जी भाई साहब जी: शिवराज सिंह ने बधाई वापस क्यों ली, ज्योतिरादित्य सिंधिया की नजर अब कहां
ऐसा क्या हुआ कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने विश्व आदिवासी दिवस पर जनजातीय समुदाय को शुभकामनाएं दी भी और वापस भी ले लीं? इसके पीछे क्या राजनीतिक पेंच हैं? केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के बारे में चर्चा ए आम है कि उनकी नजर अब नई सीट पर है। कौन सी है वह सीट?

आदिवासी वोट बैंक को लुभाने के लिए मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पूरी ताकत लगा दी है। जन जातीय गौरव दिवस, आदिवासी गौरव दिवस मनाने वाली बीजेपी सरकार ने आदिवासी के राष्ट्रपति चुने जाने का सबसे ज्यादा जश्न भी इसीलिए मनाया कि आदिवासी समाज को साधा जा सके। फिर ऐसा क्या हुआ कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने विश्व आदिवासी दिवस पर जनजातीय समुदाय को शुभकामनाएं दी भी और वापस भी ले लीं? इसके पीछे क्या राजनीतिक पेंच हैं?
9 अगस्त को पूरी दुनिया में जन जातीय समुदाय की सुरक्षा और उनके अधिकारों के प्रति जागरूकता के लिए आदिवासी दिवस मनाया जाता था। मध्य प्रदेश में भी पिछले कुछ सालों से यह दिवस मनाया जाता है। 2020 में मुख्यमंत्री बनने के बाद शिवराज सिंह चौहान ने इस दिन ट्वीट किया था। 2022 में भी 9 अगस्त को उनके ट्विटर हैंडल से एक ट्वीट हुआ। इसमें लिखा था, ‘जल, जंगल, जमीन के प्रहरी और सच्चे सेवकों को #WorldTribalDay की हार्दिक बधाई! जनजातीय भाई-बहन मध्यप्रदेश की संस्कृति के संरक्षक एवं संवाहक हैं। आप ही प्रदेश के आधार स्तंभ हैं। आपके हितों और अधिकारों की रक्षा तथा कल्याण के लिए मैं और संपूर्ण मध्यप्रदेश संकल्पित है।’
कुछ ही देर में यह ट्वीट हटा दिया गया। इसके बाद कांग्रेस की ओर से नरेंद्र सलूजा ने ट्वीट किया, ‘आदिवासी वर्ग के प्रति भाजपा की नफ़रत देखिये… शिवराज जी ने अपना ट्वीट डिलीट कर दिया… पहले तो कमलनाथ सरकार द्वारा घोषित “विश्व आदिवासी दिवस” का अवकाश ही बंद कर दिया,फिर इस दिवस को ही मानने से इंकार किया और आज इस दिवस की बधाई देने का पहले ट्वीट किया और बाद में उसे तुरंत हटा दिया।’
ऐसा क्या हुआ कि आदिवासियों का हितैषी साबित करने के लिए हर जतन करने वाले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को अपना ट्वीट वापिस लेना पड़ा? क्यों उन्होंने शुभकामनाएं वापस लेकर कांग्रेस को हमला करने का मौका दे दिया? जब सीएम और समूची बीजेपी आदिवासियों के हित की बात कर रहे हैं तो उनके लिए घोषित दिन बधाई देने से गुरेज क्यों?
