पटेल को गांधी और नेहरू से अलग कर नहीं सकते

जब हम उनके पूरे व्यक्तित्व को देखते हैं तो उन्हें गांधी और नेहरू के एक भरोसेमंद साथी के रूप में पाते हैं और पाते हैं ऐसे व्यक्ति के रूप में जिसकी मुख्य चिंता भारत की स्वाधीनता थी। उनकी स्वाधीनता में ही एकता निहित थी। मूल रूप से गांधी, नेहरू और पटेल के बीच हिंदू मुस्लिम एकता के प्रश्न पर ज्यादा अंतर नहीं है। जहां गांधी जी के लिए उनकी एकता आजादी की शर्त थी वहीं नेहरू, आजादी और एकता को तराजू के पलड़े में बराबरी पर रखते हुए आखिर में आजादी के हित में झुक जाते हैं। पटेल के लिए आजादी पहले नंबर पर आती थी और वे मानते थे कि जब तक अंग्रेज हैं तब तक हिंदू मुस्लिम एकता में वे रोड़ा डालते ही रहेंगे इसलिए पहले उन्हें जाना चाहिए। पटेल एकता के विरोधी नहीं थे, वे हिंदुओं और मुसलमानो को बराबर मानते थे। लेकिन मुस्लिम लीग की राजनीति और सांप्रदायिक विभाजन के कारण उनका विश्वास हिल गया था। इसलिए वे हिंदू नेताओं के बीच ज्यादा सहज रहते थे।  

Updated: Nov 01, 2020, 12:07 AM IST

Photo Courtesy: Getty Images
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सरदार पटेल की जयंती (जन्म: 31अक्तूबर 1875) पर उनका स्मरण और मूल्यांकन किया जाना जरूरी है। साथ ही जरूरी है उनके व्यक्तित्व को सांप्रदायिक शक्तियों से बचाना। वे क्या थे, उन्होंने हिंदुओं के पक्ष में और मुसलमानों के विरुद्ध क्या क्या कदम उठाए इस पर तरह तरह की व्याख्याएं मौजूद हैं। देश की एकता और हिंदुओं के प्रति उनके झुकाव के कारण नरेंद्र मोदी की सरकार ने सरदार सरोवर के किनारे `स्टैच्यू आफ यूनिटी’ नाम से उनकी मूर्ति भी स्थापित कर दी। लेकिन इतना करने से वे हिंदू राष्ट्र के पैरोकार और स्वप्न दृष्टा नहीं बन जाते। उन्होंने ही हिंदू राष्ट्र को एक खतरनाक विचार बताया था।

देश के सांप्रदायिक विभाजन की जिन परिस्थितियों में सरदार वल्लभभाई पटेल अपने खराब स्वास्थ्य के बावजूद देश को जोड़ने के काम में लगे थे, उसमें उनके कई वक्तव्यों और निर्णयों पर सवाल उठ सकते हैं। लेकिन जब हम उनके पूरे व्यक्तित्व को देखते हैं तो उन्हें गांधी और नेहरू के एक भरोसेमंद साथी के रूप में पाते हैं और पाते हैं ऐसे व्यक्ति के रूप में जिसकी मुख्य चिंता भारत की स्वाधीनता थी। उनकी स्वाधीनता में ही एकता निहित थी। मूल रूप से गांधी, नेहरू और पटेल के बीच हिंदू मुस्लिम एकता के प्रश्न पर ज्यादा अंतर नहीं है। जहां गांधी जी के लिए उनकी एकता आजादी की शर्त थी वहीं नेहरू, आजादी और एकता को तराजू के पलड़े में बराबरी पर रखते हुए आखिर में आजादी के हित में झुक जाते हैं। पटेल के लिए आजादी पहले नंबर पर आती थी और वे मानते थे कि जब तक अंग्रेज हैं तब तक हिंदू मुस्लिम एकता में वे रोड़ा डालते ही रहेंगे इसलिए पहले उन्हें जाना चाहिए। पटेल एकता के विरोधी नहीं थे, वे हिंदुओं और मुसलमानो को बराबर मानते थे। लेकिन मुस्लिम लीग की राजनीति और सांप्रदायिक विभाजन के कारण उनका विश्वास हिल गया था। इसलिए वे हिंदू नेताओं के बीच ज्यादा सहज रहते थे।  

