श्रद्धा से तो भक्त भी कर सकता है भगवान पर शासन

मोरे मन प्रभु अस विश्वासा, राम ते अधिक राम कर दासा

Updated: Oct 13, 2020, 05:42 AM IST

मोरे मन प्रभु अस विश्वासा
राम ते अधिक राम कर दासा

अनंत कोटि ब्रह्माण्ड नायक सर्वज्ञ सर्व शक्तिमान भगवान सबके अधिपति हैं, सबके नियामक हैं, कोई भी उनके ऊपर शासन नहीं कर सकता। अगर उनके ऊपर कोई शासन कर सकता है तो वो हैं उनके प्रेमी भक्त। श्रद्धा और विश्वास पूर्वक भक्त लोग जिस तरह चाहते हैं, भगवान को नचाते हैं और सर्व समर्थ प्रभु अपने प्रेमी भक्त की चुटकी पर नाचते हैं।
चुटकी बजावति नचावति
कौशल्या माता,
बालकेलि गावति मल्हावति
सुप्रेम भर और भी कृष्णावतार में
    हरिर्ननर्त

 

हठीले रसीले भक्तों के सामने भगवान को घुटने टेकने ही पड़ते हैं। मचले हुए दर्शनाकांक्षी भक्त किसी भी बात से संतुष्ट होते ही नहीं। जैसे मां के लिए मचले हुए शिशु को वस्त्र, आभूषण अलंकार स्वादिष्ट पकवान दीजिए, विविध सुख सामग्री दीजिए लेकिन वह शिशु तो अपनी करुणामयी अम्बा की अपेक्षा किसी भी वस्तु से संतुष्ट हो ही नहीं सकता। इसी प्रकार प्रेमी भक्तों की कामना केवल प्रभु को पाने के लिए ही होती है। जैसे बच्चा कुछ बड़ा हुआ, इधर-उधर चलने लगा, चलते-चलते वह ठोकर खाकर गिर गया, रोने लगा। रोना सुनकर मां दौड़ी हुई आई। बच्चा खीझ गया। गिरा स्वयं, परन्तु क्रोध उसका मां पर हुआ। अपनी तोतली बोली में बार-बार मां से कहता है कि तू मुझे अकेले क्यूं छोड़कर चली गई थी? फिर रूठकर कहता है कि जा मैं तुमसे बात नहीं करता। गोद में नहीं आऊंगा। मां मनाती पर वह भागता है। ऐसा इसलिए कि बच्चा मां के ऊपर अपना स्वाभाविक ही अधिकार समझता है। वह गिर जाय तो मां का दोष, भूखा रहे तो मां दोष, सो न सके तो मां का दोष। और मां को अपने क्रोध का दंड भी देता है। रूठकर, खीझकर, अभिमान करके। किन्तु भगवान के प्रति ऐसी भावना कि भगवान मेरे हैं, मैं उनका हूं। उनके ऊपर मेरा पूर्ण अधिकार है ये बड़े उच्च कोटि के भक्तों में होती है। ऐसे भक्तों के पीछे परमानंद स्वरुप, करुणामय, सर्व समर्थ प्रभु जैसे बछड़े के पीछे गाय स्नेह वश दौड़ती है, उसी प्रकार भगवान अपने भक्तों के पीछे-पीछे दौड़ते हैं और उसकी इच्छा को पूर्ण करते हैं।
 

अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यंघ्रि रेणुभि:
इस श्लोक में तो कहा गया कि भगवान अपने भक्तों के पीछे इसलिए घूमते हैं कि भक्त के चरण की धूल हमारे ऊपर पड़ जाय तो मैं पवित्र हो जाऊं।
श्रीमद्वृन्दारण्य धाम में एक महात्मा जी रहते थे, वे एक दिन अरण्य में घूमने के लिए निकले तो उनकी लम्बी-लम्बी जटाएं झाड़ी में उलझ गईं, बस फिर क्या था वे महात्मा जी भी अकड़ गए और कहने लगे कि जिसने उलझाया है, वही सुलझाए।अंततोगत्वा रसिकेन्द्र शेखर भक्तभावना पराधीन प्रभु पथिक के रूप में प्रकट हुए और कहने लगे कि बाबाजी! आपकी उलझी हुई जटाओं को सुलझा दूं? बाबाजी ने कहा ना भइया! जिसने उलझाया है वही सुलझाएगा। भगवान ने कहा- मैंने ही तो उलझाया है। बाबाजी ने कहा कि "नहीं, मेरी जटाओं को तो अखिल रसामृत सिंधु, व्रजेन्द्र नन्दन मदन मोहन श्यामसुन्दर ने उलझाया है और वही सुलझाएंगे। अन्त में विश्व विमोहन, दिव्य, चिन्मय, वस्त्र आभूषण और अलंकारों से अलंकृत और सुसज्जित होकर अखिल सौन्दर्य-माधुर्य रसाम्बुधि, रसराजमणि, व्रजेन्द्र नंदन के रूप में अवतरित हुए और जटाओं को सुलझाने के लिए आगे बढ़े। बाबा जी ने कहा- उधर ही रहो, मुझे छूना मत। श्यामसुंदर ने कहा- आखिर बात क्या है? मैंने ही तो उलझाया है आपकी जटाओं को? बाबा जी ने कहा कि बात ये है कि श्रीमद्वृन्दारण्य धाम में पांच प्रकार के कृष्ण माने जाते हैं उनमें से मैं तो नित्य निकुंजेश्वरी श्री राधा के वल्लभ को ही चाहता हूं। यदि श्री राधा रानी आकर कह दें तो मैं आपको छूने दूं। अन्त में श्री राधा रानी भी आईं, और बोलीं कि हां बाबा! यही हमारे नित्य निकुंजेश्वर, यदुकुल नलिन दिनेश श्यामसुन्दर हैं। तब बाबा जी ने उन्हें छूने दिया और फिर श्रीराधा-कृष्ण दोनों ने मिलकर बाबा जी की जटाओं को सुलझाया। ऐसे प्रेमी और हठी भक्त के समक्ष सर्व शक्तिमान भगवान को घुटने टेकने पड़ते हैं।