द कश्मीर फाइल्स: वैसे फाइलें तो और भी हैं
डिसक्लेमर : "मैंने कश्मीर फाइल्स फिल्म नहीं देखी है और न ही देखूंगा। यह लेख कश्मीर फाइल्स पर सामने आई प्रतिक्रियाओं पर प्रतिक्रिया है। इस लेख का कश्मीर के और भारत के प्रत्येक नागरिक से गहरा संबंध है। यह लेख नफरत की आग को भी लेकर एक टिप्पणी है।"
मनुष्य और उसकी विचारधारा कैसे स्वयं को बौना बनाते हैं, इसका खुला प्रदर्शन आजकल भारत में दिखाई दे रहा है। ऐसा लग रहा है कि यह किसी फिल्म की ‘‘लॉन्चिंग’’ नहीं बल्कि अगले चुनाव के प्रचार की ‘‘लॉन्चिंग’’ है। ‘‘लॉन्चिंग’’ और लिंचिंग दो अलग-अलग शब्द हैं, और इनके अर्थ भी अलग-अलग हैं।
सवाल कश्मीर फाईल्स से उभरें या गुजरात फाइल्स से उभरें, बंगाल फाइल्स से उभरें या दलित फाइल्स से, सवाल सांप्रदायिक फाइल्स से उभरें या जातिवाद फाइल्स से उभरें, सवाल महिला अत्याचार फाइल्स से उभरें या बच्चों के विरुद्ध फाइल से उभरें, सवाल भुखमरी फाइल्स से उभरें या धराशायी स्वास्थ्य सेवा फाइल से, इन सबके उत्तर कोई नहीं खोजना चाहता। हाहाकार सा मचाना ही अब देश की नियति हो गई है। तमाम प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं कश्मीर फाइल को लेकर। जिसमें इस फिल्म में रची-बची हिंसा, क्रूरता, वीभत्सता, सांप्रदायिकता आदि को स्वीकारते हुए भी कहा गया है कि ये फिल्म एक जरुरी फिल्म है, और इसे देखा जाना चाहिए।
इन प्रतिक्रियाओं को पढ़कर एकाएक शोले का वह बेहद रोचक संवाद याद हो आया जिसमें कि वीरु (अमिताभ बच्चन) जय (धर्मेंद) की शादी की बात करने धन्नो (हेमा मालिनी) की मौसी (लीला मिश्रा) को जय के सारे गुण यानी शराब पीना, जुआ खेलना आदि-आदि बताता है, और फिर भी मौसी के शादी के लिए राजी न होने पर मीठी आह भरते हुए जय की तारीफ करता है और निर्याय पर अफसोस जताता है । कश्मीर फाइल्स के साथ भी यही हो रहा है। कहा जा रहा है कि तमाम बुराईयों के बावजूद यह एक अच्छी फिल्म है। है, ना हैरानी वाली बात ?