इसलिए कई बार लगता है कि स्वाधीनता के इस महान योद्धा को लोहे की एक मूर्ति में सीमित करके उन्हें सिर्फ एकता से जोड़ देना उचित नहीं है। आजकल जिस तरह एकता के पैरोकार स्वाधीनता को कुचल रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि लोहे की मूर्ति बनाकर पटेल को स्वाधीनता का विरोधी सिद्ध किया जा रहा है। उससे भी बड़ी दिक्कत है सरदार पटेल और नेहरू को एक दूसरे के दुश्मन के रूप में प्रस्तुत करना। तकरीबन 34 साल तक एक दूसरे के अनन्य साथी रहे नेहरू और पटेल में मतभेद थे और कई बार वे गहरे भी हो जाते थे। लेकिन जहां राष्ट्र निर्माण की बात आती थी वहां उनके बीच किसी प्रकार का सत्ता संघर्ष आड़े नहीं आता था। 
महात्मा गांधी के निधन के बाद सरदार पटेल की एक टिप्पणी गांधी और उनके साथियों के रिश्तों को बहुत सुंदर तरीके से और समझ में आने वाले रूपक के साथ सामने रखती है। पटेल ने गांधी को श्रद्धांजलि देते हुए कहा था, `` अब जबकि गांधी जी चले गए हैं तो उनके सहयोगियों और शिष्यों को क्या करना चाहिए?  उनमें कोई ऐसे विलक्षण चरित्र और क्षमता वाला नहीं है जो उनकी जगह ले सके। उनके अनुयायी वास्तव में कमजोर हैं और उनमें बहुत सारी खामियां हैं। उनके सहयोगियों में न तो वैसी मधुरता है और न ही वैसा पूर्ण नियंत्रण है। राजगीर यह दावा नहीं कर सकता कि उसके पास वास्तुशिल्प तैयार करने की क्षमता है। फिर भी उसे वास्तुविद(आर्कीटेक्ट) के नक्शे के अनुरूप किसी इमारत का निर्माण करने में कोई दिक्कत नहीं होती।’’
किसान परिवार से आए सरदार पटेल अपनी देशी भाषा में बहुत कुछ गए। एक तरह से उन्होंने स्वीकार किया कि महात्मा गांधी में एक देश और सभ्यता का नक्शा बनाने की जो क्षमता थी वह उनके किसी अनुयायी और साथी में नहीं थी। बाकी लोग राजगीर की तरह गांधी के नक्शे के आधार पर राष्ट्र की इमारत को खड़ा कर रहे थे। दिक्कत यह थी कि गांधी ने भारतीय उपमहाद्वीप और विश्व सभ्यता को दिशा देने वाले देश का जो नक्शा बनाया था उसे अंग्रेजों और जिन्ना ने मिलकर फाड़ डाला था। अब सरदार पटेल और नेहरू के पास उस फटे हुए नक्शे को लेकर राष्ट्र की इमारत खड़ी करने की चुनौती थी और उसी वजह से उन्हें कई बार गहरे और तीखे मतभेदों का सामना करना पड़ रहा था। अगर उन्हें वह नक्शा मुकम्मल मिला होता तो शायद उनमें वैसा मतभेद नहीं होता।
यह सरदार की विनम्रता थी कि वे अपने को आर्किटेक्ट नहीं मिस्त्री मानते थे लेकिन अगर वे मिस्त्री भी थे तो धुन के बहुत पक्के मिस्त्री थे जो फटे हुए नक्शे को भी लेकर इमारत खड़ी करने का माद्दा रखते थे। हालांकि यह कहने पर किसी को कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि जब 15 जनवरी 1942 को महात्मा गांधी ने वर्धा के सेवाग्राम आश्रम में कांग्रेस कमेटी की बैठक में यह घोषित किया, `` जैसा कि मैं हमेशा कहता आया हूं न तो राजाजी, न ही सरदार वल्लभभाई पटेल बल्कि जवाहरलाल मेरे उत्तराधिकारी होंगे।’’ तब वे जानते थे कि जवाहरलाल में एक मिस्त्री के गुण भले न हों लेकिन एक आर्किटेक्ट के गुण हैं। वे चिंतनशील हैं और एक नए भारत का खाका बना सकते हैं गांधी के न रहने पर। यही वजह थी वर्धा की उस मीटिंग में सरदार पटेल, आजाद, खान अब्दुल गफ्फार खान और राजाजी भी थे जो कुछ नहीं बोले। नेहरू मसनद पर ढीले ढाले होकर आराम से बैठे थे लेकिन गांधीजी की इस घोषणा के बात थोड़ा तन कर बैठ गए। अगर महात्मा गांधी के इन दो मित्रों की तुलना करनी हो तो कहा जा सकता है कि सरदार पटेल कर्ममार्गी हैं और जवाहर लाल ज्ञानमार्गी हैं।  
महात्मा गांधी, सरदार पटेल और पंडित जवाहर लाल नेहरू के रिश्तों को समझने के लिए किशोरलाल मशरूवाला का यह रूपक काफी मदद करता है। वे कहते हैं, `` मेरी समझ में गांधी और पटेल का रिश्ता भाई का था। गांधी बड़े भाई थे और पटेल छोटे भाई। जबकि गांधी और नेहरू का रिश्ता पिता और पुत्र का था।’’ जाहिर है गांधी पटेल से सलाह लेते थे और नेहरू से अपनी बातें लागू करवाते थे। नेहरू से गांधी के मतभेद भी होते थे लेकिन उत्तराधिकार तो बेटे को ही जाता है और वैसा हुआ भी। 
सरदार पटेल को न तो कम्युनिस्टों की नजर से देखकर उन्हें गैर बौद्धिक, कम पढ़ा लिखा और सांप्रदायिक बताना उचित है और न ही संघियों की नजर से देखते हुए नेहरू के कट्टर दुश्मन और हिंदू राष्ट्र का हिमायती बताना ठीक है। हालांकि यह दोनों नजरिए उन्हें वहीं ले जाते हैं जहां संघ परिवार उन्हें ले जाना चाहता है। यानी वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रति हमदर्दी रखते थे, कम्युनिस्टों और समाजवादियों से चिढ़ते थे और उनका आखिरी उद्देश्य भारत को हिंदू राष्ट्र ही बनाना था। यह भी प्रचारित किया जाता है कि उन्होंने सोमनाथ मंदिर के निर्माण की अनुमति देकर अपनी हिंदू निष्ठा साबित कर दी थी। 
सरदार पटेल को जिन उपबल्धियों के कारण बहुत सराहा जाता है, वे हैं 565 रियासतों को भारत में मिलाने का काम। इस बारे में मशहूर इतिहासकार एजी नूरानी लिखते हैं कि यह काम दो चरणों में हुआ। पहले चरण में जूनागढ़, कश्मीर और हैदराबाद छोड़कर 562 छोटी रियासतें 15 अगस्त 1947 तक भारत में शामिल हो गई थीं। यह काम पटेल से ज्यादा माउंटबेटन और प्रशासनिक अधिकारी वीपी मेनन की सक्रिय भूमिका से हुआ। मेनन पटेल को जानकारी देते रहते थे। इस बारे में पटेल और माउंटबेटन की एक वार्ता का हवाला देते हुए वे लिखते हैं कि सरदार ने वायसराय से कहा, `` मैं आपका प्रस्ताव स्वीकार करने को तैयार हूं, बस आप मुझे सेब की पूरी टोकरी दे दीजिए।’’  माउंटबेटन ने कहा, `` आपका मतलब? ’’ पटेल ने कहा, `` मैं 565 सेबों की टोकरी खरीदूंगा। अगर दो तीन सेब नहीं हुए तो सौदा रद्द।’’  इस पर माउंटबेटन ने कहा, `` इस सौदे को मैं पूरा तो नहीं स्वीकार कर सकता पर कोशिश करूंगा। अगर मैं आपको 560 सेबों वाली टोकरी दूं तो क्या आप खरीदेंगे? ’’ इस पर पटेल ने कहा, `` कोशिश करूंगा।’’

