इंदिरा गांधी का असाधारण नेतृत्व और 1971 की विजय
3 दिसंबर 1971 को भारत के पश्चिमी हिस्से पर पाकिस्तानी हमले के साथ शुरू हुआ युद्ध 13 दिसंबर को पूर्वी इलाके को मुक्त कराकर समाप्त हो गया। उसी शाम इंदिरा गांधी ने लोकसभा में घोषणा की कि ढाका अब एक आजाद देश की आजाद राजधानी है। कांग्रेस के सदस्यों ने लोकसभा में नारा लगाया—इंदिरा गांधी जिंदाबाद। यहां तक कि विपक्ष के एक सांसद ने भी कहा कि बांग्लादेश की मुक्ति के इतिहास में प्रधानमंत्री का नाम स्वर्णिम खड्ग के रूप में दर्ज होगा। वहां से इंदिरा गांधी सीधे आकाशवाणी के स्टूडियो गईं और उन्होंने पश्चिमी मोर्चे पर एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा की। जिसके 24 घंटे बाद पाकिस्तानी जनरल याह्या खान ने भी युद्ध विराम का एलान किया।
पूर्वी पाकिस्तान में 1971 में छिड़े गृहयुद्ध के समय भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साहस और संयम का लोहा इस महाद्वीप के नेताओं और बौद्धिकों ने ही नहीं माना था बल्कि बीसवीं सदी की महान दार्शनिक और राजनीतिशास्त्री हन्ना आरेंट ने भी उनकी तारीफ की थी। आरेंट नवंबर 1971 में न्यूयार्क के एक पारस्परिक मित्र के आवास पर उनसे मिली थीं। एक महीने बाद जब भारतीय सेना ढाका में घुस गई तो उन्होंने अपनी मित्र उपन्यासकार मैरी मैकार्थी को लिखा कि किस तरह उन्होंने एक पार्टी में इंदिरा गांधी को देखा था।" वे बहुत अच्छी दिख रही थीं, लगभग सुंदर, बहुत आकर्षक और वहां कमरे में उपस्थित हर पुरुष के साथ दोस्ती दिखाती हुई, कोई बनावटीपन नहीं, पूरी तरह से शांत थीं। उन्हें मालूम रहा होगा कि वे युद्ध करने जा रही हैं और संभवतः खराब अर्थों में भी इसका आनंद ले रही थीं। ऐसी महिलाएं जब एक बार जो चाहती हैं उसे हासिल कर लेती हैं तो उनकी दृढ़ता खास होती है।’’
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हालांकि इस बात पर मतभेद है कि भारत के पूर्व प्रधानमंत्री, उस समय राज्यसभा के सदस्य और जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें दुर्गा कह कर संबोधित किया था या नहीं। इंदिरा गांधी की जीवनी लिखने वाली मशहूर विद्वान और लेखिका पुपुल जयकर ने वाजपेयी का नाम लिए बिना उनकी तुलना दुर्गा से की है लेकिन उन्होंने यह भी लिखा है कि वाजपेयी ने वैसा कहने से इनकार कर दिया था। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि बांग्लादेश का मुक्ति संग्राम और पाकिस्तान के साथ भारत का वह युद्ध इंदिरा गांधी ने लंबी तैयारी के साथ जीता था और उनके दिमाग में एक खाका था कि पाकिस्तान जिसका एक हिस्सा न सिर्फ उससे भौगोलिक रूप से सैकड़ों किलोमीटर दूर है बल्कि सांस्कृतिक रूप से भी बहुत भिन्न है उसे अलग किया जा सकता है और करना है। अपनी इस योजना के लिए वे न सिर्फ घरेलू स्तर पर तैयारी कर रही थीं बल्कि उसके लिए वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी विरोध और समर्थन को जुटा रही थीं और उसे तौल रही थीं।
पूर्वी पाकिस्तान का संकट तो मार्च 1971 में ही शुरू हो गया था और इंदिरा गांधी युद्ध की संभावनाओं पर अप्रैल के महीने से ही विचार कर रही थीं। लेकिन सेना के तत्कालीन प्रमुख जनरल सैम होरमुसजी फ्रायजी जमशेदजी मानेकशा ने तब युद्ध का कड़ा विरोध करते हुए कहा था कि अभी मौसम एकदम अनुकूल नहीं है। सितंबर 1971 के आखिरी हफ्ते में इंदिरा गांधी सोवियत संघ के दौरे पर गई थीं। उसके बाद वे 23 अक्तूबर से ब्रिटेन, फ्रांस, पश्चिमी जर्मनी, बेल्जियम, अमेरिका और आस्ट्रेलिया गईं और शरणार्थियों के लिए मदद मांगी। उससे पहले 9 अगस्त 1971 को भारत और सोवियत संघ के बीच नई दिल्ली में शांति, मैत्री और सहयोग की संधि हो चुकी थी। इस संघि में साफ कहा गया था कि अगर संधि करने वाले देशों पर किसी की तरफ से कोई हमला या खतरा उत्पन्न होगा तो दोनों देश तुरंत इस तरह के खतरे को दूर करने के लिए मशविरा करेंगे, उसे मिटाने की कोशिश करेंगे और एक दूसरे के लिए शांति और सुरक्षा कायम करेंगे।