खैर इन सब फाइलों के अलावा एक और ‘‘कश्मीर फाइल’’ है, जिसकी ओर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। अधिकांश मीडिया का भी | यह फाइल प्रेस काउंसिल आफ इंडिया की एक ‘‘फैक्ट फाइंडिंग समिति’’ (तथ्य तलाशने वाली समिति) ने तैयार की है और इसे केंद्र सरकार को भेज दिया गया है। इस विस्तृत फाइल में उल्लेख है कि, ‘‘जम्मू और कश्मीर क्षेत्र में, खासकर कश्मीर घाटी में समाचार मीडिया का धीरे-धीरे गला दबाया जा रहा है। इसके पीछे स्थानीय प्रशासन द्वारा लगाए जा रहे प्रतिबंध हैं।’’
कमेटी का कहना है कि पत्रकारों को आतंकवादियों से भी खतरा है। यह समिति सितंबर 2021 में काउंसिल के अध्यक्ष न्यायमूर्ति (रि) सी.के. प्रसाद द्वारा गठित की गई थी। इस समिति को जो भी तथ्य वहां मिले हैं, वे बेहद महत्वपूर्ण हैं। लेकिन मीडिया इस पर चुप है। वह अपनी बर्बादी का जश्न मना रहा है (अधिकांश) मीडिया उत्तेजना की ऐसी परिपाटी को जन्म दे रहा है, जिसकी प्रवृत्ति भस्मासुरी ही है।
थोड़ा कश्मीर को समझने की कोशिश कीजिए।चौदहवीं सदी (सन् 1325) में कश्मीर में एक संत कवियित्री हुई लाल द्यद, इन्हें लल्लेश्वरी भी पुकारा जाता है। वे शैव थीं, शिव की आराधक थीं। उनके पद्यों को ‘‘वाख’’ यानी बोलचाल कहा जाता है। उनकी संभवतः सबसे प्रसिद्ध पंक्तियों में से एक है,
शिव सर्वव्यापी हैं और प्रत्येक कण में विद्यमान हैं,
हिंदू और मुसलमान में कभी भेदभाव मत करो,
अगर तुम चतुर और बुद्यिमान हो तो, खुद समझो
इसी में ईश्वर का परिचय छुपा है।
उन्होंने 26 वर्ष की उम्र में संन्यास ले लिया था। इसकी एक वजह थी, ससुराल में उन पर होने वाले अत्याचार। कहते हैं विवाह उनके लिए एक यातना बन गया था। एक बार कड़ी सर्दी में पानी से भरा घड़ा उनके सर पर रखकर फोड़ दिया गया था। तब वे मीलों पैदल चल अपनी माँ के घर पहुंचीं। इस पर उन्होंने लिखा है, ‘‘मेरे पैरों के तलवे का सारा माँस मार्ग के साथ चिमट (चिपक) गया है। किसी एक ने मुझे उस एक का मार्ग दिखाया। जो उसका नाम सुने वह उन्मत्त्त क्यों न हो जाए।" वह जमीन पर चिपक गया माँस, वह अंतहीन त्रासदी, वह अगाध कष्ट लल्लेश्वरी को शिव के पास ले गया और वे उसमें ही समा गई थीं।
इसके करीब 100 वर्षों बाद कश्मीर में एक और महान कवियित्री हुई, हब्बा खातून। उनका जन्म सन् 1554 में हुआ। उन्हें कश्मीर की कोयल भी कहा जाता है। वे मुस्लिम थीं और तपस्वी भी। वे वहां के अंतिम सम्राट युसुफ शान चक की पत्नी थी। अकबर द्वारा उनके पति को गिरफ्तार कर लेने के बाद वे पूरे कश्मीर में घूमती रहीं, गाती रहीं और उन्होंने गाने की जो विधा इजाद की वह ‘‘लोल’’ कहलाती है। वे कहती हैं...
