Women Scientists : लीसा माइटनर से गगनदीप कांग तक

कोरोना वैक्सीन हो या परमाणु बम की खोज महिलाओं ने हमेशा इंसानियत को तरजीह दी लेकिन सत्ता से उन्हें हमेशा उन्हें उपेक्षा मिली

Publish: Jul 17, 2020, 07:42 AM IST

16 जुलाई 1945 का दिन मानव इतिहास के सबसे काले दिनों मे लिखे जाने योग्य है। इस दिन इंसान भस्मासुर के रूप में परिवर्तित हुआ था। यानि उसके पास अब इसकी योग्यता आ गयी थी कि वह अपने आप को भी खत्म कर ले। इस दिन पहले परमाणु बम का परीक्षण अमरीका के न्यू मेक्सिको में किया गया था। विज्ञान के इतिहास में ऐसे कई काले तथ्य भी हैं, जिनसे पता लगता है कि जो  वैज्ञानिक दुनियां को जानने, खोजने और सूक्ष्मतम बदलावों का कारण जानने के लिये अपनी जिंदगी लगा देते हैं वे यदि सामाजिक और राजनैतिक रूप से जागरूक न हों तो इन्सानियत को शर्मसार करने वाले राजनेताओं के हाथों की कठपुतली भी बन सकते हैं। यह एक विडंबना है कि परमाणु बम बनाने के लिये आवश्यक जिस परमाणु विखंडन पर अमेरिकी सेना वहां के वैज्ञानिकों के साथ मेनहटन प्रोजेक्ट के तहत काम कर रही थी उसे जर्मनी के रसायन विज्ञानी वैज्ञानिक आटोहान  और उनके साथी फ्रिट्ज स्ट्रेसमेन ने खोजा था। और यह खोज हिटलर की जर्मनी के हाथ न लगे इसलिये मित्र देश इस पर तेज़ी से काम करने लगे। और अंततः फैट मेन और लिटिल बाॅय ने दुनियां को जो बर्बादी का नज़ारा दिखाया उसकी भर्त्सना के लिये कोई शब्द नहीं मिलता। 

लेकिन इस सचाई का एक पहलू यह भी है कि इस खोज की असली हकदार एक महिला थी, जिन्हें परमाणु बम की मां कहा गया। उनका नाम था लीसा माइटनर। दुनिया की पहली महिला जिसने भौतिक शास्त्र में डाॅक्ट्रेट की। लीसा माइटनर यहूदी मूल की ऑस्ट्रियन नागरिक थीं, जिन्हें हिटलर के शासन के दौरान  बर्लिन की अपनी प्रयोगशाला छोडकर स्वीडन निकल जाना पड़ा था। उनके साथी वैज्ञानिक, आटोहान जब उन्हें अपनी खोजों के बारे में लिखा करते थे। ऐसी ही एक खोज में वे अटक गये और बाद में लिज़ मेटनर ने अपने भतीजे, वैज्ञानिक के साथ मिलकर उस परमाणु विखंडन का भोैतिक शास्त्रीय तरीके से विश्लेषण करके आटोहान के परीक्षण और प्रयोग को पूरा किया। विखंडन शब्द भी देने वालीं लिज़ मेटनर ही थीं। लेकिन जैसा महिलाओं के साथ हमेशा होते आया है परमाणु विखंडन की खोज का नोबल पुरस्कार मिला आटोहान को। 

हिरोशिमा और नागासाकी पर जब बम गिराये गये तो पूरे मित्र देशों के पत्रकार लीसा माइटनर को बधाई देने पहुंचे। मगर  वे किसी पत्रकार से नहीं मिलीं बल्कि बाद में उन्होने कहा कि मेरा इस बम से कोई लेना देना नहीं है। एक वैज्ञानिक के नाते मै अपनी खोजों को परमाणु विखंडन तक इसलिये नहीं ले गयी थी कि एक दिन वह दुनियां का ही विखंडन कर दे। परमाणु बम की खोज एक बदतरीन उदाहरण है विज्ञान की खोजों और वैज्ञानिकों की बुद्धि पर राजनैतिक सत्ता के नियंत्रण का। ऐसी ही खोजों के लिये लिज मेटनर, आटोहान और जर्मनी के उन वैज्ञानिकों पर बेहद नाराज़ थीं, जिन्होने गैस चेंबर की खोजें की थीं। परमाणु बम के विस्फोट के बाद उन्होंने आटोहान को एक चिठ्ठी लिखी जो उन तक कभी पहुंची नहीं। ब्रिटेन के हेमिल्टन में उनकी कब्र पर लिखा है ’एक भौतिक विज्ञानी जिसने अपनी इंसानित कभी नहीं खोई।’