इसमें कोई दो राय नहीं कि जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग ने जिस तरह सांप्रदायिक उन्माद फैलाकर देश का विभाजन करवाया उसके बाद सरदार पटेल वह नहीं रह गए थे जो वे 1937 के पहले थे। उनका मुस्लिम लीग से तो विश्वास उठ ही गया था लेकिन अन्य मुस्लिम नेताओं पर भी वे संदेह करने लगे थे। इसमें मौलाना आजाद पर भी उनके संदेह के कुछ उदाहरण हैं। लेकिन यह कह देना कि वे भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते थे यह उचित नहीं है। गांधी जी ने एक बार उनसे कहा कि वे उर्दू पढ़ें, तो पटेल ने कहा कि यह मिट्टी का दिया अब टूटने के करीब है तब यह उर्दू सीख कर क्या करेगा ? गांधी जी ने कहा कि इससे आप मुसलमान नेताओं को समझ सकेंगे और उन्हें समझा सकेंगे। पटेल ने कहा कि आप और मौलाना जैसे विद्वान हैं लेकिन उन पर क्या असर पड़ रहा है। धर्म के ज्ञान के बारे में पटेल कमजोर थे। उन्होंने गीता, रामायण और महाभारत जरूर पढ़ी थी लेकिन बाइबल और कुरान नहीं पढ़ी थी। एक बार उन्होंने महादेव देसाई से पूछा कि यह विवेकानंद कौन थे, तब उन्होंने उन्हें विवेकानंद पर रोम्यां रोला की जीवनी भेंट की। 
सरदार पटेल के चरित्र को संतुलित तरीके से पकड़ने की कोशिश दो विद्वानों ने की है जिनका उल्लेख करना यहां आवश्यक है। एक हैं डा रफीक जकारिया और दूसरे हैं राजमोहन गांधी। डा जकारिया भारतीय विद्या भवन से प्रकाशित अपनी पुस्तक ` सरदार पटेल एंड इंडियन मुस्लिम्स ’ में लिखते हैं, `` जब 1949 में अयोध्या में मस्जिद के परिसर में रामलला की प्रतिमा रात के अंधेरे में स्थापित की गई तो पटेल ने तत्कालीन मुख्यमंत्री पंडित गोविंद बल्लभ पंत को कड़ा पत्र लिखा। उन्होंने कहा कि यह विवाद बहुत गलत समय पर उठा है। उत्तर प्रदेश की हालत नाजुक है। इस तरह के विवादों को शक्ति के बल पर नहीं निपटाया जाना चाहिए। कानून और व्यवस्था की शक्ति को शांति कायम करने के लिए काम करना चाहिए। ......दोनों समुदायों के बीच पारस्परिक सद्भाव कायम रहना चाहिए।’’

