कैसे करें मन और देह का परिष्कार

जब मनुष्य के मन में धर्म बुद्धि का उदय होता है तब देह का अभिनिवेश कम होता है

Updated: Oct 09, 2020, 02:38 PM IST

श्रीमद्भगवद्गीता हमारे जीवन में सर्वाधिक उपयोगी ग्रंथ है। जैसे एक मां अपने बालक को सुसंस्कृत बनाती है। उसके शरीर में उबटन लगाकर स्नान कराती है, बाल संवारती है, बिन्दी लगाकर उसका श्रृंगार करके शोभा बढ़ा देती है। वस्त्र पहनाकर शरीर के दोषों को ढंक देती है। उसी प्रकार गीता हमारे जीवन का संस्कार करती है। यह भी हमारी मां है, अन्तर इतना ही है कि जन्मदात्री मां हमें छोड़कर चली जाती है, परन्तु गीता मां कभी भी हमारा त्याग नहीं करती। इसलिए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि गीता हमारे जीवन को सजाने-संवारने वाली असली मां है। 

हमारे जीवन में चार दोष ऐसे हैं जिनका संस्कार करना अति आवश्यक है और गीता मां ही करेंगी। ये चार दोष कौन- कौन से हैं? तो बताया गया है-

 पहला-     *अभिनिवेश*
 दूसरा-       *राग-द्वेष*
 तीसरा-      *अस्मिता*
 चौथा-        *अविद्या*

अभिनिवेश का अर्थ है पूरी तरह निविष्ट हो जाना, निकलने का मार्ग ही न मिले। तो इस शरीर में हमारा अभिनिवेश हो गया है।इस हड्डी,मांस, चर्म आदि का बना हुआ शरीर इसको हमने "मैं" मान लिया है। उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में एक बड़ा ही प्रचलित शब्द है "भेड़िया धसान" जिसको संस्कृत में
    *मेषीप्रपातान्ध परम्परा*
अर्थात् भेड़ों के गिरने की अन्ध परम्परा। एक के पीछे दूसरी अन्धी होकर गिरे। तो जो लोग इस देह को आत्मा मानते हैं उनसे यह पूछा जाए कि आप किस दर्शन के आधार पर शरीर को आत्मा मानते हैं। मुस्लिम,सिक्ख, ईसाई, पारसी,जैन आदि कोई भी देह को आत्मा नहीं मानते। धर्मात्मा नहीं मानते,योगी नहीं मानते तो फिर आप किस दर्शन के आधार पर शरीर को आत्मा मानते हैं? इसका कोई उत्तर नहीं है। इसी को अभिनिवेश कहते हैं।"अभि" माने पूरी तरह और "निवेश" माने देह के साथ एक हो जाना। यह एक दोष है जिसके निवारण की आवश्यकता है।

दूसरा दोष है- "राग-द्वेष"जिसके प्रति हमारा राग=प्रेम होता है,हम उसके पक्षपाती हो जाते हैं।चाहे वह भले ही अन्यायी हो लेकिन राग के कारण हम उसके पक्षधर हो जाते हैं।दूसरी ओर किसी से ऐसी शत्रुता हो कि उसका नाम सुनते ही हृदय जल उठे।आप आत्म निरीक्षण करें यदि ऐसा होता है तो आपके अन्त:करण में राग-द्वेष की मैल लग गई है जिसका संस्कार करना आवश्यक है।यह हमारा दूसरा दोष है।

तीसरा दोष है अस्मिता अर्थात् अपने में बड़प्पन का भाव। सौंदर्य में,धन में,विद्या में हम सबसे बड़े हैं हमसे बड़ा कोई नहीं है हम किसी के सामने क्यों झुकें इसी को अस्मिता कहते हैं।इस तीसरे दोष अस्मिता का संस्कार करना भी आवश्यक है।

चौथा दोष है "अविद्या" नासमझी। इसके कारण हम जगह-जगह दुखी होते हैं। यह अविद्या भी बहुत बड़ा दोष है। गीता हमारे जीवन से चारों प्रकार के दुःख दोषों को दूर करती हैं। इन चारों दोषों के निवारण की चार दवा है।

जब मनुष्य के मन में धर्म बुद्धि का उदय होता है तब देह का अभिनिवेश कम होता है। जब वैराग्य बुद्धि का उदय होगा तब राग-द्वेष कम होता है। जब भगवद्भभक्ति का उदय होगा तब अस्मिता, अभिमान मिटता है और जब परमार्थ बोध हो जाता है तब अविद्या मिट जाती है।

इस प्रकार गीता से हमें चार प्रकार की बुद्धि -धर्म- बुद्धि, वैराग्य- बुद्धि, भक्ति- बुद्धि, और ज्ञान-बुद्धि मिलती है। यह बिना भेद भाव के हमारा संस्कार करती है। गीता के अध्ययन में वर्ण आश्रम सम्प्रदाय देश आदि का कोई भी बन्धन नहीं है। अपने को सुसंस्कृत करने के लिए सभी गीता की शरण में जा सकते हैं।