संतोष रूपी कृपाण से करें संसार शत्रु पर प्रहार
अपना मन अगर संतुष्ट हो जाय तो कहीं किसी भी प्रकार का दुःख नहीं है और यदि मन संतुष्ट नहीं हैं तो सब जगह दुःख ही दुःख
 
                                        अब प्रश्न ये है कि प्रारब्ध कैसे बनता है? इसको यूं समझ लिया जाए कि जैसे आपके घर में अनाज है। किसान के घर में अनाज रखा है, वह संचित है। या आपके पास जो पैसा रखा है वह संचित है। उसमें से जो कुछ हमने खाने के लिए निकाल लिया, तो वो प्रारब्ध हो गया। और कुछ व्यापार में लगा दिए, तो वो हो गया क्रियमाण।
कर्म फल तीन प्रकार का होता है। संचित, क्रियमाण और प्रारब्ध। तो होता ये है कि जब प्राणी के मृत्यु का समय आता है तो उसके अनंत जन्मों के संचित कर्म उस समय उपस्थित हो जाते हैं। और सभी कर्म ये चाहते हैं कि हमको फल देने का अवसर दिया जाए। लेकिन भगवान उनमें से कुछ प्रबल कर्मों को चुनकर ये संकल्प कर लेते हैं कि प्राणी को इन कर्मो के अनुसार अमुक योनि में उत्पन्न होकर यह प्राणी सुख दुःख का अनुभव करे। ये जो भगवान का संकल्प है उसी का नाम प्रारब्ध है। तो भगवान का संकल्प उनके साथ जुड़ गया। इसलिए वे प्रारब्ध बड़े प्रबल हो जाते हैं। यहां तक कि ज्ञान से सभी कर्मों का नाश हो जाता है, लेकिन प्रारब्ध का नाश नहीं होता। ज्ञानी को भी अपने प्रारब्ध का फल भोगना ही पड़ता है। जब-तक प्रारब्ध रहता है तब-तक उसका भी शरीर रहता ही है।
भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन! ज्ञान की अग्नि सभी कर्मों को भस्मसात कर देती है। जब महाभारत का युद्ध हो गया तब भगवान श्री कृष्ण ने अपना रथ ले जाकर शिविर के सामने खड़ा किया और अर्जुन से कहा कि रथ से उतर जाओ। इसके पहले प्रतिदिन भगवान पहले उतरते थे, उतरकर घोड़ों की लगाम पकड़ कर खड़े रहते थे तब अर्जुन उतरते थे। लेकिन आज भगवान लगाम पकड़े- पकड़े बैठे रहे, और कहा कि अर्जुन पहले तुम उतर जाओ। अब अर्जुन उतर तो गए लेकिन मन में शंका हो गई कि आज भगवान पहले क्यूं नहीं उतर रहे हैं नियम तो यही है कि पहले सारथी उतरता है और रथी बाद में उतरता है। भगवान की आज्ञा का पालन करते हुए जब अर्जुन जी रथ से उतरे और फिर भगवान अलग हुए तो रथ में आग लग गई। अर्जुन ने साश्चर्य पूछा कि प्रभु! ये क्या हो गया? तो भगवान श्रीकृष्ण बोले कि इसीलिए तो मैंने तुमको कहा कि पहले तुम उतर जाओ। बात ये है कि महाभारत युद्ध के पहले ही मैंने संकल्प किया था कि जिस रथ से मैं युद्ध प्रारंभ कर रहा हूं उसी से समाप्त करूंगा। बीच में यह रथ नष्ट नहीं होना चाहिए। तो मेरे संकल्प से ये अभी तक टिका हुआ था। यद्यपि महारथियों के द्वारा यह रथ कई बार भस्म कर दिया गया था लेकिन मेरे संकल्प के बल पर टिका रहा। अब मेरा संकल्प पूर्ण हो गया तो ये भस्म हो रहा है।
इसी प्रकार ज्ञान की अग्नि यद्यपि कर्म को नष्ट कर देती है। लेकिन भगवान का संकल्प होने के कारण ये प्रारब्ध उस समय तक इस शरीर को टिकाए रखता है। तो ये प्रारब्ध के बनने का हेतु है। बनता अपने ही कर्मों से है लेकिन जब वह फलोन्मुख होता है तो इतना प्रबल हो जाता है कि सामान्य कर्म उस प्रारब्ध को बदलने में असमर्थ हो जाते हैं।उस प्रारब्ध को यदि कोई बदल सकता है तो वो हैं भगवान शंकर।
भाविउ मेटि सकइ त्रिपुरारी
भगवान शंकर चाहें तो भावी को मिटा सकते हैं। या कोई ऐसा महापुरुष हो जो आशीर्वाद दे दे उससे भी। या हमसे कोई उत्कट पाप पुण्य हो जाए तो थोड़ा बहुत अन्तर पड़ सकता है। अन्यथा प्रारब्ध का फल तो भोगना ही पड़ता है। इसलिए इस प्रारब्ध को समझकर जो कुछ हमें मिला है उसी में अपने मन का विनोद कर लेना चाहिए। भगवान शंकराचार्य जी कहते हैं कि-
मूढ़ जहीहि धनागमन तृष्णां, कुरु सद्बुद्धिं मनसि वितृष्णां।
यल्लभसे निज कर्मोपात्तं, वित्तं तेन विनोदय चित्तम्।।
हे मूढ़! धनागम की तृष्णा को छोड़ और मन में वितृष्णा रूपी सद्बुद्धि बना तेरे कर्म के अनुसार जो कुछ तुझे मिल गया है, उसी से अपने मन को संतुष्ट कर लें। ये है संतोष कृपाण, विरति चर्म संतोष कृपाना। संतोष की कृपाण से जो शत्रु पर प्रहार किया जायेगा वह प्रहार बड़ा सक्षम होगा। यदि मन में संतोष है तो सारी दिशाएं सुखमय है।
सदासंतुष्ट मनस: सर्वा सुखमया दिशा:
जो मनुष्य संतुष्ट मन वाला है उसके लिए सभी दिशाएं सुखमय हो जाती हैं।
जैसे किसी के पैर में यदि जूते हैं तो शर्करा और कण्टक उसके लिए है ही नहीं। कथा है कि एक बार अकबर बादशाह शिकार खेलने जंगल में गया। पैर में कांटा गड़ गया। बड़ा दुःख हुआ। कहने लगा बीरबल! हमारे राज्य में जितने भी कांटे हैं सबको नष्ट कर दो। बीरबल ने सोचा कि ये तो हो ही नहीं सकता। बीरबल ने कहा कि ठीक है हम प्रयत्न करेंगे। एक महीने का समय दिया।एक माह में बीरबल ने एक जूता तैयार किया और उनको पहना दिया। और कहा कि देख लीजिए अब आपके राज्य में कांटा रह ही नहीं गया, सब नष्ट हो गया। इसी प्रकार से अपना मन अगर संतुष्ट हो जाय तो कहीं किसी भी प्रकार का दुःख नहीं है। और यदि मन संतुष्ट नहीं हैं तो सब जगह दुःख ही दुःख है। इसलिए संतोष रूपी कृपाण से संसार शत्रु पर प्रहार करना चाहिए।
विरति चर्म संतोष कृपाना




 
                             
                                   
                                 
         
         
         
         
         
         
         
         
         
         
         
         
         
         
                                    
                                 
                                     
                                     
                                     
								 
								 
 
 
								 
								 
								 
								 
								 
								 
								