लोकतंत्र की मूल भावना को समझने और बचाने का समय आ गया है
देश की जनता जागरूक है और हमारे देश में लोकतंत्र की जड़ें गहरी है, नागरिक अपने अधिकारों को पहचानते हैं और ये सब मिलकर लोकतंत्र पर हो रहे हमलों का पुरज़ोर विरोध करेंगे तथा देश में लोकतंत्र की नई सुबह का आग़ाज़ करेंगे। ऐसा मुझे दृढ़ विश्वास है: कमलनाथ

भारतीय सभ्यता संसार की उन महान सभ्यताओं में से एक है जिन्होंने 2 हज़ार साल से अधिक पहले गणतंत्र की रचना की और आज 2000 साल बाद भी भारत दुनिया का सबसे बड़ा गणतंत्र बना हुआ है। इन दो-ढाई हज़ार सालों के कालखंड में भारत ने विभिन्न शासन व्यवस्था, विदेशी आक्रमण, अंग्रेजों की ग़ुलामी, जमींदारी, शोषण और फिर इस सबके ख़िलाफ़ महात्मा गांधी के नेतृत्व में हुआ महान जन आंदोलन देखा।
लोकतंत्र
आज भारत में जो लोकतंत्र विद्यमान् है वह महात्मा गांधी और कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में क़रीब 60 साल तक चले व्यापक जन आंदोलन का सुफल है। दरअसल महात्मा गांधी के नेतृत्व में आज़ादी का जो आंदोलन चल रहा था वह न सिर्फ़ विदेशी शासन को हराकर स्वराज की स्थापना करने वाला था, बल्कि भारतीय समाज में आ गई विकृतियों और बुराइयों को दूर करने वाला था। इसके साथ ही भारत के जनमानस के भीतर एक स्वाभिमान और नागरिकता बोध को भरने वाला आंदोलन था।
हमारे आज़ादी के आंदोलन के कुछ मूल सामाजिक पहलुओं को देखें तो इसमें सांप्रदायिक एकता पर ज़ोर दिया गया, छुआछूत को अपराध माना गया, महिलाओं को समाज में समान अधिकार दिया गया, राजशाही समाप्त करके जनता और राजा को बराबरी के दर्जे पर लाया गया। इसके साथ ही एक ऐसे कल्याणकारी राज्य की कल्पना की गई जहाँ समाज के सबसे वंचित व्यक्ति के अधिकारों को सुनिश्चित किया जा सके।
1929 में आयी पंडित मोतीलाल नेहरू की नेहरू रिपोर्ट में ही कांग्रेस ने घोषणा कर दी थी कि महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार मिलेंगे, समाज में अस्पृश्यता को समाप्त किया जाएगा, सांप्रदायिक भेद नहीं होगा और भारत आर्थिक समानता के लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ेगा। यह तथ्य इसलिए महत्वपूर्ण है कि जब हमारे देश के कर्णधार महिलाओं और पुरुषों को समानता का अधिकार दे रहे थे, तब इंग्लैंड और अमेरिका में महिलाओं को मतदान का अधिकार नहीं मिला था। जब नेहरू रिपोर्ट समाज से क़ानूनन अस्पृश्यता समाप्त करने की बात कर रही थी तब अमेरिका में नस्लभेद क़ानूनी रूप से वैध था। यानी कि भारत के आज़ादी का आंदोलन दुनिया के सबसे विकसित देशों से भी अधिक प्रगतिशील था।
संविधान
भारत की आज़ादी की लड़ाई के आंदोलन के इन्हीं सामाजिक मूल्यों को भारत के संविधान का बुनियादी आधार बनाया गया। दिसंबर 1946 में जब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में संविधान का प्रस्ताव रखा तो उसी में स्पष्ट रूप से कहा कि भारत में सभी नागरिक समान होंगे और साथ ही यह भी कहा कि दलित, वंचित और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के लिए विशेष प्रावधान किए जाएंगे। उसी प्रस्ताव में नेहरू जी ने स्पष्ट रूप से कहा कि हम भारतीय गणराज्य की स्थापना करेंगे। हमने इसमें सेकुलर शब्द अलग से नहीं रखा है क्योंकि जो गणराज्य हैं उसे सेकुलर होना ही होगा। अगर वह धर्मनिरपेक्ष नहीं है तो वह गणराज्य या लोकतंत्र हो ही नहीं सकता।
