जो लोग देश को चुटकुला बनाने में लगे हैं, उनके ख़िलाफ़ भी चुटकुले बनने चाहिए

दुनिया के इतिहास में चुटकुलों ने बड़ी राजनीतिक लड़ाइयां लड़ी हैं, तानाशाहों को शर्मिंदा किया है, नक़ली राष्ट्रवाद की कलई खोली है

Updated: Feb 20, 2021, 12:32 AM IST

Photo Courtesy: The Great Dictator/Video ScreenShot
Photo Courtesy: The Great Dictator/Video ScreenShot

जनरल जिया उल हक़ के पाकिस्तान में एक चुटकुला चलता था। वहां जनरल जिया उल हक़ की तस्वीर के साथ एक डाक टिकट जारी किया गया। कुछ दिन बाद शिकायत आई कि यह टिकट चिपकता ही नहीं है। इसके लिए जांच कमेटी बैठाई गई। कमेटी ने छह महीने बाद रिपोर्ट दी- लोग इसमें थूक उलटी तरफ़ लगाते हैं।

कई बार लगता है, चुटकुलों ने भी बड़ी राजनीतिक लड़ाइयां लड़ी हैं- तानाशाहों को शर्मिंदा किया है। राष्ट्रवाद की कलई खोली है।

एक चुटकुला उन्नीसवीं सदी के जापानी राष्ट्रवाद से जुड़ा बताया जाता है। जापान में किसी घर में एक चोर घुसा। घर के मालिक की नींद टूट गई। उसने राष्ट्रधुन बजा दी। चोर सावधान की मुद्रा में खड़ा हो गया। वह पकड़ा गया। छह महीने बाद सज़ा हुई- चोर को नहीं, घर के मालिक को- इसलिए कि उसने राष्ट्रगान का अपमान किया है।

नाजी जर्मनी के दौर में 'व्हिस्परिंग जोक्स' चलते थे- 'फुसफुसाते हुए चुटकुले। एक चुटकुला कुछ इस तरह था- हिटलर एक पागलख़ाने के दौरे पर गया। सारे मरीज़ कतार में खडे होकर 'हेल हिटलर' का नारा लगा रहे थे। बस किनारे खड़ा एक शख़्स ख़ामोश था। नाराज़ हिटलर ने पूछा कि वह ख़ामोश क्यों है। उसने जवाब दिया- 'बाक़ी लोग दरअसल पागल हैं, मैं पागल नहीं, इस वार्ड का इंचार्ज हूं।'

एक दूसरा चुटकुला भी है। हिटलर और गोरिंग रेडियो बर्लिन के टावर पर खड़े थे। हिटलर ने गोरिंग से कहा, वह कुछ ऐसा करना चाहता है कि सब ख़ुश हो जाएं। बोरिंग ने कहा, वह टावर से छलांग लगा दे। कहते हैं, जिसने यह चुटकुला सुनाया, उसे गोली मार दी गई थी।

इसी कड़ी का एक और चुटकुला है। एक समुद्री जहाज़ में हिटलर, गोएबेल्स और उसके कई संगी-साथी जा रहे थे। अचानक तूफ़ान आया तो लगा कि जहाज डूब जाएगा। लेकिन तूफ़ान पार हो गया। किसी ने लंबी सांस भरी, 'कुछ देर और तूफ़ान रहता तो हममें से कोई नहीं बचता।' जहाज़ के कप्तान ने धीरे से कहा, जर्मनी बच जाता।

भारतीय राष्ट्र-राज्य भी जैसे इन दिनों अपने चुटकुलों और कॉमेडियनों से डरता नज़र आ रहा है। स्टैंड अप कॉमेडियनों से आस्था की चूलें हिल जा रही हैं। इंदौर के कॉमेडियन मुनव्वर फ़ारूक़ी और उसके साथियों को महीने भर से ज़्यादा समय तक जेल में रहना पड़ गया क्योंकि उन्होंने 31 दिसंबर की रात के हंसी-मज़ाक के एक शो में कुछ ऐसे मज़ाक कर डाले जो एक विधायक के बेटे की भावनाओं को आहत कर गए।

