बच्चों में बढ़ते मायोपिया खतरे से निपटेगा भोपाल का AI प्रोजेक्ट, ICMR से मिली 1.5 करोड़ की मंजूरी
कोरोना के बाद बच्चों में स्क्रीन टाइम बढ़ने से मायोपिया (निकट दृष्टिदोष) के मामले तेजी से बढ़े हैं। इसी को देखते हुए AIIMS भोपाल और MANIT ने मिलकर एक AI आधारित प्रोजेक्ट शुरू किया है, जिसे ICMR से 1.5 करोड़ की ग्रांट मिली है।

भोपाल| कोरोना महामारी के बाद बच्चों में स्क्रीन टाइम बढ़ने से मैदानों में खेलने का समय घटा है, जिससे आंखों की बीमारी मायोपिया यानी निकट दृष्टिदोष तेजी से बढ़ रही है। इसी चिंता को ध्यान में रखते हुए एम्स भोपाल और मैनिट भोपाल ने मिलकर एक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) आधारित शोध परियोजना शुरू की है, जिसे भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICMR) ने 1.5 करोड़ रुपये का अनुदान दिया है। इस तीन साल की परियोजना के तहत एक AI मॉडल और मोबाइल एप विकसित किया जाएगा, जो स्कूली बच्चों में मायोपिया की पहचान और भविष्यवाणी कर सकेगा।
इस शोध में भोपाल के करीब 10 से 12 हजार स्कूली बच्चों को शामिल किया जाएगा, जिनमें शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चे शामिल होंगे। एम्स भोपाल से डॉ. प्रीति सिंह और डॉ. समेन्द्र कर्कुर, तथा मैनिट भोपाल से डॉ. ज्योति सिंघाई इस रिसर्च की अगुवाई कर रहे हैं। इस प्रोजेक्ट का उद्देश्य केवल मायोपिया की पहचान नहीं, बल्कि AI की मदद से इस बीमारी की समयपूर्व चेतावनी देना भी है ताकि समय रहते सावधानियां बरती जा सकें।
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AI आधारित एप के ज़रिए बच्चों की आंखों में शुरुआती लक्षणों को पहचाना जा सकेगा और डॉक्टर की सीधी मौजूदगी के बिना भी संभावित खतरे का आकलन किया जा सकेगा। यह मॉडल स्क्रीन टाइम और आउटडोर गतिविधियों के आधार पर भविष्य में हेल्थ अलर्ट भी जारी कर सकेगा। मायोपिया में दूर की चीजें धुंधली दिखती हैं, आंखों में जलन, सिरदर्द और थकान जैसी समस्याएं हो सकती हैं, और इसे नजरअंदाज करना खतरनाक हो सकता है क्योंकि इससे रेटिना पर स्थायी क्षति भी हो सकती है।
एम्स भोपाल की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, पिछले पांच वर्षों में 15 वर्ष से कम उम्र के 5,875 बच्चों में रिफ्रेक्टिव एरर देखा गया, जिनमें से करीब 48% बच्चों में मायोपिया पाया गया। विशेषज्ञों के मुताबिक, अगर समय रहते जरूरी कदम नहीं उठाए गए तो 2050 तक हर दूसरा बच्चा इस रोग की चपेट में आ सकता है।
डॉक्टरों का कहना है कि बच्चों को रोजाना कम से कम दो घंटे प्राकृतिक रोशनी में बिताना चाहिए, स्क्रीन के लंबे उपयोग से बचना चाहिए और हर साल आंखों की जांच करानी चाहिए। शोधकर्ताओं का मानना है कि यह परियोजना न केवल बच्चों की आंखों को सुरक्षित रखने में सहायक होगी, बल्कि भारत में पहली बार AI आधारित मायोपिया डेटा सेट तैयार करेगी जो आगे नीति निर्माण और बड़े स्तर की स्वास्थ्य योजनाओं में उपयोगी साबित हो सकती है।
एम्स की डॉ. भावना शर्मा के अनुसार, बच्चों की आंखों का विकास सामान्यतः 18 वर्ष तक होता है, लेकिन अत्यधिक स्क्रीन उपयोग और कृत्रिम रोशनी के कारण आंखों की मांसपेशियां एक जैसी स्थिति में बनी रहती हैं जिससे दृष्टिदोष की संभावना बढ़ जाती है। सुबह और शाम की प्राकृतिक रोशनी में खेलना आंखों के लिए सबसे अनुकूल होता है। मायोपिया के माइल्ड, मॉडरेट और सीवियर तीन प्रकार होते हैं, जिनमें शुरुआती स्तर पर चश्मे से इलाज संभव है लेकिन गंभीर स्थिति में सर्जरी की आवश्यकता भी पड़ सकती है।
इस पहल के तहत 50,000 से अधिक बच्चों को नेत्र स्वास्थ्य और डिजिटल जीवनशैली के प्रति जागरूक करने के लिए प्रशिक्षण भी दिया जाएगा। यह प्रोजेक्ट बच्चों की आंखों को लेकर देश में एक बड़ा कदम माना जा रहा है।