भारत की संविधान सभा ने संविधान का ड्राफ्ट तैयार करने की ज़िम्मेदारी बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर को दी। इतिहास गवाह है कि बाबा साहेब कांग्रेस पार्टी के सदस्य नहीं थे और भारत के विभाजन के बाद संविधान सभा में उनकी सीट पाकिस्तान में चली गई थी। लेकिन उसके बाद कांग्रेस पार्टी ने अपने समर्थन से उन्हें दोबारा संविधान सभा में बुलाया। पंडित नेहरू ने उन्हें अपनी सरकार में क़ानून मंत्री बनाया और इस तरह यह सुनिश्चित किया कि हज़ारों साल से वंचित तबके यानी दलित समुदाय का एक प्रसिद्ध व्यक्ति भारत के संविधान का निर्माण करे। असल में पंडित नेहरू महात्मा गांधी की भावना का सम्मान कर रहे थे जिसमें उन्होंने कहा था कि देश का संविधान तो किसी सबसे वंचित तबके के व्यक्ति को ही बनाना चाहिए और मेरी निगाह में इसके लिए डॉक्टर अम्बेडकर सर्वथा योग्य हैं।
भारत का संविधान क़रीब तीन वर्ष तक संविधान सभा में चली लंबी लंबी बहसों, दुनिया भर के संविधान में अपनायी गई सर्वश्रेष्ठ प्रवृत्तियों के अध्ययन और भारत तथा भारत से पहले दुनिया में हुई नागरिक क्रांतियों के मूल्यों को समाहित कर तैयार किया गया। जब संविधान बनकर तैयार हो गया तो पंडित नेहरू और बाबा साहेब अंबेडकर दोनों ने एक बात ज़ोर देकर कही है कि अगर संविधान के अनुसार देश को चलाने वालों की नीयत ठीक न हो तो अच्छे से अच्छा संविधान भी काग़ज़ का टुकड़ा ही साबित होगा।
दुर्भाग्य से आज भारत उसी चेतावनी के दायरे में पहुँच गया है जो बाबा साहेब अंबेडकर ने व्यक्त की थी। भारतीय जनता पार्टी और RSS भारतीय संविधान में आस्था नहीं रखते और वे इस पर हमला करने की कोशिश करते हैं। मैंने भी हमेशा यही कहा है कि अच्छे से अच्छा संविधान भी अगर ग़लत हाथों में चला जाए तो क्या होगा? असल में इस ख़तरे के प्रति संविधान निर्माता सचेत थे इसलिए पंडित नेहरू ने लोकतंत्र को सिर्फ़ चुनी हुई सरकार के हाथों में ही नहीं सौंपा बल्कि उसके साथ लोकतांत्रिक संस्थानों का एक पूरा ढांचा खड़ा किया ताकि संविधान विरोधी लोग भी अगर सत्ता में आ जाएं तो उनके लिए संविधान और लोकतंत्र पर हमला करना बहुत आसान न रहे। इसलिए लोकतंत्र में विभिन्न स्तंभ और स्वायत्त संस्थाएं बनायी गई।
लोकतंत्र के स्तंभ
सामान्य तौर पर भारतीय लोकतंत्र के तीन बुनियादी स्तंभ माने जाते हैं- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। इसके साथ ही आम चलन में पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। अगर आप ग़ौर से देखें तो पिछले 11 वर्षों में लोकतंत्र के इन चारों स्तंभों पर ज़बरदस्त हमले हुए हैं। पहले स्तंभ विधायिका का काम होता है क़ानून बनाना और यह क़ानून संसद के दोनों सदन लोक सभा तथा राज्य सभा में बनाए जाते हैं।
पंडित नेहरू के समय से ही परंपरा रही एक क़ानून बनाने में बहुमत को थोप देने की बजाय विपक्ष को सुना जाए, संवाद किया जाए और अधिकतम लोकहित का क़ानून बनाया जाए। लेकिन मोदी सरकार ने संवाद को कोई स्थान नहीं दिया और बहुमत के ज़ोर पर क़ानून थोपने की कोशिश की। मोदी सरकार यहीं तक नहीं रुकी और जिन कानूनों को पास करने के लिए उसके पास राज्यसभा में बहुमत नहीं था, उसे उसने वित्त विधेयक के रूप में पेश किया ताकि राज्य सभा में ऐसे विधेयक को पास कराने की अनिवार्यता ही न बचे। जहाँ तक कार्यपालिका का सवाल है तो ऐसे लोगों को भी मंत्री बनाया गया जिनका सार्वजनिक जीवन भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप नहीं है।