गहराई से पड़ताल करेंगे तो इसके पीछे आदिवासियों को लेकर जारी बीजेपी की राजनीति हैं। 2021 के पहले तक 9 अगस्त को ही आदिवासी दिवस मनाया जाता था। मुख्यमंत्री रहते हुए कमलनाथ ने इस दिन सार्वजनिक अवकाश घोषित किया था। 2020 में मुख्यमंत्री बनने के बाद शिवराज सिंह चौहान ने यह छुट्टी जारी रखी। आयोजन भी किए गए। मगर 2021 में सूरत बदल गई। मप्र सरकार ने 9 अगस्त का अवकाश ऐच्छिक कर दिया। तथा बिरसा मुंडा को प्रतीक बनाते हुए उनकी जयंती पर जन जातीय गौरव दिवस मनाने की घोषणा कर दी। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गृहमंत्री व अमित शाह के आतिथ्य में भोपाल व जबलपुर में बड़े आयोजन ही नहीं किए बल्कि रेलवे स्टेशन सहित कई स्थानों के नाम भी बदल दिए थे।
बीजेपी आदिवासियों के साथ दिखने के लिए अपने प्रतीक व दिवस बना रही है। ऐसे में यह कैसे बर्दाश्त हो सकता था कि मुख्यमंत्री के ट्वीट से विश्व आदिवासी दिवस पर बधाई संदेश जाए? उन्हें बिरसा मुंडा दिवस पर आदिवासी विकास की प्रतिबद्धता दिखानी है। इस कारण ट्वीट हटा दिया गया।
बीजेपी का आदिवासियों के हित में दिखने और होने का यह संघर्ष इसलिए है क्योंकि राज्य में आदिवासियों की आबादी 2 करोड़ से ज्यादा है, जो 230 में से 84 विधानसभा सीटों पर जीत और हार को प्रभावित करते हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में इस समुदाय ने भाजपा को बड़ा नुकसान पहुंचाया था। पार्टी अब वोट बैंक को साधने की रणनीति पर काम कर रही है। इसलिए साथ हों या नहीं, साथ दिखने के लिए भी बिरसा मुंडा जयंती का इंतजार है।
... और झगड़ पड़े आदिवासी नेता, किसका साथ दे, किसे छोड़ें
आदिवासियों के साथ दिखने और होने का अंतर ही नहीं बीजेपी के लिए आदिवासी नेताओं का संघर्ष भी सिरदर्द बन गया है। एक तरफ पार्टी आदिवासी वोट बैंक साध रही है। पार्टी के बड़े नेता आदिवासी वेशभूषा में कार्यक्रमों में शामिल हो कर आदिवासियों के करीब होना दिखा रहे हैं मगर मैदान में आरोप है कि आदिवासी नेता को बीजेपी के आदिवासी नेता ने ही हरवा दिया है।
मामला कुछ यूं है कि डिंडोरी में जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव हारने वाली पूर्व मंत्री ओमप्रकाश धुर्वे की पत्नी ज्योति धुर्वे ने केंद्रीय मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते को अपनी हार का जिम्मेदार ठहराया है। प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा से मिलने भोपाल पहुंचे डिंडोरी के नेताओं ने केंद्रीय मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते, जिलाध्यक्ष नरेंद्र राजपूत और 13 पदाधिकारियों के खिलाफ भितरघात और कांग्रेस को जितवाने की शिकायत की है। ज्योति धुर्वे ने शिकायत की है कि छह सदस्य साथ थे। कांग्रेस के दो सदस्य समर्थन का बोल चुके थे। पार्टी का अध्यक्ष बनना तय था पर कुलस्ते ने सदस्यों को 5 दिन तक दिल्ली अपने पास बुला लिया। क्रॉस वोटिंग हो गई।
केंद्रीय मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते ने कहा कि वो तो अपने कर्मों से हारे। उनके साथ तीन आदमी भी नहीं थे। आप किसी से बात ही नहीं करोगे। उनसे ये भी नहीं कहोगे कि वोट देना, तो कोई क्या करेगा। मेरी प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा से इस विषय पर बात हो गई है।
मंत्री कुलस्ते का बयान तो चौंकाने वाला है। वे कह रहे हैं कि बीजेपी के राष्ट्रीय सचिव और पूर्व मंत्री ओम प्रकाश धुर्वे का इतना भी प्रभाव नहीं है कि उनके साथ तीन साथी भी हों। यानि उनकी पार्टी के राष्ट्रीय नेता की मैदान में पकड़ नहीं है। बहरहाल, पार्टी नेतृत्व आदिवासी नेताओं के इस आपसी झगड़े से असमंजस में हैं कि किसका साथ दे और किसे छोड़े। लेकिन इस झगड़े में आदिवासियों को लुभाने के बीजेपी के जतन को झटका तो लगा ही है।
ग्वालियर किसका, महल की दावेदारी या बीजेपी की सत्ता
