भाजपा: सांप्रदायिकता का उड़नखटोला
पठान के एक गाने में मात्र पंद्रह सेकेंड के एक दृश्य में पहना गया वस्त्र सारे देश में सांप्रदायिक उबाल ला सकता है, लेकिन आदिपुरूष में हिन्दू देवता राम,सीता, लक्ष्मण, हुनमान और इनके सामने खड़े ’’रावण’’ को लेकर जिस तरह के अपमानजनक संवाद, दृश्य, वेशा भूषा आदि दर्शाई गई है, वह भारतीय इतिहास में अनूठी है।

अब वक्त आ गया है
कि आपसी रिश्ते का इकबाल करें
और विचारों की लड़ाई
मच्छरदानी से बाहर आकर लड़ें
और प्रत्येक गिले की शर्म
सामने होकर झेलें।
:- पाश
आदिपुरूष, शीर्षक से जारी हुई फिल्म पर जिस तरह का बवाल खड़ा हुआ है, उस पर भाजपा, आरएसएस और उनके अनुषंगी संगठनों व संस्थाओं की बेहद ठंडी प्रतिक्रिया ने यह स्पष्ट कर दिया है, कि इन संगठनों का भारत की धार्मिक व आध्यात्मिक चेतना से बहुत लेना-देना नहीं है। वस्तुतः वे सांप्रदायिकता को आधार बनाकर भारत की राजनीतिक चेतना को बोथरा कर देना चाहते हैं। फिल्म पठान के एक गाने में मात्र पंद्रह सेकेंड के एक दृश्य में पहना गया वस्त्र सारे देश में सांप्रदायिक उबाल ला सकता है, लेकिन आदिपुरूष में हिन्दू देवता राम,सीता, लक्ष्मण, हुनमान और इनके सामने खड़े ’’रावण’’ को लेकर जिस तरह के अपमानजनक संवाद, दृश्य, वेशा भूषा आदि दर्शाई गई है, वह भारतीय इतिहास में अनूठी है।
ग्यारह सौ साल के मुस्लिम/मुगल शासन में भी कभी इन देवताओं के लिए इस प्रकार की भद्दी शब्दावली का प्रयोग किया हो कई पढ़ने में नहीं है। और तो और कहीं भी हिन्दुओं के वर्तमान में सबसे पवित्र ग्रंथ रामचरित्रत मानस की रचना गोस्वामी तुलसीदा ने सन 1576 में सम्राट अकबर के शासन काल में की थी! क्या किसी को लगता है कि तत्कालीन शासक ने उनके रचनाकर्म में किसी भी तरह का हस्तक्षेप किया था?
वर्तमान में कथित हिन्दुवादी राजनीतिक समूह केन्द्र सरकार के अलावा भारत की कई राज्यों पर शासन करते हैं। अतएव हमें यह समझना होगा कि धुर उत्तर पूर्व में अरूणांचल, त्रिपुरा, मिजोरम, नागालैंड़, मणिपुर, असम, सिक्किम में शासन करने वाली भाजपा इस पूरे क्षेत्र में शांति क्यों नहीं स्थापित कर पा रही है? इनमें से कई राज्यों जिनमें मणिपुर, त्रिपुरा व असम प्रमुख है, आपसी, नरलीय और सांप्रदायिक हिंसा से सराबोर हैं। नागालैंड के पृथकवादियों के साथ चर्चा लगातार असफल हो रही है। डबल इंजन की सरकारें क्यों लगातार असफल हो रही हैं? क्या केंद्र और राज्य सरकारों के इंजन रेलगाड़ी के आगे और पीछे लगे हैं और दोनों विपरीत दिशा में चल रहे हैं? थोड़ा अलग हटते हैं, जम्मू व कश्मीर जिसका पूर्ण राज्य का दर्ज छीने हुए 4 वर्ष हो गए। (अगस्त- 2019) साथ ही लद्दाख को एक पृथक केन्द्र शसित प्रदेश जम्मू कश्मीर में अलग कर बना दिया। यह क्षेत्र में हिन्दुत्व की नई प्रयोगशाला में बदलता जा रहा है।
