संन्यास

आज किसी ने संन्यास के विषय में जिज्ञासा की है

Updated: Dec 28, 2020, 06:15 PM IST

Photo Courtesy: twitter
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हमारे शास्त्रों ने मनुष्य को चार वर्ण और चार आश्रम में विभक्त कर दिया है। चार आश्रम में अंतिम आश्रम संन्यास आश्रम है। कुछ लोगों के मन में ये जिज्ञासा होती है कि संन्यास की आवश्यकता क्या है?  इस विषय में एक बड़ा ही सुन्दर आख्यान है।याज्ञवल्क्य नाम के एक बड़े ही तपस्वी मनीषी हुए,जो उस समय के ऋषियों में सबसे श्रेष्ठ थे। उपनिषदों में इनकी चर्चा है।

ऐसे याज्ञवल्क्य जी के मन में संन्यास लेने की भावना बनी। उनके पास अपार सम्पत्ति थी। दो पत्नियां थीं मैत्रेयी और कात्यायनी। मैत्रेयी से उन्होंने कहा कि अब मैं गृह त्याग करना चाहता हूं। तुम दोनों की सुख समृद्धि के लिए सम्पत्ति को दो भागों में विभक्त कर देना चाहता हूं। तो मैत्रेयी ने पूछा कि भगवन्!  आप संन्यास क्यूँ लेना चाहते हैं?संसार क्यूँ छोड़ना चाहते हैं? तो याज्ञवल्क्य जी बोले अमृतत्व की प्राप्ति के लिए। अमृतत्व क्या है? ये एक उपलक्षण है।

मनुष्य जब तक शरीर धारण करता रहेगा तबतक उसको दुखों से मुक्ति नहीं मिल सकती। क्यूंकि शरीर उत्पन्न होने के साथ ही दुखों की उत्पत्ति भी हो जाती है। जब भी कोई व्यक्ति जन्म लेता है तो जन्म के साथ साथ उसकी मृत्यु का भी जन्म हो जाता है। 

जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु:

और जो जन्म लेगा उसकी वृद्धावस्था भी आएगी।इसका वर्णन श्रीमद् आद्यशंकराचार्य जी ने किया है।

अंगं गलितं पलितं मुण्डं

 दसन विहीनं जातं तुण्डम्।

 वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं,

तदपि न मुञ्चत्याशा पिण्डम्

अंग गलित हो गए,बाल श्वेत हो गए, मुख में दांत नहीं बचे आदि-आदि। और वृद्धावस्था के साथ साथ व्याधि भी आएगी। अपने स्वजनों के सुख दुख की भी चिंता होती है। ये आधि है।

 आधिस्तु मानसी व्यथा

मनुष्य त्रिताप से संतप्त है।

अमृतत्व की प्राप्ति उसी को होती है जो ब्रह्म ज्ञान प्राप्त कर लेता है। तो मैत्रेयी ने पूछा कि जो सम्पत्ति आप मुझे देने जा रहे हैं उससे अमृतत्व की प्राप्ति हो जायेगी? तब महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा कि मैत्रेयी!  धन से अमृतत्व की आशा नहीं की जा सकती। तब मैत्रेयी ने कहा कि जिससे मैं अमृत न बन पाऊं वैसी सम्पत्ति लेकर मैं क्या करूंगी। सार ये है कि-

त्यागे नैके अमृतत्व मानसु

ग्रहण में सुख नहीं त्याग मेँ सुख है। तीनों एषणाओं का त्याग करना चाहिए। अपने भारत का विज्ञान कहता है कि यदि आप सच्चा सुख चाहते हैं तो इच्छाओं का त्याग कीजिए। केवल गेरुआ रंग के वस्त्र धारण कर लेना ही संन्यास नहीं है। वस्तुतः सम्पूर्ण त्याग का नाम ही संन्यास है। यह सुनकर मैत्रेयी ने त्याग के मार्ग को ही श्रेष्ठ मानकर उसी को अपना लक्ष्य बनाया।