मनोवैज्ञानिक नजरिये वाले नेता डॉ. अंबेडकर

डॉ. भीम राव अंबेडकर सिर्फ राजनेता, विधिवेत्ता, राजनीतिज्ञ, समाज सुधारक, संविधान निर्माता, अर्थशास्त्री ही नही, बल्कि एक महान भारतीय मनोवैज्ञानिक के रूप में खड़े नजर आते हैं।

Publish: Apr 15, 2020, 05:51 AM IST

भारतीय नागरिकों के व्यवहार को गहराई से अध्ययन करने और उनके व्यवहार को सही दिशा में बदलाव लाने के कार्य में डॉ. भीमराव अंबेडकर का नाम सर्वोपरि है। मनोविज्ञान मानव व्यवहार का वैज्ञानिक अध्ययन करता है और मनोवैज्ञानिक मानव व्यवहार को वैज्ञानिक तरीके से अध्ययन करके उसमें सुधार करता है। यही कार्य डॉ. भीमराव अंबेडकर ने भी किया, उन्होंने जो संविधान रचा वह अपने आप में भारतीय नागरिकों को लोकतांत्रिक बनाने की थेरेपी है। जिसमें यह निर्धारित किया गया है कि कैसे व्यक्ति को समाज में लोकतांत्रिक व्यवहार करना है और नहीं करने वालों को किस प्रकार दंड देकर या पुरस्कृत करके सुधारा जा सकता है। इस तरह की मनोवैज्ञानिक विधि को व्यवहार परिमार्जन विधि (बिहेवियर मोडिफिकेशन टेक्निक) के रूप में लिया जाता है। इस संविधान को नागरिकों के संज्ञान यानि कॉग्निशन के स्तर पर उपयोग किया ही जाता है। इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि डॉ. अंबेडकर का नजरिया एक मनोवैज्ञानिक का नजरिया था।

डॉ. अंबेडकर ने भले ही मनोविज्ञान को एक विषय के तौर पर औपचारिक शिक्षा के रूप में ग्रहण नहीं किया था, लेकिन उन्होंने भारतीय मूल के जड़ता, रूढ़िवादिता को प्रत्यक्ष रूप से अनुभव किया था। उनके साथ हुए तमाम भेदभाव को सहते हुए और उसको झेलते हुए भारतीय समाज की कुंठित, आक्रमिक, पूर्वग्रहित, असंवेदनशील, समाज विरोधी व्यवहार वाले लोगों के व्यवहार में सुधार लाने के लिए उन्होंने आंदोलनों का सहारा लिया, और बाद में भारतीय संविधान की रचना कर डाली।

डॉ. अंबेडकर के आंदोलनों में उनके मनोवैज्ञानिक होने के गुण दिखाई देते हैं। अम्बेडकर का मानना था कि छुआछूत, गुलामी से भी बदतर है। वह ब्रिटिश की गुलामी के खिलाफ भी लड़ रहे थे और उसके साथ ही भारत की जड़ में बसे छुआछूत से भी लड़ रहे थे। वह ब्रिटिश गुलामी के साथ-साथ जातिगत गुलामी को करीब से महसूस कर रहे थे। जातिगत भेदभाव के कारण ही महाराजा गायकवाड़ के यहाँ सैन्य सचिव के पद का कुछ ही समय में उन्होंने त्याग कर दिया था। जिसका जिक्र अंबेडकर अपनी आत्मकथा "वेटिंग फ़ॉर अ वीजा" में करते हैं। अछूत माने जाने के कारण वह निवेश परामर्श के व्यवसाय में भी सफल नहीं हो पाए थे। वह 1918 में मुंबई में सिडेनहम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स में राजनीतिक अर्थशास्त्र के प्रोफेसर बने थे। वहाँ वे छात्रों के साथ तो सफल रहे, लेकिन अन्य प्रोफेसरों ने उनके साथ पानी पीने के बर्तन को साझा करने पर उनका विरोध किया था। उन्होंने इन घटनाओं के बीच वह मानसिक पीड़ा को सहने, उससे उबरने और उन पीड़ाओं से अन्य नागरिकों को निकालने के लिए कई तकनीकों का उपयोग किया, जो दलितों, शोषितों, वंचितों, महिलाओं के मानसिक तनाव को कम करने में किसी थेरेपी से कम नहीं था। 

