गुरु के सत्संग से अति शीघ्र होती है आत्म तत्व की अनुभूति

गुरु अगर मिल जाएं तो उनके सत्संग से एक क्षण में ही छूट सकता है मनुष्य का भवसागर, ब्राह्मण और गुरु की पूजा ही धर्म रथ के रथी का है अभेद्य कवच

Updated: Sep 29, 2020, 11:36 PM IST

मन को शांत और अचल बनाया जाता है तब आत्म तत्व की अनुभूति होती है। लेकिन अगर गुरु कृपा हो जाए तो वह आत्म साक्षात्कार सहज में ही हो जाता है। इसलिए भगवान श्रीराम कहते हैं कि -कवच अभेद विप्र गुरु पूजा।यदि समाधि के द्वारा अनुभव करना चाहें तो भी उसकी लम्बी प्रक्रिया है लेकिन गुरु के सत्संग से अति शीघ्र ही आत्मानुभूति हो जाती है। किसी कवि ने कहा है कि

 सत्संग की आधी घड़ी, सुमिरन वर्ष पचास।

 वर्षा की एकहि घड़ी, पुरवर बारह मास।।

पुरवर से बगीचे को बारह महीने सींचो, जितना लाभ नहीं होगा उतना केवल एक घड़ी बादल के बरसने से लाभ हो जाता है।इसी प्रकार बिना गुरु आज्ञा के कोई पचास वर्ष सुमिरन करे वह स्थिति नहीं बन पाएगी लेकिन आधी घड़ी के लिए सद्गुरु का सत्संग प्राप्त हो जाय तो उतने से ही साधक के कार्य की सिद्धि हो सकती है। महात्माओं का कथन है कि मनुष्य का मन प्रतिक्षण निर्विकल्प होता है। इसके लिए लम्बे समय तक साधन की आवश्यकता नहीं है। बस थोड़ा सा ध्यान देने की आवश्यकता है,थोड़ी देर के लिए अन्तर्मुख होना पड़ेगा।

 नष्टे पूर्वे विकल्पे तु, यावदन्यस्य नोदय:।

निर्विकल्पकचैतन्यं, स्पष्टं तावद्विभासते।।

पूर्व विकल्प का नाश हो गया हो और उत्तर विकल्प अभी प्रारम्भ नहीं हुआ हो।उस मध्य में निश्चित रूप से ब्रह्म चैतन्य का प्रकाश होता है। घटाकार वृत्ति उठी और समाप्त हो गई।पटाकार वृत्ति अभी प्रारम्भ नहीं हुई,उस मध्य में मन न तो घटाकार है और न पटाकार है यही समय निर्विकल्प होता है। कागभुशुण्डि जी से प्रश्न किया गया कि आप इतने चिरंजीवी कैसे हैं? तो उन्होंने कहा कि मैं उस चिदात्मा की उपासना करता हूं जो प्राण और अप्राण के मध्य में रहता है। 

प्राणापानयोर्मध्ये, चिदात्मानमुपास्महे

प्राण और अप्राण के मध्य में जो चिदात्मा है उसी की उपासना मैं करता हूं। यह प्राण अप्राण क्या है? श्वास खींचना प्राण और प्रश्वास छोड़ना अप्राण। तो श्वास को खींचे एक वृत्ति हो गई।श्वास को खींचने के पश्चात और छोड़ने के बीच की जो स्थिति है यह एक सूक्ष्म सन्धि है, इस समय मन पूर्ण रूप से निर्विकल्प रहता है।इस निर्विकल्प अवस्था में ही आत्मा का अनुभव होता है। इस प्रकार अमल अचल मन को ब्रह्म चिंतन से एकाग्र बनाओ। यही त्रोण है।

 सम जम नियम सिलीमुख नाना

जो अन्त: करण निर्मल होता है उसमें से यम नियम अपने आप निकलते हैं। और जिस मन में मलिनता होती है उस मन से हम चाहें कि नियमों का पालन करें तो यह सम्भव नहीं है। जिसके मन में निश्चलता नहीं वह एक जगह बैठ नहीं सकता और न ही कोई एक बात ठिकाने से सुनता है। ऐसे कई लोग देखे जाते हैं जो विद्वान तो बहुत रहते हैं लेकिन उनसे जब कोई चर्चा छेड़ दी जाय तो वो उत्तर दूसरी ही बात का देने लग जाते हैं। क्यूंकि उनका मन अस्थिर रहता है।इस प्रकार हमें कैसे मन की आवश्यकता है? तो कहते हैं कि-

अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना।।

कवच अभेद विप्र गुरु पूजा। एहि सम विजय उपाय न दूजा।।

अब अन्त में अभेद्य कवच बताते हैं। रावण का कवच भेद्य है। भीषण बाण प्रहार से ये कवच कट जाएगा। लेकिन भगवान श्रीराम कहते हैं कि मित्र! मेरे पास जो कवच वह अभेद्य है।

 कवच अभेद विप्र गुरु पूजा

श्री राघवेन्द्र की ब्राह्मण भक्ति तो अद्वितीय है।

विप्र चरण पंकज सिर नावा

वन में चले तो गुरु देव के चरणों में प्रणाम निवेदन करके चले। वहां ऋषि मुनियों के आश्रम में जा जाकर उन्हें प्रणाम करते हैं। भगवान श्रीराम की ब्राह्मण भक्ति देखने ही योग्य है। "गु" का अर्थ है अन्धकार और "रू" का अर्थ है ज्ञान का प्रकाश। ज्ञान के प्रकाश से अज्ञान के अन्धकार को जो दूर कर दे उसका नाम गुरु है। ऐसे गुरु अगर मिल जाएं तो उनके सत्संग से एक क्षण में ही मनुष्य का भवसागर छूट सकता है। इस प्रकार ब्राह्मण और गुरु की पूजा ही धर्म रथ के रथी का अभेद्य कवच है।

कवच अभेद विप्र गुरु पूजा

           *नर्मदे हर*