इसमें सफ़ाई देखें या अ-संवेदनशीलता

प्रख्‍यात पत्रकार अमृता राय की कलम से कोरोना संक्रमण से निपटने के दौरान उभर कर आए शासन-प्रशासन के क्रूर व असंवेदनशील तरीकों की पड़ताल

Publish: Mar 31, 2020, 05:26 AM IST

senior journalist amrita rai
senior journalist amrita rai

- अमृता राय

पीछे घूम जाओ, आंखें बंद कर लो, इसका पूरा असर मुंह पर होता है… ये कहते हुए सफेद एप्रेन में लिपटे 3-4 व्यक्ति सड़क पर एक जत्थे में बैठे लोगों को केमिकल स्नान करवा रहे हैं। सड़क के लोग आज्ञापालन करते हुए कभी इस तरफ तो कभी उस तरफ उकडूं बैठ-बैठकर इसमें भीगने का योग कर रहे हैं। दृश्य ऐसा है कि जैसे कीड़े मारने के लिए किसी मनहूस दवाई का छिड़काव किया जा रहा हो।

सोमवार सुबह सोशल मीडिया पर ये वीडियो जैसे ही नुमायां हुई तो एक ही सवाल उठा कि इसमें सैनिटाइजेशन देखें या इनसेंसिटाइजेशन। सफाई देखें या मन का मैल। अगला सवाल था कि ये केमिकल है क्या… जानकारों ने बताया ये सोडियम हाइपोक्लोराइट है। आसान भाषा में इसे ब्लीच भी कह सकते हैं। उत्तर प्रदेश के बरेली से आई इस तस्वीर पर शाम को डीएम साहब का ट्वीट और बयान आया कि जिस केमिकल से बसों की सफाई होनी थी, उससे इसानों की सफाई करने के आरोप में कुछ अतिउत्साही निगम कर्मचारियों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी।

पर मुख्य सवाल ये है कि इस ब्लीच स्नान से कोरोना संक्रमण दूर करने की तरकीब आई कहां से...? नगर निगम और फायर ब्रिगेड की टीम को क्यों लगा कि कोरोना संक्रमण हटाने का ये बेहतर तरीका है और अगर ये तरीका इतना कारगर था तो क्या उन्होंने इसको खुद पर भी आजमाया…? शायद नहीं, वरना एप्रेन पहने ना दिखते।

ये सोच तीक्ष्ण हो ही रही थी कि एक दूसरी तस्वीर फिर सामने आ गई। इस तस्वीर में कुछ लोगों को सलाखों में कैद कर दिया गया था। जाहिर है, ये लोग भी उसी सड़क के लोगों के वर्ग से आते होंगे जिनका कोई माई-बाप नहीं। सीखचों को कड़े हाथों से जकड़े दर्जनों लाचार आंखें घर जाने की जिद पर थीं। एक पिता अपने बीमार बच्चे को देखने के लिए सीवान जाने को गिड़गिड़ा रहा था। मालूम नहीं बिहार सरकार ने इन्हें किस जुर्म में कैद किया था। शायद कर्फ्यू तोड़ना बताया दिया जाए। बीते 6 दिनों में ऐसी अमानवीय तस्वीरों की एक पूरी श्रृंखला देश के सामने आ चुकी है। अमानवीयता के ताबूत में कील ठोकती एक और तस्वीर का जिक्र करना जरूरी है जो मध्य प्रदेश पुलिस की है, जिसनें यूपी से पलायन कर पहुंचे एक मजदूर के माथे पर लिख दिया कि मैंने लॉकडाउन का उल्लंघन किया है। मेरे से दूर रहो। ये लिखना बार-बार मुझे 70 के दशक के उस एंग्रीयंगमैन कैरेक्टर की याद दिलाता रहा जिसने ऐसे ही एक गोदने से गुस्से में आकर जुर्म का रास्ता अपना लिया था।  

दर्दभरी इन सभी दास्तानों में एक चीज कॉमन है, और वो है गरीबी। जिनके नाम पर सरकारें चलती हैं और सत्ता अपना रुतबा कायम रखती है। इस बार सत्ता इस सच को झुठलाने में लगी है कि गरीब भाग रहा है। अर्थव्यवस्था में नींव की ईंट एक एक करके दरक रही है। देश इस खोखलेपन को लाखों लेंस के पीछे से देख भी रहा है और अनदेखा भी कर रहा है। वो अब भी विश्वास करने को तैयार है कि देश के प्रधानमंत्री टीवी पर ‘योग’ करके कोरोना से देश को बचा लेंगे। कठिन वक्त के कठिन फैसलों पर माफी मांगकर फिर से हर वर्ग का भरोसा जीत लेंगे। 

लेकिन हमें ढूंढ़ना होगा इस सवाल का जवाब कि आखिर गरीब शहर छोड़कर क्यों जा रहे हैं? क्या वो छुट्टी मनाने जा रहे हैं, जैसा कि किसी बीजेपी नेता ने कहा या वो किसी उकसावे की वजह से जा रहे हैं… क्या उन्हें कोरोना का डर सता रहा है या उन्हें इस कठिन वक्त में अपनों के साथ रहना है? ये सवाल अगर किसी गरीब से पूछें तो पता चलेगा कि असल में अब उनके लिए शहर का सपना दम तोड़ रहा है। यहां अब ना रात की रोटी है और ना ही आय का कोई आसरा। कोई उन्हें ब्लीच से धोए या कोई उनके माथे पर मुजरिम गोद दे। उनके ऊपर कोई फर्क नहीं पड़ता। समाज ने उन्हें हर कदम पर शर्मिंदा ही तो किया है। पता नहीं, आगे वक्त में शर्मिंदगी का ये कलंक सभ्य समाज कैसे धोएगा जब आनेवाली पीढ़ियां पूछेंगी कि संकटकाल में हमने अपने देश को आर्थिक विभाजन की इस राह पर लाकर क्यों छोड़ दिया? दुनिया के इतिहास भरे पड़े हैं जब दबे कुचले लोगों ने आत्मसम्मान के लिए संघर्ष किया और मानवता के सीने पर हज़ारों हज़ार घाव दे गई।

हो सकता है एक हफ्ते के लॉकडाउन के बाद जब सुप्रीमकोर्ट जवाब मांगे तो सरकार अपनी कमियों को प्रचार से ढंकने में कामयाब हो जाए। हो सकता है सुप्रीम कोर्ट भी संतुष्ट हो जाए। लेकिन बिना तैयारी लॉकडाउन से उपजी बदहाली को देश लंबे समय तक झेलने के लिए मजबूर होगा। क्या अच्छा नहीं होता कि केंद्र सरकार देश में तालाबंदी के अपने फैसले से पहले राज्य सरकारों को भरोसे में लेती। लॉकडाउन से पहले मुख्यमंत्रियों से सलाह की जाती और जनप्रतिनिधियों के जरिए जनता पर विश्वास कायम किया जाता…  संकटकाल में विकेंद्रकृत तरीके से जनता के लिए चलाई जा रही योजनाओं को अमल में लाया जाता। अब भी सरकार का ध्यान जमाखोरी और बढ़ती महंगाई की तरफ नहीं गया है लेकिन आनेवाले दिनों में ये एक भीषण समस्या का रूप ले सकती है। कुछ लोगों के विश्वास से मत जीता जा सकता है देश चलाने के लिए तो सबका विश्वास हासिल करना ही होगा।