सरदार पटेल सांप्रदायिक नहीं थे इसका बड़ा प्रमाण इस बात से मिलता है कि उन्होंने धर्म और अल्पसंख्यक समुदाय के मौलिक अधिकारों को सारी अड़चनों के बावजूद संविधान सभा से पास करवाया। वे अल्पसंख्यकों और मौलिक अधिकारों की सलाहकार समिति के अध्यक्ष थे। उनके दो सहयोगी केएम मुंशी और पुरुषोत्तम दास टंडन नहीं चाहते थे कि अल्पसंख्यको को धर्म के प्रचार का अधिकार मिले, उन्हें अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति के संरक्षण और शैक्षणिक संस्थाएं चलाने का हक मिले। विशेष तौर पर धर्म के प्रचार के अधिकार को लेकर तो मुंशी और टंडन बहुत भड़के हुए थे। उनका कहना था कि यह तो धर्म परिवर्तन को बढ़ावा देगा। जबकि अल्पसंख्यक समुदाय के नेताओं का कहना था कि उसके बिना तो धर्म के अधिकार का कोई मतलब ही नहीं है। वे नेहरू से मिलने गए लेकिन नेहरू ने कहा कि इस बारे में वे पटेल से बात करें।

पटेल ने सबकी बात सुनी और बाद में अपनी ताकत लगाकर धर्म के प्रचार का अधिकार और भाषा, लिपि और संस्कृति की रक्षा के साथ शैक्षणिक संस्थाएं चलाने का हक अल्पसंख्यकों को दिलवाया। मद्रास हाई कोर्ट में न्यायमूर्ति बशीर अहमद की नियुक्ति से लेकर जोश मलीहाबादी को आजकल का संपादक बनाने जैसे कई फैसले ऐसे हैं जहां पटेल वही कर रहे हैं जो नेहरू चाहते हैं। या हम कह सकते हैं कि नेहरू के धर्मनिरपेक्ष नजरिए और पटेल के नजरिए में कोई अंतर नहीं है। 