कॉमेडियन कुणाल कामरा के ख़िलाफ़ तो सुप्रीम कोर्ट ने अवमानना की कार्यवाही चला रखी है। कुणाल कामरा ने कुछ ट्वीट किए थे जिनमें सुप्रीम कोर्ट को लेकर टिप्पणी की गई। इन ट्वीट्स को अदालत ने अपनी तौहीन माना। कुणाल कामरा से माफ़ी मांगने को कहा। कुणाल ने इससे इनकार कर दिया। बल्कि इसके लिए मना करते हुए उन्होंने जो टिप्पणी की, वह दिलचस्प है। उन्होंने कहा, 'यह मानना कि लोकतंत्र में सत्ता की कोई संस्था आलोचना से परे है, यह कहने जैसा हि कि बिना योजना के घोषित राष्ट्रीय लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मज़दूर ख़ुद अपने घर का रास्ता खोजें....ये खयाल कि मेरे ट्वीट दुनिया की सबसे ताकतवर अदालत की बुनियाद हिला सकते हैं, मेरी क्षमताओं का अतिरंजनापूर्ण मूल्यांकन है।' कुणाल कामरा यहीं नहीं रुके। उन्होंने ये भी जोड़ा कि ये चुटकुले सच नहीं होते, न होने का दावा करते हैं। वे हंसा नहीं पाते तो लोग उन्हें नजरअंदाज़ करते हैं। उनकी इतनी ही उम्र होती है।

कुणाल के इस हलफ़नामे के बाद सुप्रीम कोर्ट ने अपनी सुनवाई टाल दी है। लेकिन मामले की तलवार उनके सिर पर लटकी हुई है।

कहना न होगा कि कॉमेडियन कुणाल कामरा ने वह साहसिक रुख़ अख़्तियार किया जो इस देश के बड़े-बड़े कलाकार और खिलाड़ी नहीं कर पाए। उनके प्रतिरोध ने अदालत का एक चुटकुला बनने से बचा लिया।

वैसे यह सच है कि इस देश के भीतर भी जो कुछ हो रहा है, वह चुटकुले से कम नहीं। किशोर उम्र की लड़कियां- जो कलाकार हैं, मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं, संस्कृतिकर्मी हैं- देशद्रोही और दंगाई बता कर गिरफ़्तार की जा रही हैं। किसानों को आतंकवादी ठहराया जा रहा है। अस्सी पार के बूढ़ों को- जिनके हाथ कांपते है- देश का ख़तरनाक दुश्मन घोषित किया जा रहा है, बुद्धिजीवी और प्रोफ़ेसर शत्रुओं की तरह पेश किए जा रहे हैं। गोबर और गोमूत्र के नाम पर अजीबो-गरीब धारणाओं को वैज्ञानिक निष्कर्ष बताया जा रहा है, वैज्ञानिक अंधविश्वासों पर ताली बजा रहे हैं और आततायियों की आंख में आंसू हैं। वाट्सऐप पर फ़र्ज़ी कहानियां इतिहास बना कर पेश की जा रही हैं और इतिहास बताने वालों की मॉब लिंचिंग हो रही है।

देश और नेता तब बड़े होते हैं जब वे अपनी आलोचनाएं सुनने को, अपने ऊपर मज़ाक सहने को तैयार रहते हैं। लोकतंत्र तब ज़्यादा मज़बूत होते हैं जब वे अपने यहां चल रहे विरोध-प्रदर्शनों को संवेदनशीलता के साथ लेने का अभ्यास विकसित करते हैं। विंस्टन चर्चिल को लेकर भी एक चुटकुला चलता है। किसी शख़्स ने कहा कि ब्रिटेन का प्रधानमंत्री मूर्ख है। उसे गिरफ़्तार कर लिया गया। ब्रिटिश संसद में ख़ूब हंगामा हुआ। चर्चिल ने मजाक में कहा- उसे इसलिए नहीं गिरफ़्तार किया गया है कि उसने प्रधानमंत्री को मूर्ख कहा, बल्कि इसलिए गिरफ़्तार किया गया है कि उसने युद्ध के समय देश का एक गोपनीय राज़ उजागर कर दिया है।