दिल्ली भारत की राजधानी है। कहने को यहां आम आदमी पार्टी की सरकार है, लेकिन कानून -व्यवस्था के अलावा पूरा प्रशासनिक तंत्र तो केंद्र की भाजपा सरकार के ही हाथ में हैं। यहां दिल्ली में सन 2020 में और सन 2022 में हुए सांप्रदायिक दंगे हमें समझा रहे हैं कि देश की राजनीति को किस सांप्रदायिक दिशा की ओर मोड़ा जा रहा है। हिमालय के क्षेत्र में ही स्थापित उत्तराखंड से जिस प्रकार का सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाया जा रहा है, उसकी जितनी भी निंदा की जाए कम है। यह प्रदेश भी सांप्रदायिकता की नई प्रयोगशाला है जहां इस बात पर दंगा हो जाता हैं कि लड़की किसी मुस्लिम के साथ चली गई है, जबकि वह वास्तव एक हिन्दू लड़के के साथ ही गई थी। थोड़ा नीचे हरियाणा को देखते हैं। यहां पर भी वातावरण पूरी तरह से सांप्रदायिकता की भेंट चढ़ा हुआ है। मुस्लिमों को नमाज तक अदा करने से रोका जा रहा है।
उत्तरप्रदेश में भाजपा जिस दक्षिणपंथी आक्रामकता के साथ शासन कर रही है, वह भारत जो कि संविधान के तहत संचालित होता है, में सर्वथा अकल्पनीय ही था। बुलडोजर को किसी सभ्य राष्ट्र के विकास व कानून व्यवस्था का प्रतीक तो नहीं बनाया जा सकता। परंतु उत्तरप्रदेश की सत्ता तो टिकी ही इसी पर है। उत्तरप्रदेश से सटे मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार ने शासन में सांप्रदायिक भेदभाव आज अपने चरम पर पहुंचता जा रहा है। खरगोन से लेकर दमोह तक पूरा प्रदेश जैसे सांप्रदायिकता राजनीति का पर्याय बनता जा रहा है। वस्तुतः बुलडोजर संस्कृति का जनक तो मध्यप्रदेश ही है, और अब बिगड़ती कानून व्यवस्था को दोषी न ठहराय जाए, इसलिए बताया जा रहा है कि किस तरह सरकार पुलिस के माध्यम से त्वरित न्याय कर रही है। सवाल उठना चाहिए कि यह न्याय है या घोर अन्याय?
मध्यप्रदेश के गृहमंत्री जो तमाम फिल्मों पर बेहद तीखी प्रतिक्रिया और कार्यवाही की चेतावनी देते थे, "आदिपुरूष’’ पर एक बयान देने के बाद चुप्पी साधे हुए हैं। यहीं पर सचिवालय के एक हिस्से में आग लग जाती है और तमाम महत्वपूर्ण फाइलें भस्म हो जाती हैं। मध्यप्रदेश से सटे महाराष्ट्र पर निगाह डालिए। ढाई वर्षों तक महाअघाड़ी का सरकार शिवसेना, कांग्रेस और एन सी पी के संयुक्त प्रयास से चल रही थी। इस दौरान यहां सांप्रदायिकता को हवा नहीं मिली। सरकार बदलते ही तकरीबन पूरा महाराष्ट्र जैसे सांप्रदायिकता की आग में झुलसने लगा है। यहां अल्पमत शिवसेना (शिंदे) के एकनाथ शिंदे भले ही मुख्यमंत्री हों लेकिन सत्ता की वास्तविक डोर भाजपा के देवेंद्र फड़वनीस के हाथ में ही हैं और वे "औरंगजेब की औलादों’’ को ललकार रहे है। परंतु वे भूल जाते है कि आंरगजेब के खानदान में एक दिल्ली के राजा बहादुरशाह जफर हुए हैं, जिनके नेतृत्व में सन 1857 का पहला स्वतंत्रता संग्राम लड़ा गया था। और उनकी औलादों (यानी बेटों) के सिर काटकर अंग्रेजो ने उनके सामने एक बड़ी थाली में "पेश ’’ किए थे।
