अत्याचारी सुखी क्यों दिखते हैं और सदाचारी क्यों उठाते हैं दुःख

कोई प्राणी भले ही अधर्म अत्याचार कर रहा हो, शास्त्र धर्म तोड़कर पाप करता हो, परन्तु इस समय फल तो वही भोगने को मिलेगा जैसा कर्म वह पहले कर चुका है

Updated: Sep 29, 2020, 07:46 AM IST

कभी कभी लोगों के मन में संदेह हो जाता है। जब वे यह देखते हैं कि जो अत्याचारी हैं, अधर्मी हैं, शास्त्र की मर्यादा का उल्लंघन करने वाले हैं, भगवान के निंदक हैं वे तो बहुत सुखी हैं। किन्तु जो सदाचारी हैं, धर्मात्मा हैं, शास्त्र के अनुकूल आचरण करने वाले हैं भगवान के प्रति परम आस्था रखते हैं वे दु:खी हैं।

परन्तु यह निश्चय रखना चाहिए कि जैसे विष वृक्ष में विष का ही फल लगता है, अमृत का नहीं, वैसे ही पाप से दुःख ही होगा सुख नहीं, पुण्य से सुख ही होगा दुःख नहीं। हां!  विलम्ब हो सकता है।

कोई भी बीज अपना फल देने में कुछ समय तो लेता ही है। परन्तु यह कभी नहीं हो सकता कि विष वृक्ष में अमृत का फल लग जाय। कोई व्यक्ति चैत्र मास में भले ही मटर या चना बोये, लेकिन कार्तिक में यदि उसने गेहूं बोया है तो चैत्र में उसे काटने के लिए गेहूं ही मिलेगा। इसी प्रकार कोई प्राणी भले ही अधर्म अत्याचार कर रहा हो, शास्त्र धर्म तोड़कर पाप करता हो, परन्तु इस समय फल तो वही भोगने को मिलेगा जैसा कर्म पहले कर चुका है। इतना अवश्य है कि उग्र पापों और पुण्यों का फल शीघ्र मिलता है, परन्तु वह भी कुछ समय तो लेता ही है।

त्रिभिर्वर्षैस्त्रिभिर्मासैस्त्रिभि: पक्षैस्त्रिभिर्दिनै:।

अत्युग्रपुण्य पापानां, इहैव फलमश्नुते।।

ऐसी बातों पर विचार करने से पता चलता है कि यह कितनी मोटी दृष्टि की बात है। व्यापक परब्रह्म परमात्मा सर्वत्र समान रूप से रहता है, सम्पूर्ण विश्व उन्हीं में रहता है। प्राणी का सोना, उठना, बैठना सम्पूर्ण चेष्टाएं उन्हीं में होती हैं। जैसे गर्भस्थ शिशु की सम्पूर्ण चेष्टाएं मां के गर्भ में ही होती हैं, फिर भी मां कुपित नहीं होती। वैसे ही जीव की अनेक हलचलें उसी परमात्मा में होती हैं किन्तु क्षमाशील परमात्मा सबको सहन करता है।

उत्क्षेपणं गर्भ गतस्य पादयो:, किं कल्पते मातुरधोक्षजागसे।

किमस्ति नास्ति व्यपदेश भूषितं, तवास्ति कुक्षे कियदप्यनन्त:।।

ब्रह्मा जी कहते हैं कि- हे अधोक्षज! गर्भगत बालक के पादोत्क्षेपण को माता क्या अपराध मानती है? यदि नहीं, तो अस्तिनास्ति व्यपदेश से भूषित यह सम्पूर्ण विश्व क्या आपकी कुक्षि से बाहर है? भगवद्ध्यान के प्रभाव से एक ज्ञानी पुरुष भी देहाभिमान शून्य होता है। उसके एक हाथ में कोई कांटा चुभाए और दूसरे हाथ में कोई चन्दन का लेप करे तो वह इतना उदार और सहनशील होता है कि न तो कांटा चुभाने वाले को दंड देता है और न ही चन्दन का लेप करने वाले पर कुपित होता है। उन सबको यथा समय फल मिलता ही है। तो जब एक देह वाले ज्ञानी भगवद्भक्त की ऐसी स्थिति है, तब अनंत कोटि ब्रह्माण्ड नायक भगवान का तो कहना ही क्या है। वे क्षमाशील हैं। किसी को भी सुख दुःख नहीं देते मनुष्य का कर्म ही उसे यथा समय फल देता है।

एक ब्राह्मण के दो पुत्र थे।एक परम सदाचारी और दूसरा परम दुराचारी था। एकबार दोनों घर से एक साथ निकले। सदाचारी के पैर में कील चुभ गई और उसी स्थान पर दुराचारी को एक स्वर्ण की मुहर मिली।अब तो सदाचारी के मन में बड़ा क्षोभ हुआ।वह एक त्रिकालदर्शी महात्मा के पास गया और सारी बताया। महात्मा जी ने कहा कि आज तुम्हारा सिर कटने वाला था, लेकिन तुम्हारे पुण्य कर्मों के कारण ही केवल कील गड़ कर रह गई और तुम्हारे भाई को एक घड़ा स्वर्ण मुद्राएं मिलने वाली थीं लेकिन उसके पाप कर्मों के कारण एक ही स्वर्ण मुद्रा उसे प्राप्त हो सकी। इसलिए यह सुनिश्चित है कि हम जैसा कर्म करेंगे वैसा फल हमें प्राप्त होगा।