वो खौफनाक रात जब फाड़े गए 34 इंसानों के पेट, लाशें देख कोर्ट के रजिस्ट्रार की हुई मौत, उसी HC से सभी आरोपी बरी

पटना हाईकोर्ट ने बिहार के सेनारी में 18 मार्च 1999 की रात हुए नृशंस हत्या के आरोपियों को सबूतों के आभाव में बरी किया, यह हत्याकांड इतना भयावह था कि लाशें देखकर हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार की मौत हो गई थी

Updated: May 22, 2021, 08:33 AM IST

Photo Courtesy: Zeenews
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पटना। 18 मार्च 1999 की वो खौफनाक रात, जब गाजर-मूली की तरह नौजवानों की गर्दनें काटी जा रही थी। एक के गर्दन कटने के बाद लाइन में खड़ा दूसरा इंसान अपनी बारी का इंतजार कर रहा था। सिर धड़ से अलग होने के बाद तड़पते लोगों के पेट फाड़े जा रहे थे। मंजर इतना भयावह की अगली सुबह लाशें देखकर हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार की हार्टअटैक से मौत हो गई थी। इस नृशंस हत्याकांड के सभी आरोपियों को पटना हाईकोर्ट ने सबूतों के आभाव में बरी कर दिया है।

बिहार के तत्कालीन जहानाबाद और वर्तमान अरवल जिले के करपी थाने के सेनारी गांव में 22 साल पहले हुई उस खूनी खेल का जिक्र होने के वहां के लोगों की रूह कांप उठती है। उस दिन शाम करीब 7.30 बजे से रात 11 बजे तक प्रतिबंधित नक्सली संगठन माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) के उग्रवादियों ने धारदार हथियार से 34 लोगों की जीवन लीला समाप्त कर दी। कल पटना हाईकोर्ट द्वारा इस घटना के सभी आरोपियों को बरी किए जाने के बाद राज्य सरकार ने अब सुप्रीम कोर्ट जाने का फैसला लिया है। 

इससे पहले 15 नवंबर 2016 को जहानाबाद की डिस्ट्रिक्ट कोर्ट ने इस घटना के 13 आरोपियों में से 10 को मौत की सजा सुनाई थी, वहीं अन्य तीन को उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी। मामले में कुल 14 लोग आरोपी बनाए गए थे, लेकिन ट्रायल के दौरान ही एक कि मौत हो गई थी। आरोपियों ने डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के इस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। पटना हाईकोर्ट ने आरोपियों के खिलाफ सबूतों के अभाव का हवाला देते हुए शुक्रवार को डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के फैसले को पलट दिया। उच्च न्यायालय ने सभी आरोपियों को बरी करते हुए उनकी तत्काल रिहाई का निर्देश दिया है।

हाईकोर्ट की जस्टिस अश्विनी कुमार सिंह और जस्टिस अरविंद श्रीवास्तव की बेंच ने कहा है कि जहानाबाद डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के द्वारा दोषी करार दिए गए 13 लोगों के इस नरसंहार में शामिल होने की सबूत नहीं मिल पाए हैं। आरोपियों के वकील ने न्यायालय में तर्क दिया कि 22 साल पुराने इस मामले में जो गवाह हैं वे इस स्थिति में नहीं हैं कि आरोपियों की पहचान कर सकें क्योंकि घटनास्थल पर किसी किस्म की रोशनी नहीं थी। इसी तर्क के आधार पर न्यायालय ने आरोपियों को संदेह लाभ देने का फैसला सुनाया। 

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उच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद अब सवाल उठने लगे हैं कि आखिर 34 लोगों की हत्या किसी ने नहीं कि थी। बिहार बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष व लोकसभा सांसद संजय जयसवाल ने भी यही प्रश्न किया है। बीजेपी नेता ने अपने फेसबुक पोस्ट में लिखा, '34 लोगों की हत्या किसी ने नहीं कि। दुखद!!!????' उन्होंने कई प्रश्नवाचक चिन्ह भी लगाए हैं जो भारतीय न्यायप्रणाली की खामियों की ओर इशारा करते हैं। उधर घटना के पीड़ितों ने न्यायालय से सवाल पूछा है की हमारे परिजनों की गला रेतकर जघन्य हत्या कर दी गई, इससे बड़ा सबूत और क्या होगा?

क्या है पूरा मामला

बिहार 90 के दशक में जातीय हिंसा के खून खेल से जूझ रहा था। जमीन-जायदाद व अन्य कारणों की वजह से राज्यभर में सवर्ण और दलित जातियां एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए थे। सवर्णों को रणबीर सेना नाम के उग्रवादी संगठन और दलितों को प्रतिबंधित नक्सली संगठन एमसीसी का समर्थन प्राप्त था। 18 मार्च 1999 की शाम 500 से ज्यादा हथियारबंद लोगों ने पूरे सेनारी गांव को घेर लिया था। इसके बाद घरों में घुसकर मर्दो को चुन-चुनकर बाहर निकाला गया।

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सभी लोगों को जानवरों की तरह घसीटकर गांव के बाहर ठाकुरबाड़ी के पास ले जाया गया और लाइन में खड़ा कर एक एक कि गर्दन बेरहमी से काट दी गई। प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक सिर अलग होने के बाद जब धड़ जमीन पर गिरता तो हथियारों से उनके पेट फाड़ दिए जाते। प्रतिशोध की उस आग ने 34 लोगों की जान ले ली। मरनेवालों में सभी लोग भूमिहार जाति के थे। घटना के अगले सुबह पटना हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार रहे पद्मनारायन सिंह जब अपने गांव सेनारी पहुंचे तो अपने परिजनों के क्षत-विक्षत शवों को देखकर उन्हें दिल का दौरा पड़ा और उनकी मौत हो गई। 

बाथे नरसंहार का था बदला

ऐसा ही मामला इसके दो साल पहले आया था जब 1997 में अरवल के दो गांव शंकरबीघा और नारायणपुर बाथे में आधी रात दलितों की बेरहमी से हत्या कर दी गई थी। इस हत्याकांड में भूमिहार समाज के लोगों को आरोपी बनाया गया था। इस घटना के बाद बिहार में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। हालांकि, विरोध के बाद 24 दिनों में ही राबड़ी सरकार वापस आ गई। हालांकि, इस हत्याकांड के भी सभी आरोपी बरी हो गए हैं। माना जाता है कि दो साल हुए इस घटना का प्रतिशोध ही सेनारी में लिया गया था।

बिहार के प्रसिद्ध कानूनविद वाईवी गिरी का मानना है कि हाईकोर्ट ने सबूतों के आधार पर फैसला सुनाया है। गिरी कहते हैं कि यह पहला मामला नहीं है बल्कि बिहार में अधिकांश नरसंहारों में यही देखा जाता है कि आरोपी सबूत के आभाव में बरी हो गए। उन्होंने बताया कि सेनारी नरसंहार से पहले बथानी टोला नरसंहार, लक्ष्मणपुर बाथे, मियांपुर और शंकर बिगहा में हुए कत्लेआम में भी सभी आरोपी साक्ष्य के आभाव में बरी हो गए तो थे।