हमें याद रखना होगा कि भारतीय समाज लगातार मेलजोल और अपनापे के सहारे ही विकसित हुआ है। भाजपा शासित ’’गोवा’’ में परिस्थितियां अभी सांप्रदायिक विस्फोट के कगार पर नहीं पहुंची हैं। परंतु वहां भी कोशिश जारी है। पुडुचेरी में भाजपा अखिल भारतीय एन आर कांग्रेस के साथ सरकार में है वहां एन आर कांग्रेस को दस और भाजपा को छः सीटो पर विजय मिली थी। अभी वहां पर सांप्रदायिकता की आग नहीं पहुंच पाई है। हम यदि असम राज्य की बात करें तो वहां तो जैसे सांप्रदायिकता की विस्फोट सा हो गया है। इतना ही नहीं पहली बार भारत संघ के अंतर्गत आ रहे दो राज्यों के शासकीय सशस्त्र बलों के बीच सीधा संघर्ष भी हुआ था। मणिपुर की स्थिति पर ध्यान देना जरूरी है। प्रदेश 50 दिनों से धधक रहा है और प्रधानमंती का मौन नहीं टूटा यहां विभाजन की राजनीति अब विस्फोटक हो चली है। अतएव हमारे लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि हम अपने इस समय में भाजपा द्वारा अनेक राज्यों में किए जा रहे शासन की कार्यपद्धति, कार्यशैली, मानसिकता और वास्तविक उद्देश्यों को समकालीन संदर्भ में समझे।
महात्मा गांधी ने अपना अंतिम अनशन जनवरी 1948 में समाप्त करते समय दिए गए संदेष में कहा था, ’’अगर हम यह स्मरण रखें कि जीवन एक है, तो फिर कोई कारण नहीं कि हम एक-दूसरे को अपना शत्रु समझें। हर हिन्दू कुरान पढ़े और हर मुसलमान वेद और गीता और सिखों के ग्रंथ साहब का मतलब समझने की कोशिश करे। जिस तरह हम अपने धर्म का सम्मान करते हैं, उसी तरह हमें दूसरों के धर्म का भी सम्मान करना चाहिए। जो सत्य और न्याय संगत है, वह सत्य और न्याय संगत रहेगा चाहे वह संस्कृत में हो, या उर्दू में या फारसी में या किसी और भाषा में। ’’भाजपा नीत केंद्र सरकार उपरोक्त कथन से कितना इत्तफाक रखती है, यह तो गीत प्रेस, गोरखपुर को ’’गांधी शांति पुरस्कार’’ देने से समझ में आ जाता है। ज्यूरी के एक सदस्य विपक्ष के नेता श्री अधीरंजन चौधरी का यह वक्तव्य भी महत्वपूर्ण है कि 18 जून को हुई बैठक में उन्हें आमंत्रित ही नहीं किया गया था। वहीं संस्कृति विभाग का कहना है कि उन्हें आमंत्रित किया गया था। गौरतलब है, इस पुरस्कार की महत्ता इस वर्ष इसी बात से खत्म हो गई कि ज्यूरी स्वंय इस फैसले को लेकर सर्वसम्मत ही नहीं है। जबकि गांधी और विनोबा का विश्वास तो सर्वानुमति में ही था। पंरतु यह सरकार को अपनी ही बात मनवाने की जिद है।
बषीर बद्र का शेर है,
अब धूप भूल जाइये, सूरज यहां नहीं है,