ससुराल में सुखी नहीं, मुझे उबारो
मायके वालों, मेरा कष्ट निवारो,
चर्खा कातते, आँख जो लगी मेरी,
माल टूट गई चर्खे की
सास ने तब बाल मेरे खीचे
मौत सी पीढ़ा हुई, मुझे बचा लो
मायके वालों मेरा कष्ट निवारो।।
कश्मीर की ये दो प्रतिनिधि कवियित्रियां, दो अलग-टलग मजहबों, धर्मों की हैं, लेकिन इनकी भाषा एक है, बोली एक है, लय एक है, सुर एक है, जाहिर है, ये दो नहीं एक ही हैं। क्या कश्मीरी या देश की महिलाओं की फाइल में पिछली 7-8 शताब्दियों में ज्यादा परिवर्तन आया दिखता है ? पर कोई महिला अत्याचार फाइल को देशव्यापी बहस का हिस्सा नहीं बनाएगा। क्योंकि अभी जो ये कश्मीर फाइल्स को भारत की महानतम उपलब्धि बता रहे हैं उन्हें इस महिला फाइल को पढ़ते-पढ़ते शायद सच्चाई समझ में आने लगे और इससे अगला चुनाव प्रचार बाधित हो सकता है।
सुश्री राधा कुमार ने कश्मीर के वर्तमान को लेकर व वहां के इतिहास को साक्षी रख एक अनूठी पुस्तक लिखी है, ‘‘पेराडाइज एट वार ए पोलिटिकल हिस्ट्री आफ कश्मीर’’ मौका लगे और इच्छा हो तो इसे जरुर पढ़ियेगा। उनकी पुस्तक की शुरुआत में है, ‘‘कश्मीर एक गीत’’। इसमें दो गीत या कविता हैं, पहला है निलामाता पुराण से, जो कि छठी से आठवीं शताब्दी के मध्य रचा गया है और दूसरी कविता के रचियता है बाबा दाउद खाकी। जिनका जीवन काल सोलहवी शताब्दी है। दोनों के बीच करीब 1000 वर्षों का अंतर है। ये दोनों कविता अपनी-अपनी तरह से कश्मीर के उद्गम को गा रही हैं। एक बता रहा है देवी उमा भी कश्मीर हैं और दूसरा इसे फूलों का बगीचा बता रहा है और कह रहा है कि यह अल्लाह के दोस्तों और अनुयायियों का घर है।
कश्मीर सबका था और सबका रहेगा, इस भावना से पिछले करीब 3 हजार बरस कश्मीर ने गीत गाते बिताएं हैं। तो, एकाएक क्या हुआ? लोगों के एकाएक आमने - सामने आने के कारणों को खोजने और समाधान के बजाए सत्ता ने दोषारोपण को माध्यम बना लिया गया। इस विवाद पर इस तरह सोचें कि कश्मीरी पंडितों को अपना घर क्यों छोड़ना पड़ा और 130 करोड़ की आबादी वाला देश इतना श्रीहीन कैसे हो गया कि वह अपने ही नागरिकों को न्याय, उनका घर नहीं दिलवा पा रहा है?
याद रखिए समाधान की जिम्मेदारी न अतीत की होती है और न भविष्य की। वह तो वर्तमान की ही होती है, और हम वर्तमान हैं, कश्मीर में अभी जो हो रहा है, वह वर्तमान है, दिल्ली में सरकार जो इस विषय में कुछ नहीं कर रही वह वर्तमान है, धारा 370 का हट जाना व जम्मू कश्मीर का राज्य का स्तर छिन जाना वर्तमान है व इन दोनों के छिन जाने के बाद भी कुछ समाधान की पहल न हो पाना वर्तमान है। कश्मीर फाइल्स नामक फिल्म वर्तमान है, इस फिल्म से फैल रहा द्वैष वर्तमान है, आदि-आदि। तो वर्तमान अगर बेबस है तो भविष्य कैसे दौड़ेगा? वर्तमान घृणा को समाप्त नहीं करेगा तो भविष्य सौहार्दमय कैसे होगा?
वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग ने बड़ी मजेदार बात कही। उन्होंने कहा कि सरकार कश्मीर फाइल्स देखने को कोविड के टीके लगाना जैसा अनिवार्य कर दे। शायद वे ठीक ही कह रहे हैं। भारतीय शासन व्यवस्था की चरमराहट को बुलडोजर की आवाज में सुना जा सकता है। कई मुख्यमंत्री अब कानून के राज की बात न करके बुलडोजर की बात करते हैं। बुलडोजर का चलना, फिर वह अपराधियों के खिलाफ ही क्यों न हो अंततः शासन की असफलता है और समाज की भी असफलता है। घर ढहाना ही अगर समाधान होता तो यूक्रेन में हजारों घर रूस तोड़ चुका है, ध्वस्त कर चुका है, लेकिन समाधान सामने नहीं आ पा रहा है। कश्मीर में भी हल बुलडोजर संस्कृति से नहीं निकल पाएगा। वहां तो शांति का शिकारा ही समाधान ला सकता है। विध्वंस कभी भी सृजन नहीं कर सकता, भले ही इसे सुधार का ही नाम क्यों न दे दिया जाए।
महात्मा गांधी ने सन् 1931 में लंदन में गोलमेज सम्मेलन में ब्रिटिश प्रधानमंत्री के सामने जो भाषण दिया था, उसका अध्ययन करने और उस विचार के अनुरूप कार्य करने से कश्मीर क्या भारत की तकरीबन सभी सामाजिक समस्याओं का हल एक हद तक निकाला जा सकता हैं। अपने विस्तृत संबोधन में एक स्थान पर वे कहते हैं, ‘‘प्रधानमंत्री जी, इस सबके बावजूद मैं साथ में कार्य करने का आधार ढूंढ सकता हूँ, समझौते की भरपूर गुंजाइश है। मैं तो दोस्ती के लिए तरस रहा हूँ। मेरा काम गुलाम बनाने वाले और तानाशाह को बाहर फेक देना नहीं है। मेरा दर्शन मुझे यह करने से रोकता है। कांग्रेस ने इस दर्शन को किसी पंथ का धर्म की तरह नहीं बल्कि एक नीति की तरह अपनाया है। ऐसा इसलिए क्योंकि कांग्रेस मानती है कि यही 35 करोड़ लोगों के लिए सर्वश्रेष्ठ है। 35 करोड़ लोगों को हत्यारे का भाला नहीं चाहिए, उन्हें जहर का प्याला भी नहीं चाहिए, उन्हें तलवार या गोली की जरुरत भी नहीं है। उन्हें केवल अपने आप पर विश्वास करना सीखना होगा, उन्हें ‘‘नहीं’’ कहने की क्षमता विकसित करना होगी। और आज राष्ट्र ‘‘नहीं’’ कहना सीख रहा है।’’
तकरीबन एक शताब्दी बाद आज हम अपने स्वतंत्र देश में अपने ही देशवासियों के समक्ष क्या तलवार, भाला, गोली, लेकर बात करेंगे? अगर एक भारतीय लंदन में तब दुनिया के सबसे ताकतवर व्यक्ति के सामने इतना निडर होकर, जबकि वह गुलामदेश का निवासी है, इतनी दृढ़ता से बात कर सकता है, तो आज हम भारतीय अपनी ही सरकार और अपने ही प्रशासन से ‘‘नहीं’’ क्यों नहीं कह पा रहे हैं ?
कश्मीर समस्या का हल केवल आपसी बातचीत से ही निकल सकता है। दमन दबाता है, समाधान नहीं ला सकता। कश्मीर अतीत में दमन का शिकार हो चुका है। उसका वर्तमान की बहुत सुखद नहीं है। हमें सोचना होगा कि पिछली आधी शताब्दी से कश्मीरी घटनाक्रम लगातार बद्तर क्यों होता जा रहा है ? कश्मीर फाइल्स जैसे फिल्मी प्रयोग अंततः बेहद घातक सिद्ध होंगे। मुख्य समस्याओं से ध्यान बटाने के लिए, गालिब कश्मीर एक अच्छा ख्याल हो सकता है, लेकिन दिल बहलाना ही ध्येय नहीं है | ध्येय या लक्ष्य तो समस्या के समाधान में है और कश्मीरी पंडितों की समस्या, कश्मीर की समस्याओं के समुच्चय का एक छोटा सा हिस्सा भर है। कांटा कभी तलवार से नहीं निकलता, वह तो सुई से निकलता है।
अंत में लालद्यद या लल्लेश्वरी की इन पंक्तियों पर गौर करिए, समाधान बिल्कुल सामने ही दिखेगा, बशर्ते कोई देखना चाहे।
हम ही थे हम ही होंगे
हम ही ने चिरकाल से दौर किए
सूर्योदय और सूर्यास्त का कभी अंत नहीं होता
शिव की उपासना कभी समाप्त नहीं होगी।।