पटेल कश्मीर को भारत में शामिल कराने के लिए नेहरू से मतभेद रखते हुए भी सैन्य कार्रवाई की पूरी निगरानी करते हैं और उसे सफल परिणति तक पहुंचाते हैं। लेकिन जब जम्मू में रह रहे महाराजा हरि सिंह और कश्मीर के प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला के बीच मतभेद सुलझता हुआ नहीं देखते और नेहरू उस काम से गोपालस्वामी अय्यंगर को कश्मीर मामलों का मंत्री बना देते हैं तो थोड़ी नाराजगी के बावजूद वे उस काम में हस्तक्षेप बंद कर देते हैं। 
रफीक जकारिया लिखते हैं कि सरदार पटेल हिंदू मुस्लिम एकता कायम करने के गांधी के अभियान में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। यहां तक कि खिलाफत आंदोलन में गांधी के साथ अगर कोई नेता सबसे मजबूती से खड़ा था तो वह थे सरदार पटेल। मोहम्मद अली और शौकत अली से उनकी गहरी मित्रता हो गई थी। गुजरात के मुस्लिम नेता तो उनसे इतने जुड़ गए थे कि पटेल के नेतृत्व में बलिदान की होड़ मची थी।

जब गांधी बारडोली आंदोलन छेड़ने वाले थे तो अब्बास तैय्यब जी चाहते थे कि यह आंदोलन आणंद से हो जबकि सरदार ने उसके लिए बारडोली तय किया। तैय्यब जी चाहते थे कि उन्हें गिरफ्तारी और बलिदान का मौका मिले। बारडोली आंदोलन में मौलाना शौकत अली आए, मौलवी मोहम्मद बलोच आए। यह सब सरदार पटेल के साथ उनके रिश्तों का ही प्रमाण था। एक बार स्वयं सरदार की गिरफ्तारी की विरोध जिन्ना ने केंद्रीय धारा सभा में किया था। पटेल एक बार गुजरात में सभा कर रहे थे तो वहां के पटेलों ने अछूतों को अलग बिठा रखा था और कहा था कि वे चुपचाप बैठे रहें। पटेल यह बात समझ गए और जाकर अछूतों के बीच बैठे। मौका आने पर उन्होंने सभा को वहीं से संबोधित किया। वे पर्दा प्रथा और बाल विवाह के भी विरुद्ध थे और उसके लिए हिंदुओं और मुसलमानों को बराबर कोसते थे।

लेकिन 1937 में मुस्लिम लीग के उग्र रूप धारण करने के बाद पटेल का रुख बदलने लगा। यह बदलाव विभाजन के समय दिल्ली में होने वाले दंगों के समय कुछ ज्यादा ही दिखने लगा था। `इंडिया विन्स फ्रीडम’ में मौलाना अबुल कलाम आजाद बताते हैं कि वे इस बात के चश्मदीद गवाह थे कि किस तरह मुसलमानों को बचाने के सवाल पर पटेल ने गांधी जी को झिड़का था। गांधी ने 13 जनवरी 1948 को उपवास शुरू किया था और पटेल बंबई जा रहे थे। वे गांधी से मिलने आए। तब नेहरू ने कहा कि मैं दिल्ली की स्थिति बर्दाश्त नहीं कर पा रहा हूं। मुसलमानों को कुत्ते बिल्लियों की तरह मारा जा रहा है। स्थिति बर्दाश्त के बाहर है। इस पर सरदार ने कहा कि नेहरू की शिकायत समझ में नहीं आती। वे सरकार में हैं। छिटपुट घटनाएं हैं पर सरकार मुसलमानों को सुरक्षा देने के लिए सारे काम कर रही है। इससे ज्यादा कुछ नहीं किया जा सकता। इस पर गांधी ने कहा कि अपने कानों से जो सुन रहा हूं और आंखों से जो देख रहा हूं उससे कैसे इनकार कर सकता हूं। तब पटेल ने नाराज़ होकर कहा कि आप तो ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे मुसलमानों की हत्याएं मैंने करवाई हैं। गांधी को यह झिड़की देकर पटेल बंबई चले गए जबकि उन्हें मौलाना ने रोका था। 