इस संधि की पृष्ठभूमि में अमेरिकी प्रशासन में भारत के प्रति बढ़ती नफरत और पाकिस्तान के प्रति बढ़ती चाहत एक वजह थी तो दूसरी वजह थी चीन और सोवियत संघ के बीच बढ़ता टकराव। माओ त्से तुंग ने सोवियत संघ को संशोधनवादी कहना शुरू कर दिया था। दोनों की सेनाएं 1969 में उड़ी नदी के किनारे टकरा चुकी थीं। इस बीच पाकिस्तान अमेरिका और चीन को करीब लाने की कोशिश कर रहा था और 1962 के युद्ध में चीन से घायल भारत चीन के प्रति पहले से सशंकित था। इन सारी अंतरराष्ट्रीय राजनयिक स्थितियों का लाभ उठाते हुए सोवियत संघ में भारत के राजदूत डी.पी. धर ने एक ओर सोवियत हथियार खरीदने से लेकर संघि तक की स्थितियां तैयार कीं तो साथ ही यह तय किया कि पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान को अब एक नहीं रहने देना है। अतरराष्ट्रीय स्तर पर यह रणनीतिक तैयारी तभी हो गई थी जब भारत के विदेश मंत्री स्वर्ण सिंह ने जून 1971 में मास्को का दौरा किया था। चीन के प्रति भारत और सोवियत संघ की साझी चिंता से स्वर्ण सिंह को वहां के विदेश मंत्री आंद्रेई ग्रोमिको ने अवगत कराया था और एक समझौते का प्रस्ताव रखा। वही समझौता अगस्त के आरंभ में नई दिल्ली में किया गया जिस पर स्वर्ण सिंह और ग्रोमिको ने हस्ताक्षर किए।
इन्हीं राजनयिक और रणनीतिक तैयारियों के बीच इंदिरा गांधी ने अक्तूबर के महीने के आखिरी हफ्ते में कई यूरोपीय देशों का दौरा किया। हर जगह वे पूर्वी पाकिस्तान में गहराते संकट के बारे में बोल रही थीं। उन्होंने वाशिंगटन के राष्ट्रीय प्रेस क्लब को संबोधित करते हुए कहा, "जहां तक शब्दों का सामान्य अर्थ लिया जाएगा तो यह एक गृह युद्ध नहीं है। वहां लोकतांत्रिक तरीके से मतदान करने वाले नागरिकों को नरसंहार का दंड दिया जा रहा है’’ उनका कहना था, "पाकिस्तान की सारी समस्या की जड़ में लोकतंत्र का दमन है। अगर लोकतंत्र आप के लिए अच्छी व्यवस्था है तो यह भारत में हमारे लिए भी अच्छी है और पूर्वी बंगाल के लोगों के लिए भी अच्छी है।’’
नवंबर में जब इंदिरा गांधी ने अमेरिका का दौरा किया तो उनकी अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन से दो बार भेंट हुई। उस भेंट के बारे में वहां के विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर ने लिखा है, "वह एक प्रकार से दो बहरों का शास्त्रीय संवाद था। यानी कोई किसी की बात सुनने को तैयार नहीं था। निक्सन ने कहा कि अमेरिका याह्या खान को हटाने में सहयोग नहीं देगा। उन्होंने भारत को चेतावनी भी दी कि सैनिक कार्रवाई के परिणाम अकल्पनीय रूप से भयानक हो सकते हैं। इस पर इंदिरा गांधी का कहना था कि जेहाद की बात पाकिस्तान कर रहा है। उन्होंने यह भी कहा कि पश्चिमी पाकिस्तान ने बंगाली नागरिकों के साथ गद्दारी और धोखेबाजी के साथ बर्ताव किया है और उन्हें हमेशा नीच माना है। जबकि भारत ने हमेशा अपने अलगाववादी तत्वों के साथ सहनशीलता का व्यवहार किया है।’’
