Digvijaya Singh: किसान और गरीब विरोधी क़ानून वापस लें प्रधानमंत्री मोदी

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने पूछा है कि मंडियां ख़त्म करके मुक्त बाज़ार का रास्ता खोलना किसानों के हित में कैसे हो सकता है

Updated: Dec 16, 2020, 03:47 AM IST

Photo Courtesy: Digvijayasingh.in
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भारत का किसान इन दिनों खेत की बजाय सड़कों पर दिन-रात बैठा है। खेती-किसानी के सबसे मुफीद समय में अपना खेत छोड़कर सड़क पर किसान इसलिए है क्योंकि उसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लाए कृषि कानूनों में खोट नज़र आ रही है। किसान इसे वापस लेने की मांग कर रहे हैं। लेकिन मोदी जी अपने पूरे दल-बल के साथ घूम-घूमकर यह समझाने में लगे हैं कि वो किसानों के मददगार हैं, सिर्फ विपक्ष है जो किसानों के कंधे पर बंदूक तानकर सरकार पर हमले करवा रहा है।  मोदी जी के महारथी किसानों को कभी आतंकवादी, कभी षणयंत्रकारी, कभी मालपुआ-पिज्जा खानेवाले अमीर और कभी कुकरमुत्ता संगठन जैसे अनेक उपमाओं से हिलाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन किसान अपनी ज़मीन पकड़कर बैठे हैं और कृषि कानूनों की वापसी से कम पर राज़ी नहीं हैं।

कृषि कानूनों को मोदी सरकार ने संसद में तो छल-कपट से पास करा लिया लेकिन सड़क पर उन्हें जबरदस्त चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। मोदी सरकार लाख कह रही है कि मकसद किसानों की भलाई है लेकिन किसान इसे स्वीकार नहीं कर पा रहे।

पहले अध्यादेश और अब क़ानून बन चुके मोदी सरकार के कृषक चिंताओं का असली मक़सद समझने के लिए आपको आरएसएस-बीजेपी की राजनीतिक विचारधारा को समझना होगा। जिन्होंने ग़रीबों को सब्सिडी देने और सार्वजनिक क्षेत्र में निवेश का विरोध करते हुए बाज़ार अर्थव्यवस्था, फ़्री मार्केट इक़ॉनमी का हमेशा समर्थन किया है। मोदी सरकार पहले दिन से ही ग़रीबों की सब्सिडी घटाने, महारत्न और नवरत्न कही जाने वाली सार्वजनिक कंपनियों की संपत्तियां बेचने पर ज़ोर देती रही है। उसने अपने पसंदीदा कॉरपोरेट्स को क़र्ज माफी और संकटग्रस्त कंपनियों की बेशक़ीमती संपत्तियां एनसीएलटी के ज़रिए कौड़ियों के भाव देकर बैलेंस शीट सुधारने का मौक़ा भी दिया है। ऐसे में मकसद मुक्त बाज़ार है ना कि मुक्त किसान।

 इसे समझने के लिए ज़रा 2014 में शांता कुमार के नेतृत्व में उच्च स्तरीय समिति (HLC - High Level Committee) के गठन और उसकी रिपोर्ट को समझना होगा।

शांता कुमार कमेटी की प्रमुख सिफ़ारिशें क्या हैं

2014 में शांता कुमार कमेटी का गठन तो फ़ूड कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया के कामकाज की समीक्षा के लिए किया गया, लेकिन उसके पीछे असली मक़सद पीडीएस और एमएसपी के लिए दी जाने वाली सब्सिडी में कटौती करना था। जिसमें  पीडीएस में डायरेक्ट बेनिफिट और एफसीआई की सीमाओं को तय करने की सिफारिश की गई।

अब पीडीएस में डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफ़र (DBT) की शुरुआत हो और एफसीआई सिर्फ डेफिसिट वाले राज्यों में सरकारी खरीद पर ध्यान दे, इन दोनों ही उपायों का अंतिम परिणाम तो यही होगा कि गरीबों और किसानों को मिलने वाली सब्सिडी घट जाएगी। अगर लाभार्थियों को कैश बेनिफिट दिया जाएगा तो एमएसपी पर अनाज ख़रीदने की क्या ज़रूरत रह जाएगी?