जिस प्रकार केवल 7 ग्राम का न्यूट्रान इनिशियेटर परमाणु बम के माध्यम से दुनिया को बर्बाद करने की ताकत रखता था उसी प्रकार उस 7 ग्राम से कई गुना छोटा कोरोना वायरस अब दुनिया की ऐसी तैसी कर रहा है। और अभी भी वैज्ञानिकों, डाॅक्टरों पर राजनैतिक सत्ता हावी हो रही है। हमारे देश में वैज्ञानिकों से कहा गया कि 15 अगस्त तक वैक्सीन बनाओ जैसे पुलिस को कह रहे हों कि फलाने दिन तक चोर को खोजो। यह बात अलग है कि इस देश  की पुलिस को चोर खोजने की फुर्सत ही कहां है उसे तो जनतांत्रिक अधिकारों की बात करने वाले खोजने हैं और उन्हें जेल भेजना है। सरकार के इस बेवकूफी भरे फाासिस्ट तरीके से भारत की एक बेहतरीन वैज्ञानिक गगनदीप कांग ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है। गगनदीप जो देश में वैक्सीन की गाॅडमदर कहलाती हैं उन्होने बच्चों में फैलने वाले रोटावायरस पर यानी दस्त रोग पर काम किया है, वे दुनियां की जानी मानी वैज्ञानिक हैं।  प्रोफेसर कांग का इस्तीफा ऐसे वक्त हुआ जब दो महीने पहले ही उनके नेतृत्व में कोरोनावायरस वैक्सीन और दवा पर काम कर रही कमेटी को भंग कर दिया गया थ। आज देश में वैज्ञानिकों के साथ ऐसा बर्ताव किया जा रहा है कि वो मजबूर हो गए हैं। सरकार ने ऐसे ही गगनदीप कांग को भी उनके काम से अलग होने पर मजबूर कर दिया। 

अमरीका ने डब्लूएचओ को फंड की आपूर्ति बंद कर दी है क्योंकि उसने अमेरिकी राष्ट्रपति के कहने पर वायरस के लिये चीन को जिम्मेदार नहीं ठहराया था। यह राजनैतिक दादागिरी का एक बदतरीन किस्म का उदाहरण है कि जब दुनियां इस भयानक महामारी से जूझ रही है तब डब्ल्यूएचओ जैसे संगठन की मदद बढ़ाने की बजाए अमेरिका ने उससे अपने हाथ खींच लिये हैं। डब्लूएचओ ने परवाह नहीं की और अभी एक कमेटी बनायी है जो यह जांच करेगी कि विभिन्न देशों की सरकारों ने इस महामारी से निपटने के लिये क्या तरीके अपनाये हैं। और इसका असर क्या रहा है। 

 

इस कमेटी की घोषणा करते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रमुख टेड्रोस एडहानोम गेबरेयेसस ने कहा कि इस कमेटी का नेतृत्व लाइबेरिया की पूर्व राष्ट्रपति और शांति के लिये नोबल पुरस्कार विजेता एलेन जाॅनसन सिरलीफ और न्यूजीलेंड की पूर्व प्रधानमंत्री हेलेन क्लार्क करेंगी। उन्होंने यह भी कहा कि इसके लिये इन दो से बेहतर और कोई मुझे नहीं दिखा जो मजबूत सोच और स्वतंत्र तरीके से सोचकर हमें इस कठिन परिस्थिति से निकलने में मदद कर सकें। जो कुछ हुआ है उसका ईमानदारी से आंकलन कर सके। साथ ही वे हमें यह भी बताए कि हमें क्या करना चाहिये जिससे कि हम भविष्य में इस तरह की आपदा का सामना कर सकें। यह अनायास नहीं है कि ये दोनों ही महिलाएं हैं ..और अपने अपने देश में जनतांत्रिक आंदोलनों का नेतृत्व करने वाली रही हैं। 

 

दुनिया में विज्ञान इन्सान को भस्मासुर तब बना देता है जब उस विज्ञान पर नियंत्रण उसके खोजकर्ता का नहीं राजनैतिक शक्तियों और मुनाफे के लिये काम करने वाले कारपोरेट का हो जाता है। लेकिन कोई जोनास साक भी होता है जो इस दबाव में नहीं आता। हम आशा  करें कि आने वाले दिनों में जब इस रोग की भी वैक्सीन आ जायेगी तो वह वैज्ञानिक भी किसी कारपोरेट या किसी ट्रंप या जाॅनसन के इशारे पर काम न करके जोनास साक की तरह उसका पेटेंट नहीं कराएगा और दुनिया के हर नागरिक के लिये वह वैक्सीन जीवनदान देने का काम करेगी।