युद्ध की तैयारियों के बारे में इंदिरा गांधी ने एक बैठक अप्रैल 1971 में की थी। कैबिनेट की उस बैठक में चीफ आफ स्टाफ कमेटी सैम मानेकशा भी बुलाए गए थे। यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि जनरल मानेकशा चीफ आफ डिफेंस स्टाफ न तो 1971 के युद्ध से पहले थे और न ही बाद में वे वैसा कुछ बनाए गए। इस बारे ने एअर चीफ मार्शल ने लिखा है कि युद्ध के दौरान वे कई बार ऐसा व्यवहार करते थे जैसे कि वे तीनों सेनाओं के प्रमुख हों। जबकि ऐसा था नहीं। उनका रैंक बाकी सबके बराबर ही था। बाद में 1973 में उन्हें फील्ड मार्शल की उपाधि दी गई जो सेना में योगदान के लिए दिया जाने वाला सबसे बड़ा सम्मान है। यह सम्मान उनके अलावा जनरल करियप्पा को दिया गया है। इंदिरा गांधी के साथ हुई उस कैबिनेट बैठक का वर्णन करते हुए मानेकशा ने 1995 में जनरल करियप्पा मेमोरियल लेक्चर के दौरान कहा था कि फील्ड मार्शल बनने और नौकरी से बर्खास्त होने के बीच बहुत बारीक रेखा होती है। यानी इंदिरा गांधी से जितनी बातें उन्होंने की थीं कोई और प्रधानमंत्री होता तो उन्हें बर्खास्त कर देता। लेकिन यह इंदिरा गांधी जानती थीं कि किसकी देश के लिए कितनी उपयोगिता और आवश्यकता है। इसलिए उन्होंने मानेकशा की हर बात को धैर्य पूर्वक सुना जबकि उनकी बातें टकराव वाली थीं। इंदिरा गांधी के पास त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल और असम के मुख्यमंत्रियों के तार पड़े हुए थे जो पूर्वी पाकिस्तान से आने वाले शरणार्थियों के बारे में चेतावनी दे रहे थे। वे परेशान थीं और अपने मंत्रियों से सलाह कर रही थीं कि क्या किया जाए।
मानेकशा बताते हैं कि कैबिनेट बैठक में वे मेरी ओर मुड़ीं और पूछा, "इस बारे में आप क्या कर रहे हैं? ’’ मानेकशा ने कहा, "कुछ नहीं, इसका तो मेरे से कोई वास्ता नहीं है। आपने जब बीएसएफ, सीआरपी और रॉ को पाकिस्तानियों को विद्रोह के लिए भड़काने की छूट दी तो मुझसे कुछ नहीं पूछा। अब आप परेशानी में हैं तो मुझसे मुखातिब हैं। मेरी नाक बहुत लंबी है। मैं जानता हूं कि क्या हो रहा है।’’
इस पर इंदिरा गांधी ने कहा, "मैं चाहती हूं कि आप पाकिस्तान में प्रवेश करो। मेरा मतलब है युद्ध करो।’’
फिर इंदिरा गांधी ने पूछा, "क्या आप तैयार हैं?’’
मानेकशा का जवाब था, "एकदम नहीं। यह अप्रैल के महीने का अंत है। हिमालय के रास्ते खुले हैं। चीन की ओर से हमला हो सकता है। पूर्वी पाकिस्तान में बारिश शुरू होने वाली है। पूरा देश बाढ़ में होगा। बर्फ पिघल रही है नदियों में बाढ़ आएगी। हमारी सारी कार्रवाई सड़कों तक रह जाएगी। रसद और सामान पहुंचाने में वायु सेना ज्यादा मदद नहीं कर पाएगी। अब आप मुझे आदेश दें।’’ मानेकशा बताते हैं कि इस जवाब से इंदिरा गांधी परेशान हो गईं और कहा कि बैठक चार बजे फिर होगी।
चार बजे की बैठक के बाद जब मंत्रिमंडल के सदस्य जाने लगे तो इंदिरा गांधी ने कहा कि चीफ क्या तुम रुकोगे। इस पर सैम ने कहा, "आप कुछ कहें इससे पहले मैं अपना इस्तीफा भेजना चाहता हूं। उसका आधार यह होगा कि मेरी शारीरिक और मानसिक स्थिति ठीक नहीं है।’’ इस पर इंदिरा गांधी ने कहा, "आपने जो कहा वह सही था।’’
इस पर मानेकशा ने कहा, "मेरा काम आपको सच बताना है। मेरा काम लड़ना और जीतना है।’’
वे हंसी और बोलीं, "ठीक है सैम। तुम जानते हो कि मैं क्या चाहती हूं।’’
द्वितीय विश्व युद्ध से लेकर कुल पांच युद्ध लड़ चुके जनरल मानेकशा बताते हैं कि पाकिस्तान के तत्कालीन सैन्य राष्ट्रपति याह्या खान अंग्रेजी सेना में उनके साथी थे। जब विभाजन होने लगा तो याह्या खान ने उनसे उनकी मोटर साइकिल 1000 रुपए में खरीद ली। उन्होंने कहा कि पैसा वे पाकिस्तान पहुंच कर भिजवाएंगे। लेकिन उन्होंने वह पैसा कभी नहीं भिजवाया। आखिर में उन्होंने उस एक हजार रुपए की कीमत आधा देश (पूर्वी पाकिस्तान) गंवा कर चुकाई।
