धर्म की राह में कौन सी चीज़ छोटी हो कर भी है बड़ी

दूसरों को संताप न देकर, खलों के घर न जाकर, सज्जनों का मार्ग लंघन न करके जो थोड़ी भी चीज़ है वही समझना चाहिए बहुत बड़ी

Updated: Oct 01, 2020, 07:45 PM IST

वर्तमान समय में कुछ भौतिक वादी लोगों का यह कहना है कि अब पुरानी परम्पराओं के दिन लद गए। आज के वैज्ञानिक युग में पुराने जमाने के सड़े-गले नियमों की कोई आवश्यकता नहीं है। मनुष्य को चाहिए कि दुनिया के परिवर्तन के साथ- साथ अपने आप को भी परिवर्तित करते चलें। देश काल परिस्थिति के अनुसार नये प्रकार से धर्म कर्म और शास्त्र का निर्माण होना चाहिए।

इन लोगों की बातों पर ध्यान दिया जाए तो प्रतीत होगा कि यह विचार भी अब पुराने होते जा रहे हैं। तथापि जैसे सावन के अंधे को ग्रीष्म में भी हरियाली  की ही प्रतीति होती है। वैसे ही आज के लोगों की धारणा है। जिन विचारों को अब पाश्चात्य लोग भी छोड़ रहे हैं, भारत के नक्काल उन्हीं की नकल उतारने में परेशान हैं।

धर्म और अध्यात्म से शून्य वैज्ञानिक-सभ्यता के दुष्परिणाम से तो पाश्चात्य विद्वान भी उद्विग्न हो रहे हैं। वे लोग भी धर्म और ईश्वर की आवश्यकता समझ रहे हैं। परन्तु भारत के लोगों को आज भी नवीन भारत का स्वप्न दिखाई दे रहा है। संसार में कोई भी चीज़ पुरानी या नई होने से आदरणीय नहीं होती, किन्तु उसके गुण अवगुण की ओर अच्छी तरह से ध्यान देना चाहिए।

सन्त: परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते मूढ: परप्रत्ययनेयबुद्धि:

पृथ्वी, आकाश,वायु, आत्मा और स्वास्थ्य पुराना ही है। परन्तु पुराना होने से क्या यह त्याज्य है? भोजन करके भूख मिटाने की परम्परा पुरानी है, पानी पीकर प्यास मिटाने की परम्परा भी पुरानी है फिर भी क्या इनको बदला जा सकता है? कोरोना जैसा रोग नया होने पर भी क्या आदरणीय है? विपत्ति नित्य नवीन होने पर भी क्या उसका आदर किया जा सकता है? यदि नहीं, तो फिर अनादि अपौरुषेय वेदादि सत्शास्त्रों द्वारा प्रदर्शित मार्ग से लौकिक और पारलौकिक उन्नति के लिए प्रयत्न करना ही उचित है।

कोई भी मार्ग यदि वह परिणाम में हानिकारक न हो तभी स्वीकृत होना चाहिए। विष युक्त भोजन यदि बहुत स्वादिष्ट हो तो भी उसे कोई ग्रहण नहीं करता क्यूंकि भोजन के अन्त में मौत के मुख में जाना पड़ेगा। जिस शास्त्र या धर्म के विरुद्ध उपाय से तात्कालिक लाभ भी हो, परन्तु अंत में पतन हो तो उससे क्या लाभ? इसलिए बुद्धिमानों ने धर्मोल्लंघन करके प्राप्त किए गए अर्थ को अनादरणीय बतलाया है।

अकृत्वा परसंतापं, अगत्वा खलमंदिरम्।

अनुल्लंघ्य सतां मार्गं, यत्स्वल्पमपि तद्बहु।।

दूसरों को संताप न देकर, खलों के घर न जाकर, सज्जनों का मार्ग लंघन न करके जो थोड़ी भी चीज़ है वही बहुत बड़ी समझना चाहिए।

अतिक्लेशेन येह्यर्था:, धर्मस्यातिक्रमेण च।

शत्रूणां प्रणिपातेन, मा च तेषु मन: कृथा:।।

अतिक्लेश से,धर्मोल्लंघन से,शत्रु प्रणिपात से जो अर्थ मिलता हो उसमें कभी भी मन नहीं लगाना चाहिए।

आस्तिकों और शास्त्रज्ञों का बिल्कुल यह आग्रह नहीं है कि समाज हित में या राष्ट्र हित में कोई मार्ग हो तो उसे ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि कोई सरल,सुगम, निर्विघ्न उपाय प्राप्त होता है तो कोई कठिनाई थोड़े ही है।

अङ्के चेन्मधु विन्देत, किमर्थं पर्वतं व्रजेत्।

यदि घर के कोण में मधु मिल जाए तो मधु के लिए पर्वत पर जाने की क्या आवश्यकता है। परन्तु यदि शास्त्र विरुद्ध मार्ग से परिणाम में पतन और और नरकादि दुःख भोगना पड़े तब तो उसकी उपेक्षा कर देना ही उचित है।अत: हम सभी को शास्त्र अविरुद्ध मार्ग का ही अनुसरण करना चाहिए।