरा है। /p p style= text-align: justify वहीँ आदिवासियों की वकालत करने वालों का यह कहना है कि देश में आज जितने भी जंगल बचे हुए हैं वे आदिवासियों की वजह से बचे हैं उनका तर्क यह है कि जंगल और आदिवासी एक-दूसरे के लिए बने हैं और सहअस्तित्व उनकी जिंदगी की सोच है। वे हजारों बरस से इन्हीं पेड़ों के बीच रहते आए हैं और इन पेड़ों से उनसे अधिक और कोई मोहब्बत नहीं कर सकता। /p p style= text-align: justify दरअसल मामला प्रकृतिक संपदाओं का है क्योंकि जहां खदानें हैं उनमें से बहुत से इलाकों पर जंगल हैं।और जहां जंगल हैं उनके बीच आदिवासी रहते हैं। ऐसे में प्रकृतिक संपदाओं का दोहन करने वाले कॉर्पोरेट खदान मालिक और लकड़ी के कारोबारियों की आंखों में आदिवासी स्वाभाविक रूप से किरकिरी की तरह खटकते रहते हैं। अर्थात यह मामला आदिवासी अधिकारों बनाम कट्टर संरक्षणवादियों के हठ का तो दिखता है लेकिन असल में पर्दे के पीछे सक्रिय कॉरपोरेट निर्माण और निवेश लॉबी वन प्रशासनिक मशीनरी की सुस्ती और अनदेखी कॉरपोरेट से कथित मिलीभगत कानून के लूपहोल और सरकारों की उदासीनता का भी है। /p p style= text-align: justify ज्ञात हो की 2006 में जब अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासियों के हितों और अधिकारों की सुरक्षा के लिए वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) लाया गया था तो इस कानून का विरोध करने वालों में बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया और वाइल्डलाइफ फर्स्ट जैसे पर्यावरणप्रेमी संगठन भी थे। /p p style= text-align: justify जंगल में लकड़ी की तस्करी खनन और भू माफिया द्वारा अतिक्रमण अवैध कब्जा किए जाने की बात से इनकार नहीं किया जा सकता यह भी सच है की जंगल सिकुड़ रहा है।लेकिन उसका दोष आदिवासीयों के सर नहीं मढ़ा जा सकता क्योकि विकास के नाम पर पेड़ो को भी काटा गया हैं और जंगलों से उनके मूल निवासी आदिवासीयों को बेदखल भी किया गया है। /p p style= text-align: justify पर्यावरण प्रेमी और संरक्षणवादी संगठनो को अपना सोंच स्पष्ट करना चाहिए आप जंगल के संरक्षण की वकालत क्या आदिवासियों और जंगल के जैविक संबंध के बगैर करते हैं? क्या आपके लिए पेड़ पौधा ही महत्वपूर्ण है या पर्दे के पीछे विरोध का असल खेल कुछ और है? /p p style= text-align: justify चूंकि आम चुनाव नजदीक है और लोकसभा में 47 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। अतः कोर्ट के इस फैसले से राजनीतिक दलों में खलबली मची हुई है इसलिए कांग्रेस और बीजेपी शासित राज्यों ने आननफानन में बयान जारी किए और कोर्ट मे गुहार लगाने की बातें कहीं. मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ तो पुनर्विचार याचिका डालने का एलान भी कर चुकी है। /p p style= text-align: justify इस तरह के खानापूर्ति के बजाय सरकारों को यह बात समझना चाहिए के आदिवासीयों के लिए जंगल पिकनिक प्लेस या कमाई का स्रोत नहीं है जहाँ वे मौज मस्ती और कमाई के लिए रहते हैं जंगल से उनका रूहानी रिश्ता है जहां उनका घर है जहां उनकी पीढी दर पीढ़ी रही है जहां उनकी संस्कृति जन्मी है परम्पराएं पनपी है।मुख्यधारा से अलग हुए इस पुरे समाज को बेघर करने के बजाय मुख्यधारा से जोड़ने की जरुरत है लेकिन विडंबना तो देखिए सरकारे आदिवासी जिन्हें मूलभूत अधिकार भी पूर्ण रूप से नहीं मिल पाता है उनके प्रति दायित्व निभाने के बजाय विकास की ओट लेकर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर थैली भरने वाले थैलीशाहों के मदद के लिए ज्यादा आतुर रहती है। /p