अंतरराषट्रीय स्तर पर देखें, तो यह सरकार की विश्व व्यापार संगठन के आगे अपनी स्वायत्ता छोड़ने का मसला भी माना जा सकता है। अमीर देश विश्व व्यापार संगठन (WTO) के मंच पर ग़रीबों और किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी में कटौती की मांग वर्षों से करते रहे हैं। लेकिन यह हामी साल 2015 में मोदी सरकार ने ही दी कि WTO में कृषि एक्सपोर्ट पर दी जाने वाली सब्सिडी को खत्म किया जाएगा। क्या इसका यह मतलब नहीं है कि भारत ने तभी से मार्केट इक़ॉनमी और फ्री मार्केट के रास्ते पर चलने के लिए पड़ने वाले अंतरराष्ट्रीय दबाव के आगे झुकना शुरू कर दिया.. क्या इसका फायदा अमीर देशों को और नुकसान गरीब मुल्कों को नहीं उठाना पड़ेगा।

भारत के फलते-फूलते कृषि उत्पाद के बाज़ार का आकार तकरीबन 15 से 18 लाख करोड़ रुपये का है। कृषि उत्पादों का कारोबार करने वाले बड़े अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी अलग-अलग राज्यों में मौजूद APMC कानूनों की वजह से इस भारतीय बाज़ार में सीधी घुसपैठ नहीं बना पा रहे थे। हरेक मंडी के लिए ट्रेडर या खरीदार को अलग से ट्रेडिंग लाइसेंस लेना पड़ता है। बड़े कारोबारियों के लिए ऐसा करना झमेले का काम है। इसीलिए ऐसी व्यवस्था की जा रही है कि किसी भी व्यक्ति को सिर्फ एक पैन कार्ड और आधार कार्ड के जरिए देश के किसी भी कोने में खरीद-फरोख्त करने की छूट मिल जाए। ऐसे में निजी मंडियों के खरीदार अगर किसानों की फसल खरीदने के बाद उन्हें पूरा भुगतान किए बिना रातों-रात रफूचक्कर हो जाएं तो क्या होगा? मौजूदा कानून में तो किसानों को ऐसी हालत में कोर्ट जाने का अधिकार भी नहीं दिया गया है। वो सिर्फ एसडीएम के पास जाकर शिकायत कर सकते हैं। यानि किसान पूरी तरह से नौकरशाही के रहमोकरम पर हो जाएगा।

कैसे काम करती हैं मंडियां

मौजूदा व्यवस्था में ज़्यादातर मंडियां किसानों की चुनी हुई संस्थाएं हैं, जिनमें हरेक ट्रेडिंग लाइसेंस के लिए मंडी समितियों के पास बैंक गारंटी या किसी अन्य तरह की गारंटी जमा करनी पड़ती है। प्राइवेट मंडी में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं होगी। APMC एक्ट को कमज़ोर करने वाले कदम इसीलिए उठाए जा रहे हैं, ताकि तमाम मंडियों में बड़े कॉरपोरेट्स की बेरोकटोक घुसपैठ क़ायम हो सके।

इसी तरह आवश्यक वस्तु अधिनियम (Essential Commodities Act) में संशोधन का कदम भी बड़े कॉरपोरेट्स, जमाखोरों और सटोरियों के लिए दरवाज़े खोलने के मकसद से उठाया गया है, ताकि वे बिना किसी रुकावट के असीमित मात्रा में कृषि उपज की खरीद-फरोख्त कर सकें। इस कदम का नतीजा भी यही होगा कि इस क्षेत्र में काम करने वाले मौजूदा छोटे और मंझोले ट्रेडर बर्बाद होंगे और बड़े खिलाड़ियों को फायदा पहुंचेगा।

तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की पहल करें

प्रधानमंत्री को किसानों और खेत मज़दूरों की भावनाओं का सम्मान करना चाहिए। वे जिन 130 करोड़ भारतीयों की नुमाइंदगी का दावा सार्वजनिक रूप से करते हैं, उनमें 60% से ज़्यादा आबादी ऐसे ही किसानों की है। उनके आंदोलन को विरोधियों के उकसाने पर किया जा रहा राजनीतिक षणयंत्र बताना बिलकुल ग़लत है। अगर ऐसा होता तो देश के सबसे वरिष्ठ राजनेताओं और बीजेपी के सबसे पुराने सहयोगियों में शामिल रहे प्रकाश सिंह बादल जी तीनों क़ानूनों को वापस लिए जाने की मांग क्यों कर रहे हैं?

इसलिए प्रधानमंत्री जी, हमारे किसानों की मांग को स्वीकार कीजिए और तीनों किसान विरोधी, गरीब विरोधी क़ानूनों को वापस लीजिए। इसके बाद किसान संगठनों से बातचीत के लिए एक साझा संसदीय समिति का गठन कीजिए और उसके बाद, अगर आपसी सहमति बने तो सर्वसम्मति से नया क़ानून पारित कीजिए। ये मत भूलिए कि विनम्रता एक ऐसा सद्गुण है, जो सार्वजनिक जीवन में बहुत काम आता है। जैसा कि संत विंसेंट द पॉल ने कहा है, “विनम्रता ही सत्य है और अहंकार  झूठ के सिवा कुछ भी नहीं।”