सत्संग से ही उदित होता है विचार

दु:संग के त्याग और सत्संग के द्वारा जब बुद्धि के दोष दूर होते हैं तब पता चलता है कि सच्चा सुख क्या है और किन उपायों से उसकी प्राप्ति होती है

Publish: Jul 24, 2020, 12:40 PM IST

हमारे गुरुदेव भगवान ने अपने अमृतोपदेश में शिष्यों का मार्ग दर्शन किया है कि मनुष्य अपनी समस्त चेष्टाओं के द्वारा दु:खों की आत्यंतिक-निवृत्ति और सुख की प्राप्ति चाहता है। सुख की इच्छा मनुष्य की स्वाभाविक इच्छा है। सुख के साधनों की इच्छा कृत्रिम और परिवर्तनशील होती है। सुख के साधनों के प्रति प्राणी का राग अव्यवस्थित होता है।जो प्राणी या पदार्थ आज सुख का साधक प्रतीत होता है, वही कल बाधक प्रतीत होने लगता है। इसी कारण उसकी प्रियता परिवर्तित होती रहती है।

जीवन में ऐसे अनेक अवसर आते हैं जब अत्यंत प्रिय व्यक्ति अप्रिय और अप्रिय व्यक्ति प्रिय हो जाते हैं। मित्र शत्रु और शत्रु मित्र बन जाते हैं। पर यह स्थिति सुख के साधनों की है सुख की नहीं। सुख कभी भी अप्रिय नहीं हो सकता। सुख के साधनों के प्रति भ्रान्त धारणा के कारण ही कभी किसी प्राणी या पदार्थ में राग या किसी में द्वेष होता है।

अध्यात्म शास्त्रों में प्रज्ञापराध को दु:खो का कारण बताया गया है। प्रज्ञापराध का अर्थ है- उचित-अनुचित के अविवेक से धर्म में अधर्म की बुद्धि और अधर्म में धर्म  बुद्धि हो जाती है।फलत: जहां प्रवृत्ति वहां प्रवृत्ति और जहां निवृत्ति होनी चाहिए वहां निवृत्ति नहीं होती। यही कारण है कि जिससे प्राणी सुख चाहते हुए भी दुःख पाता है। इसके कारण ही हम कभी किसी को पकड़ते और कभी किसी को छोड़ते हैं। अनंत जन्मों से यही क्रम चल रहा है। यह नियम है कि नीच के संग से बुद्धि नीच और मध्यम के संग मध्यम और उत्तम पुरुषों का संग करने से उत्तरोत्तर श्रेष्ठ होती है।

गुण दोषों के ज्ञान के लिए बुद्धि की शुद्धि अपेक्षित होती है।जिसकी बुद्धि मलिन होती है वह मलिन वस्तु को उत्तम समझता है।पर उत्तम पुरुषों की बुद्धि शुद्ध होती है,उनका विवेक सदा जाग्रत होता है, उनकी शिक्षा आचरणीय और चरित्र अनुकरणीय होते हैं।दु:संग के त्याग और सत्संग के द्वारा जब बुद्धि के दोष दूर होते हैं तब पता चलता है कि सच्चा सुख क्या है और किन उपायों से उसकी प्राप्ति होती है।

वस्तुत: सच्चा सुख भगवान का स्वरुप ही है और उसकी प्राप्ति का साधन मन की निर्मलता है।

मन एवं मनुष्याणां कारणं बन्ध मोक्षयो :।

बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं मन:।।

अर्थात् बन्धन और मोक्ष का कारण मन ही है। विषयासक्त मन बन्धन का और निर्विषय मन मोक्ष कारण होता है।यही परमार्थ पथ है, जिसको समझे बिना मनुष्य के पुरुषार्थ की सिद्धि नहीं हो सकती।इसका ज्ञान परमार्थ पथ के परम प्रवीण सत्पुरुषों के सत्संग से ही होता है।सत्संग से ही विचार का उदय होता है और विचार से मोह की निवृत्ति होती है। हमें इसी मार्ग पर आगे बढ़ना चाहिए।