कार्यपालिका का एक बहुत बड़ा अंग सरकारी मशीनरी होती है और मोदी सरकार ने महत्वपूर्ण पदों पर लेटरल एंट्री कर पार्टी की विचारधारा से जुड़े लोगों को उन पदों पर बैठा दिया। इस तरह से प्रतियोगिता के माध्यम से योग्य व्यक्तियों के लिए उच्च पदों के दरवाज़े बंद कर दिए गए साथ ही व्यावहारिक रूप से आरक्षण का प्रावधान भी समाप्त कर दिया गया। अगर न्यायपालिका की बात करें तो आप देखेंगे कि कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष तरीक़े से न्यायपालिका पर दबाव बनाने की कोशिश की जा रही है। सुप्रीम कोर्ट के चार जजों का प्रेस कॉन्फ़्रेन्स कर न्यायपालिका के कार्य में बाधा डालने का आरोप लगाना भारत में स्वतंत्र न्यायपालिका के इतिहास का सबसे बड़ा काला अध्याय है।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा जब यह फ़ैसला किया गया कि भारत के निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति में भारत के चीफ़ जस्टिस को भी शामिल किया जाएगा तो सरकार ने रातोरात यह फ़ैसला बदल कर के बता दिया कि न्यायपालिका पर भी हमला करने से उसे गुरेज़ नहीं है। जहाँ तक पत्रकारिता का संबंध है तो इस विषय में ज़्यादा लिखने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि पाठकों को अच्छी तरह से पता है कि गोदी मीडिया जैसा शब्द पिछले 11 वर्ष की देन है। देश में कई महत्वपूर्ण चैनल और अख़बारों के पत्रकारों को अपनी नौकरी से इसलिए हाथ धोना पड़ा क्योंकि वे पत्रकारिता के धर्म का निर्वाह करना चाहते थे।
लोकतंत्र के अन्य स्तंभ
लोकतंत्र में इन चार स्तंभों के अलावा स्वायत्त संस्थाओं का पूरा तंत्र इसलिए बनाया जाता है कि लोकतंत्र सुचारु ढंग से काम कर सके। केंद्रीय निर्वाचन आयोग, भारतीय रिज़र्व बैंक, भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो, लोकपाल, स्वायत्तशासी विश्वविद्यालय, कला, साहित्य और संस्कृति से जुड़ी अकादमियां, खेल और खिलाड़ियों से जुड़ी फेडरेशन यह सब ऐसी स्वायत्तशासी संस्थाएं हैं जो लोकतंत्र का संतुलन बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं और बेधड़क होकर राष्ट्रहित में सरकार से स्वतंत्र रह कर अपना काम करती है।
इनके ऊपर सरकार का दबाव नहीं होता और इनमें से कुछ एजेंसियां अपने अनुसार सरकार की नीतियों की आलोचना करती है और ज़रूरत पढ़ने पर उनकी कमियों और भ्रष्टाचार को सार्वजनिक करती है। लेकिन पिछले कुछ दिनों से पूरा देश देख रहा है कि इन महत्वपूर्ण स्वायत्त संस्थाओं को कमज़ोर करने की लगातार कोशिश की गई है और वहाँ ऐसे व्यक्तियों को बढ़ाया जा रहा है जिनकी प्रतिबद्धता भारतीय लोकतंत्र के बजाए एक दल विशेष की विचारधारा के प्रति है।
लोकतंत्र की रक्षा की चुनौती
इन्ही सारे घटनाक्रम को देखते हुए हमारे नेता राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी ने संविधान की रक्षा का और देश में लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रसार का संकल्प लिया है। कांग्रेस पार्टी किसी भी क़ीमत पर संविधान की रक्षा करेगी, आरक्षण को ख़त्म नहीं होने देगी, जातिगत जनगणना के माध्यम से समाज के सभी वर्गों को शासन प्रशासन में समता मूलक हिस्सेदारी देगी। समाज को धर्म जाति और क्षेत्र के आधार पर बाँटने की कोशिश का पुरज़ोर विरोध करेगी।
राहुल गांधी के नेतृत्व में 2022 में हुई भारत जोड़ो यात्रा इसी दिशा में पहला क़दम थी। और अब जय बापू, जय भीम, जय संविधान अभियान भी देश के संविधान की रक्षा और देश के सबसे कमज़ोर व्यक्तियों के अधिकारों के संरक्षण के उद्देश्य से शुरू किया गया है। देश में जन जागृति के माध्यम से सरकार की निरंकुशता पर अंकुश लगाया जाएगा और उस तरह से लोकतंत्र को फिर से मज़बूत किया जाएगा जिसका सपना महात्मा गांधी, पंडित नेहरू, बाबा साहेब अम्बेडकर, सरदार पटेल और मौलाना आज़ाद जैसे करोड़ों स्वतंत्रता सेनानियों ने देखा था। देश की जनता जागरूक है और हमारे देश में लोकतंत्र की जड़ें गहरी है, नागरिक अपने अधिकारों को पहचानते हैं और ये सब मिलकर लोकतंत्र पर हो रहे हमलों का पुरज़ोर विरोध करेंगे तथा देश में लोकतंत्र की नई सुबह का आग़ाज़ करेंगे। ऐसा मुझे दृढ़ विश्वास है।
(लेखक मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री हैं।)