उस समय के नागरिक नेतृत्व की तारीफ तत्कालीन वायु सेनाध्यक्ष एअर चीफ मार्शल पी.सी.लाल ने भी की थी। उन्होंने अपनी आत्मकथा एक वैमानिक की कहानी में लिखा है, "1971 में दो असाधारण राजनेता सबसे ताकतवर थे और 1971 के युद्ध का कोई भी वर्णन उनकी प्रशंसा के बिना अधूरा रहेगा। सबसे आगे थीं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी। जटिल स्थितियों को समझने, प्रमुख समस्याओं को पहचानने और कार्रवाई करने की स्पष्ट दिशा तय करने की उनकी क्षमता असाधारण थी। दूसरे नंबर पर जगजीवन राम थे जिन्होंने 1969 से 1973 तक रक्षामंत्री का पद संभाला और इंदिरा गांधी को योग्य समर्थन दिया। मैं एक मंत्री के रूप मे जो कल्पना कर सकता था उस मायने में वे आदर्श थे। उन्हें सेनाध्यक्षों और सचिवों में पूरा विश्वास था। सरकार के उद्देश्यों और इरादों को वे बिना किसी लाग लपेट के बताते थे और उन्हें स्पष्ट करने के बाद काम का जिम्मा संबंधित व्यक्ति पर छोड़ देते थे। वे शांत, हाजिर जवाब, खुशदिल और मजाकिया स्वभाव के व्यक्ति थे और कभी किसी को अपमानित करने वाली बात नहीं करते थे।’’
3 दिसंबर 1971 को भारत के पश्चिमी हिस्से पर पाकिस्तानी हमले के साथ शुरू हुआ युद्ध 13 दिसंबर को पूर्वी इलाके को मुक्त कराकर समाप्त हो गया। उसी शाम इंदिरा गांधी ने लोकसभा में घोषणा की कि ढाका अब एक आजाद देश की आजाद राजधानी है। कांग्रेस के सदस्यों ने लोकसभा में नारा लगाया—इंदिरा गांधी जिंदाबाद। यहां तक कि विपक्ष के एक सांसद ने भी कहा कि बांग्लादेश की मुक्ति के इतिहास में प्रधानमंत्री का नाम स्वर्णिम खड्ग के रूप में दर्ज होगा। वहां से इंदिरा गांधी सीधे आकाशवाणी के स्टूडियो गईं और उन्होंने पश्चिमी मोर्चे पर एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा की। जिसके 24 घंटे बाद पाकिस्तानी जनरल याह्या खान ने भी युद्ध विराम का एलान किया।
इसके बाद इंदिरा गांधी ने अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन को एक आवेशपूर्ण पत्र लिखा। उन्होंने उसमें कहा, "भारतीय नागरिकों ने अमेरिकी नागरिकों के जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए खून बहाया है। .....युद्ध छेड़ने की बजाय कितना अच्छा होता कि एक व्यक्ति यानी शेख मुजीबुर्रहमान से बात कर ली जाती।...यह अमेरिकी प्रशासन की नाकामी है जो उसने इस्लामाबाद के सैनिक गुट के खिलाफ कार्रवाई नहीं की जो बांग्लादेश में हुए नरसंहार के लिए जिम्मेदार है। ...भारत को इन बातों के लिए उत्तरदायी ठहराने से भारत को ठेस पहुंची है। ...दुनिया के शक्तिशाली देश चाहते तो इस समस्या का शांतिपूर्ण समाधान कर सकते थे लेकिन उन्होंने इसकी परवाह नहीं की।’’
बांग्लादेश के गठन और भारत की विजय के बाद दिल्ली में गांधी शांति प्रतिष्ठान में महत्वपूर्ण गोष्ठी हुई जिसमें वामपंथी से लेकर दक्षिणपंथी सभी बुद्धिजीवियों ने भारत सरकार और इंदिरा गांधी की प्रशंसा की। टाइम्स आफ इंडिया के संपादक गिरिलाल जैन ने कहा कि भारत का आत्मसम्मान और दुनिया की नजर में उसकी छवि में बहुत सुधार हुआ है। नतीजतन कांग्रेस और इंदिरा गांधी के नेतृत्व का भविष्य उज्जवल है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के विचारक के आर मलकानी ने कहा कि 1971 भारत के राजनीतिक विकास में एक मील का पत्थर रहेगा। उधर पाकिस्तान के अखबारों ने लिखा कि आज पूरा देश खून के आंसू रो रहा है। हजार सालों में पहली बार हिंदुओं ने मुसलमानों पर जीत हासिल की है।