लेकिन लड़ने झगड़ने के बावजूद महात्मा गांधी और सरदार पटेल एक दूसरे से दूर जा नहीं सकते थे और न ही गांधी उन्हें नेहरू से अलग होने देते। 30 जनवरी शुक्रवार के दिन शाम चार बजे बिड़ला भवन में महात्मा गांधी और सरदार पटेल की आखिरी भेंट हुई। उस समय खुलकर बात हुई। मणिबेन पास ही बैठी थीं। गांधी चरखा कात रहे थे और उनकी बात सुन रहे थे। साढ़े चार बजे मनु गांधी जी के लिए बकरी का दूध, सब्जियां और छिली हुई नारंगी लेकर आईं। गांधी जी भोजन करते रहे और वल्लभभाई उनसे अपने दिल की बात कहते रहे। गांधी ने उनसे कहा कि मंत्रिमंडल में पटेल की मौजूदगी अनिवार्य है और उसी तरह नेहरू को भी होना जरूरी है। गांधी ने कहा कि यह बात मैं जवाहर लाल नेहरू से भी कह चुका हूं। नेहरू और पटेल के बीच किसी तरह की दरार विनाशकारी होगी। गांधी ने कहा कि यह बात वे आज अपनी प्रार्थना सभा के बाद वाली मीटिंग में रखेंगे। यह भी तय हुआ कि वे तीनों लोग (गांधी, नेहरू, पटेल) अगले दिन मिलेंगे। गांधी और पटेल की यह वार्ता इतनी जरूरी थी कि गांधी को समय का पता ही नहीं चला और वे अपनी प्रार्थना में लेट हो गए। जब मणिबेन ने कहा कि बापू अब 5.10 हो चुका है तो दोनों उठे। पटेल अपने घर चले गए और गांधी प्रार्थना सभा की ओर। यह दोनों की आखिरी मुलाकात थी। लेकिन पटेल ने गांधी की वह बात रखी कि तुम्हें नेहरू से अलग नहीं होना है।

पटेल को इस बात का हमेशा अफसोस रहा कि वे बापू की रक्षा नहीं कर सके। गांधी की हत्या के चार हफ्ते बाद ही पटेल को दिल का दौरा पड़ा। उस समय वे बेहोशी की हालत में कह रहे थे कि बापू मुझे बुला रहे हैं। मैं उनके पास जाना चाहता हूं। उसके बाद वे यह भी कह रहे थे कि मैं बापू को बचा नहीं पाया। उसके बाद बीमारी की हालत में भी उन्होंने कई बड़े काम किए जिनमें हैदराबाद जैसी बड़ी रियासत का विलय शामिल है। लेकिन कभी पूरी तरह से स्वस्थ नहीं हो सके। 

पटेल किताबी ज्ञान और चिंतन की परंपरा के व्यक्ति नहीं थे। वे धर्म दर्शन को नहीं समझते थे। वे नेहरू की तरह न तो इतिहासकार थे और न ही राजनीतिशास्त्री। येरवदा जेल में उनकी पढ़ने लिखने की रुचि गांधी ने देख ली थी। जेल में एक बार गांधी ने उनसे पूछा था कि जब आजाद भारत की सरकार बनेगी तो आप उसमें कौन सा मंत्रालय लेंगे तो उनका जवाब था कि भीख मांगने वाला, क्योंकि वह काम वे अच्छी तरह से कर लेते हैं। वे व्यवहार में जीने वाले योद्धा थे और यह मानते थे कि जब तक अंग्रेज भारत में रहेंगे तब तक हिंदू और मुस्लिम एकता नहीं हो सकती। यही बात गांधी भी मानते थे कि पहले अंग्रेज चले जाएं तब हिंदू मुस्लिम सवालों को हम हल कर लेंगे। लेकिन अंग्रेज हल करके ही जाना चाहते थे और आखिरकार उन्होंने जो हल निकाला वह हमारे सामने है। आज पटेल का सम्यक मूल्यांकन जरूरी है। पटेल के गांधी और नेहरू से मतभेदों को बढ़ाकर उनके व्यक्तित्व को फासीवादी खेमे में ढकेलने के खतरे बड़े हैं। इतिहास उन्हें गांधी नेहरू के साथी के तौर पर ही याद करे तो अच्छा रहेगा, उन्हें इन दोनों का शत्रु बनाने का प्रयास खतरनाक है।