सुनाते-सुनाते एक और चुटकुला याद आ गया। कोई सड़क पर चिल्ला रहा था- प्रधानमंत्री चोर है, प्रधानमंत्री चोर है। एक पुलिसवाले ने उसे पकड़ लिया, तू देश के प्रधानमंत्री को चोर कहता है? उसने कहा, नहीं-नहीं, मैं अपने देश के प्रधानमंत्री को नहीं कह रहा। पुलिसवाले ने उसे दो डंडे लगाए- झूठ बोलता है? मैं नहीं जानता, कौन सा प्रधानमंत्री चोर है?

जो ये चुटकुले नहीं झेल पाते, उनकी मौत के बाद उन पर चुटकुले बनते हैं, फिल्में बनती हैं। चार साल पहले एक फिल्म आई- 'द डेथ ऑफ स्टालिन'- यह बिल्कुल ब्लैक कॉमेडी है। फिल्म एक कन्सर्ट से शुरू होती है जिसे स्टालिन रेडियो पर सुन रहा है। अचानक वह आदेश देता है कि इसकी रिकॉर्डिंग शुरू से उसके पास भेजी जाए। अब फिर से उसी कन्सर्ट के लिए जो तमाशा होता है, वह दिलचस्प है। इसी बीच स्टालिन की मौत हो जाती है। उसके उत्तराधिकारी इसके बाद अपने-अपने दावे मज़बूत करने में जुट जाते हैं। स्टालिन को देखने के लिए कोई डॉक्टर नहीं है, क्योंकि सारे अच्छे डॉक्टर या तो मार डाले गए हैं या रूस से बाहर गए हैं। बेशक, इस फिल्म में सोवियत-विरोधी प्रचार का भी कुछ हिस्सा है, लेकिन यह फिल्म जैसे बहुत सारे लोगों की ओर से स्टालिन से प्रतिशोध लेती है।

हिंदुस्तान के नेताओं को भी याद रखना चाहिए कि वे सबकुछ बदल डालेंगे, तब भी स्मृतियां बची रहेंगी- वे बची रहती हैं, वे उन पर कहानियां, फिल्में और चुटकुले बनाती रहेंगी।

हिंदुस्तान में बीते दो साल में 6,600 से ज़्यादा लोग देशद्रोह के आरोप में जेल में डाल दिए गए। यह चुटकुला नहीं है, तथ्य है, लेकिन किसी चुटकुले से कम नहीं है। इसके पहले जिन लोगों पर देशद्रोह के मुक़दमे चले, उनमें से 2 फ़ीसदी पर ही आरोप तय हो पाए- सज़ा की बात तो दूर। अब जैसे-जैसे देशभक्त बढ़ते जा रहे हैं, वैसे-वैसे देशद्रोही बढ़ते जा रहे हैं। लेकिन इसका विरोध कौन करे, कैसे करे?

अब धूमिल की कविता पंक्तियां भी याद कर लें- 'आख़िर मैं क्या करूं / आप ही जवाब दो? / तितली के पंखों में / पटाखा बांध कर भाषा के हलके में / कौन सा गुल खिला दूं / जब ढेर सारे दोस्तों का ग़ुस्सा / हाशिए पर चुटकुला बन रहा है / क्या मैं व्याकरण की नाक पर रुमाल बांध कर / निष्ठा का तुक विष्ठा से मिला दूं?'

क्या यह वाकई निष्ठा से विष्ठा का तुक मिलाने का समय है?

जो लोग इस देश को चुटकुला बनाने में लगे हैं, उनके ख़िलाफ़ भी कुछ चुटकुले बनने चाहिए।

(फेसबुक पोस्ट से साभार)