उस समय में जब अन्य पत्रिकाओं ने उनके लेखों को प्रकाशित करने से मना कर दिया था तो एसे में अपनी पत्रिकाओं का स्वयं प्रकाशन करने के अलावा उनके पास अन्य कोई विकल्प नहीं बचा था। यह वाकया उस समय की अछूतों, दलितों, शोषितों, पीड़ितों, वंचितों के लिए भारतीयों के मनोदशा को उजागर करता है। उन्होंने 1920 में बम्बई से साप्ताहिक पत्रिका मूकनायक के प्रकाशन की शुरूआत की। मूकनायक जैसा कि नाम से ही इसके भाव को उजागर कर रहा था, मूक यानि जो बोल नहीं सकते। यहाँ मूक का इस्तेमाल अछूतों, दलितों, शोषितों, पीड़ितों, वंचितों आदि के लिए किया गया था, जो अपने शोषण के विरुद्ध बोल नहीं पा रहे थे या बोलते थे तो उसे कोई प्रकाशित नहीं कर रहा था। यह पत्रिका बहुत ही जल्द लोकप्रिय भी हुआ और इसके माध्यम से उन्होंने दलित समाज की व्यथा को उजागर करने की कोशिश की। दलित अधिकारों की रक्षा के लिए, उन्होंने मूकनायक, बहिष्कृत भारत, समता, प्रबुद्ध भारत और जनता जैसी पांच पत्रिकाएं निकाली थी।

डॉ. अंबेडकर ने 1818 में कोरेगांव के युद्ध में मारे गए भारतीय दलित सैनिकों की याद में 1 जनवरी 1927 को जयस्तम्भ नामक स्मारक बनाकर समाज में दलितों को सम्मान दिलाने की कोशिश की थी। महाराष्ट्र के राजगढ़ जिले के महाड़ स्थान पर अंबेडकर की अगुवाई में 20 मार्च 1927 को पहला सत्याग्रह किया गया था, जिसमें दलित समुदायों को सार्वजनिक तालाब से पानी पीने और इसके इस्तेमाल करने का अधिकार दिलाया गया था। इस सत्याग्रह के पीछे के मानसिकता पर गौर किया जाए तो इसके पीछे के मानसिक प्रताड़ना और अंबेडकर का इसके लिए उठाए गए कदम मानसिक प्रताड़ना को कम करने की थेरेपी ही थी। प्रकृति ने जब किसी से भेदभाव नहीं किया है तो मनुष्यों को आपस में इतनी घृणा करना एक प्रकार की मानसिक बीमारी ही तो है। इस तिथि को मौजूदा भारत में सामाजिक सशक्तिकरण दिवस के रूप में मनाया जाता है।

डॉ. अंबेडकर द्वारा ही 2 मार्च 1930 को कालाराम मंदिर सत्याग्रह चलाया गया था, जिसमें उन्होंने 15 हजार दलितों के साथ 6 साल तक मंदिर में प्रवेश के लिए अहिंसात्मक रूप से संघर्ष किया था। इस मानसिक स्थिति को समझने की बात है कि जब ईश्वर सबका है तो उसपर सबका हक़ क्यों नहीं हो सकता? इस सत्याग्रह में उन्होंने महिलाओं को भी मंदिरों में प्रवेश के अधिकार को दिलाने की कोशिश की थी। डॉ. अंबेडकर इस सत्याग्रह को लेकर कहते थे कि यह केवल दलितों को मंदिरों में प्रवेश दिलाने के लिए नहीं बल्कि दलितों को बराबरी से सत्ता में भागीदारी दिलाने की लड़ाई है। वह भारतीय नागरिकों के बीच के छुआछूत की इस खाई को मिटाना चाहते थे, वह भेदभाव के व्यवहार को सुधार कर समानता के साथ जीवन जीने की कला सीखा रहे थे।

डॉ. अंबेडकर ने महिलाओं की दुर्दशा को सुधारने के लिए हिन्दू कोड बिल बनाया, जिसमें पिता की संपत्ति पर बेटी को कानूनी अधिकार दिलाने के लिए जोर दिया गया। सती प्रथा को कानूनी रूप से बंद करवाने के साथ बाल विवाह पर प्रतिबंध लगाने, विधवा पुनर्विवाह पर जोर देने, अंतर्जातीय विवाह को मान्यता देने, महिलाओं को शिक्षा का अधिकार दिलाने में अंबेडकर का महत्वपूर्ण योगदान है। संविधान में इन तमाम जड़ताओं के खिलाफ क़ानून बनाना, यह उनके द्वारा महिलाओं को मानसिक प्रताड़ना से बचाने के लिए मनोवैज्ञानिक थेरेपी ही तो है। इन मुद्दों पर अंबेडकर के विचारों को इन व्यवहारों के पीछे छिपे कारणों पर किये गए व्याख्याओं को अगर समझने की कोशिश करें तो डॉ. भीम राव अंबेडकर सिर्फ राजनेता, विधिवेत्ता, राजनीतिज्ञ, समाज सुधारक, संविधान निर्माता, अर्थशास्त्री ही नही, बल्कि एक महान भारतीय मनोवैज्ञानिक के रूप में खड़े नजर आते हैं।

(लेखिका पुनर्वास मनोवैज्ञानिक हैं।)