ग्वालियर इन दिनों मध्य प्रदेश की राजनीति में चर्चा में है। बीजेपी के वर्चस्व तथा केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया का प्रभाव क्षेत्र होने के बाद भी नगरीय निकाय चुनाव में बीजेपी की महापौर प्रत्याशी हार गईं। इस हार का असर दो केंद्रीय मंत्रियों ज्योतिरादित्य सिंधिया और कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर का घटता प्रभाव माना गया। बात जब निगम अध्यक्ष के चयन की आई तो बीजेपी के इन दो नेताओं ने खास सतर्कता बरती।
ग्वालियर नगर निगम में सभापति पद पर अपना प्रत्याशी जिताने के लिए रणनीति और बाड़ेबंदी की गई। सभापति के चुनाव से पहले बीजेपी ने अपने सभी 34 पार्षदों को ग्वालियर से बस में बैठाकर दिल्ली में एक होटल में ठहराया, जहां पर केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और ज्योतिरादित्य सिंधिया ने सभी पार्षदों के साथ मंथन कर सभापति की सीट हासिल करने के लिए रणनीति तैयार की। इस रणनीति के बाद भी बीजेपी में फूट हो गई। बीजेपी के प्रत्याशी मनोज तोमर 34 वोट लेकर सिर्फ 1 वोट से जीते जबकि कायदे से जीत का अंतर 10 वोट होने थे। बीजेपी में क्रॉस वोटिंग हुई और कांग्रेस की उम्मीदवार लक्ष्मी गुर्जर को 33 वोट मिले जबकि कांग्रेस के 25 पार्षद ही हैं।
दोनों नेता मिल कर यह जीत कांग्रेस के पंजे से छिन कर ले आए मगर अब लोकसभा सीट के लिए दोनों के बीच वर्चस्व की लड़ाई के संकेत हैं। माना जा रहा है कि 2014 में ग्वालियर से सांसद रहे मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर 2024 में फिर ग्वालियर से ही चुनाव लड़ना चाहते हैं। उन्होंने 2019 में ग्वालियर के बदले मुरैना से लोकसभा चुनाव लड़ा था। बताते हैं कि विधानसभा चुनाव में ग्वालियर क्षेत्र की विधानसभा सीट पर बीजेपी प्रत्याशियों के हार जाने के बाद तोमर ने अपनी सीट बदलने का फैसला किया था। अब वे 2024 में ग्वालियर सीट पर लौटना चाहते हैं।
दूसरी तरफ, नागरिक उड्डयन मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया गुना से कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में 2019 का लोकसभा चुनाव हार चुके हैं। अभी वे राज्यसभा सदस्य हैं। लोकसभा चुनाव में कभी अपने समर्थक रहे केपी यादव से मिली पराजय को सिंधिया भूले नहीं है। कयास हैं कि वे इस बार गुना की जगह महल की परंपरागत सीट ग्वालियर से दावेदारी कर सकते हैं। जहां से उनकी बुआ यशोधरा राजे 2009 में बीजेपी की ओर से सांसद चुनी जा चुकी हैं।
टिकट की जुगाड़ में लगे नेताओं के लिए यह समीकरण खास मायने रखते हैं। देखना होगा कि महल का असर कामयाब होगा या बीजेपी अपने परंपरागत समीकरण के अनुसार दावेदार खड़ा करती है।
क्या अशोक मर्सकोले का विरोध क्या बनेगा नजीर
मंडला में जो कुछ हुआ उससे बीजेपी और कांग्रेस दोनों के लिए ही राजनीतिक अर्थ छिपे हैं। मंडला में कांग्रेस विधायक डॉ. अशोक मर्सकोले ने अवैध वसूली के खिलाफ मोर्चा खोला। परिवहन अमले के नाम पर वसूली की शिकायत पर उन्होंने मौके पर जाकर बिना वर्दी के वसूली कर रहे अधिकारियों को फटकारते हुए भगा दिया। विधायक अशोक मर्सकोले ने बताया कि RTO जबलपुर के सब इंस्पेक्टर और कर्मचारियों के पास ना तो मांगने पर आईडी कार्ड दिखाया गया और ना ही वे किसी तरह से देखने में परिवहन विभाग के कर्मचारी दिखाई दिए।
इस घटना का वीडियो वायरल हुआ तो राजनीतिक तंज भी हुए। प्रदेश भर में परिवहन विभाग की जांच और अवैध वसूली के आरोप तेज हो गए। दूसरी तरफ, वसूली अमले को फटकार कर भगाने से विधायक की क्षेत्र में वाहवाही हो गई। बीजेपी के लिए चिंता की बात यह कि उसकी सरकार में भ्रष्टाचार के मामले ही नहीं बढ़ रहे हैं बल्कि अवैध वसूली की शिकायत से जनता परेशान हो चुकी है।
कांग्रेस के विधायकों के लिए डॉ. मर्सकोले ने एक नजीर पेश कर दी है कि जनता यदि परेशान है और सदन में बात नहीं कह पा रहे हो तो कम से कम मैदान में उतरो और आवाज उठाओ। आखिर, जनता को राहत देने का काम करेंगे तो ही तो जीत का आधार बना रहेगा। देखना होगा कि कौन इससे कैसा संदेश लेता है।