वह कौन सा दर्पण है जिसके सहारे होते हैं आत्म दर्शन

श्री राम सबकी अंतरात्मा हैं, भगवान इतने निकट हैं कि उन्हें दूर किया ही नहीं जा सकता, तब प्रश्न ये है कि परमात्मा की प्राप्ति क्यूं है इतनी दुर्लभ

Updated: Sep 29, 2020, 11:35 PM IST

धर्म रथ के प्रसंग में भगवान श्रीराम रथ के सभी अंगों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि श्रेष्ठ विज्ञान ही युद्ध करने के लिए धनुष है।अब तरकस और बाण का वर्णन करते हैं।तरकस उसे कहते हैं जिसमें बाण रहता है रावण अपने तरकस में बाणों को रखकर तो लाया ही था, उसके रथ के पीछे सैकड़ों ऐसे तरकस थे जिनमें अनेक बाण भरे हुए थे। और भगवान श्रीराम के पास एक ही तूणीर (तरकस) था। जो अक्षय था। इस धर्म रथ में भी एक तूणीर है।

अमल अचल मन त्रोन समाना ।सम जम नियम सिलीमुख नाना।।

कवच अभेद विप्र गुरु पूजा। एहि सम विजय उपाय न दूजा।।

भगवान श्रीराम कहते हैं कि अमल और अचल मन ही त्रोण अर्थात् तरकस है। ज्ञान विज्ञान के वर्णन के अनन्तर अब साधन का वर्णन कर रहे हैं। साधन संपत्ति से चित्त की शुद्धि होती है। मन की एकाग्रता और निर्मलता बहुत आवश्यक है। इसलिए स्थित प्रज्ञ की परिभाषा में भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि -

 विषया विनिवर्तन्ते, निराहास्य देहिन:।

 रसवर्जं रसोप्यस्य, परं दृष्ट्वा निवर्तते।।

जब प्राणी निराहार हो जाता है तो विषयों का त्याग कर देता है। तो विषय तो छूट जाते हैं लेकिन उनके प्रति जो प्रेम है,रस है, वह बना रहता है। छूटता नहीं है। परन्तु परमात्मा का साक्षात्कार हो जाने पर वह रस भी छूट जाता है। मन में जो सूक्ष्म वासनाएं हैं,वो भी नष्ट हो जाती है। तो उन सूक्ष्म वासनाओं का पूर्ण रूप से नाश तभी होगा जब ब्रह्म साक्षात्कार होगा। इसलिए परमात्मा की प्राप्ति के लिए चित्त का संशोधन आवश्यक है। यद्यपि परमात्मा बहुत ही निकट है इतना निकट है कि उसको निकट कहना भी दूर करना है। इसलिए उसकी प्राप्ति में कोई विलम्ब नहीं है।कहा गया है कि फूलों को मसल देने में भले ही देर हो जाये, और भले ही नेत्रों के निमीलन में देर हो जाये, लेकिन परमात्मा के दर्शन में देर नहीं। कबीर बाबा ने कहा है कि- 

जब लगि लौका लौके भाई। तब-तक हंसा लोके जाई।।

इसका अर्थ ये है कि जितनी देर में बिजली चमक कर शांत हो जाती है, उतनी ही देर में ये हंस अपने लोक में चला जाता है। परन्तु परमात्मा इतना निकट होते हुए भी हमसे दूर क्यों हो गया? मारवाड़ी भाषा में एक कहावत है कि- नहिं नेड़े नहिं दूर। परमात्मा के बारे में कहा गया कि नहिं नेड़े नहिं दूर यानि जो बहिर्मुख हैं उनके निकट नहीं हैं और जो अन्तर्मुख हैं, भगवान के भक्त हैं उनके लिए "नहिं दूर" और वस्तुत: जिन्होंने परमात्मा को जान लिया उनके लिए न तो वह निकट है और न दूर हैं। अपने से भिन्न को ही निकट या दूर कहते हैं। जो अपना स्वरूप ही है उसे क्या निकट और क्या दूर।

श्री राम चरित मानस में कथा आती है कि महर्षि विश्वामित्र अपने यज्ञ की रक्षा के लिए भगवान श्रीराम की याचना करने के लिए अयोध्या जी आते हैं और महाराज दशरथ से अपनी मांग प्रस्तुत करते हैं तो उस समय महाराज ने कहा कि- सब सुत मोहि प्रिय प्रान की नाईं। राम देत नहिं बनइ गोसाईं।

राम दिए नहीं जा सकते। ये प्राणों के भी प्राण हैं। ये आत्मा हैं। क्या आत्मा भी किसी को दी जा सकती है? महाराज! अपने आप को न तो कोई दे सकता है और ना ही ले सकता है। आत्मा न देय है और न उपादेय है।

यह श्री राम का स्वरूप है। श्री राम सबकी अंतरात्मा हैं। भगवान इतने निकट हैं कि उन्हें दूर किया ही नहीं जा सकता। तब प्रश्न ये है कि परमात्मा की प्राप्ति इतनी दुर्लभ क्यूं है? वस्तुस्थिति ये है कि अत्यधिक निकटता भी दर्शन में बाधक बन जाती है।

उदाहरण के लिए समझा जा सकता है कि जैसे नेत्र के द्वारा दूरबीन से हम बहुत दूर की वस्तु भी आसानी से देख लेते हैं लेकिन उन्हीं नेत्रों से नेत्र का काजल नहीं देख सकते। क्यूंकि आंख का काजल आंख के बहुत निकट है। जब हम काजल नहीं देख सकते तो आंख से आंख कैसे देख सकते हैं और जब आंख से आंख नहीं दिखती तो उससे भी निकट मन है, मन कैसे दिख सकता है और जब हम आंख से मन को नहीं देख सकते तो आंख से बुद्धि को कैसे देख सकते हैं और जब बुद्धि को नहीं देख सकते तो उससे भी निकट आत्मा को कैसे देख सकते हैं। इसके लिए आत्म निरीक्षण की आवश्यकता है,अन्तर्मुखता की आवश्यकता है। वह कौन सा दर्पण है जिसके सहारे हम आत्म दर्शन कर सकते हैं। वह दर्पण है हमारा निर्मल मन-

निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।

भगवान श्री राम कहते हैं कि निर्मल मन वाला प्राणी मुझे प्राप्त कर लेता है।

मुकुर मलिन अरु नयन विहीना। राम रूप देखहि किमि दीना।।

इस प्रकार निर्मल मन ही धर्म रथ के योद्धा का त्रोण (तरकस) है। अतः मन की निर्मलता अति आवश्यक है।