ऐसी जमीन मिली है, जहां आसमा नहीं है।
मूल विषय पर लौटते हैं। ऊपर किए गए विश्लेषण से यह साफ हो जाता है कि जिन राज्यों में भी भाजपा का शासन है, वहां सांप्रदायिकता और आपसी मतभेद बढ़ते ही जा रहे है। आदिपुरूष को लेकर आई ठंडी प्रतिक्रिया के बाद तो यह भी लगने लगा है कि भाजपा अब हिन्दू धर्म की व्याख्या भी एकदम नए ढंग से करना चाहती है। आधुनिक भाषा में कहे तो वह धर्म को लेकर नरेटिव ही बदल देना चाहती है। शांत -कोमल रामचन्द्र की जगह गुस्सैल-सुगठित श्रीराम या शांत धीर गंभीर हनुमान जी की जगह एक ऐसे हनुमान जो लगातार क्रोधित बने रहते हैं और अशालीन भाषा का प्रयोग करते हैं। भारतीय काव्य परंपरा में तो रावण तक से घृणा नहीं उपजाई गई है। परंतु लगता है, कि भाजपा तरकश में जितने भी तीर हैं, वे सभी सांप्रदायिकता के विष से अभिमंत्रित हैं।
गौरतलब है कि डा.राममनोहर लोहिया ने सन 1950 में ही कह दिया था कि ’’सभी धर्मों में किसी न किसी समय उदारवादियों और कट्टरपंथियों की लड़ाई हुई है। लेकिन हिन्दू धर्म के अलावा वे बंट गए, अकसर उनमें रक्तपात हुआ और थोड़े या बहुत दिनों की लड़ाई के बाद वे झगड़े पर काबू पाने मे कामयाब हो गए। हिन्दू धर्म में लगातार उदारवादियों और कट्टरपंथियों का झगड़ा चला आ रहा है। जिसमें कभी एक की जीत तो कभी दूसरे की और खुला रक्तपात तो कभी नहीं हुआ, लेकिन झगड़ा आजतक हल नहीं हुआ है और झगड़े के सवालो पर धुंध छा गई है।’’
भाजपा व संघ आज पुन : कट्टरता को एक धारणा या नरेटिव की तरह स्थापित करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। करीब बारह सौ वर्ष पहले जब यह कट्टरता अपने चरम पर थी तो इस देश में अरब और फारस की खाड़ी से मुस्लिम आक्रमणकारियों का आना शुरू हुआ था और उनकी जीत होने लगी थी। संघ को यह समझना ही होगा कि अंततः कट्टरता की हार होना सुनिश्चित है परंतु दुखद यह होता है कि इस संघर्ष के परिणाम भविष्य की पीढ़ियों को झेलने पड़ते हैं। पंरतु सत्ता की चाह कुछ भी करवाने में सक्षम होती है
कट्टरता बनाम सहिष्णुता के संघर्ष की परिणिति हमेशा से ही सहिष्णुता के पक्ष में रही है।
महात्मा गांधी ने नेतृत्व में लड़ा गया स्वतंत्रता संग्राम इसका अनुपम उदाहरण है। आज स्थिति काफी दुःशकर होती जा रही हैं। आम आदमी की सारी समस्यओं को सांप्रदायिकता की आड़ में छुपाया जा रहा है। कर्नाटक के जरूर दिखाई है, परंतु कांग्रेस को अधिक सतर्कता से अपना काम करना होगा। उसे पर्याय के बजाय विकल्प बनने पर ही जोर देना होगा। किसी ताकतवर पहलवान को उसी दांव से नहीं हराया जा सकता जिससे कि वह स्वंय पारंगत हो। आज की इस विकट स्थिति पर राहत इन्दौरी ने क्या खूब कहा है,
हम अपने शहर में महफूज भी हैं, खुश भी हैं,
ये सच नहीं है, मगर ऐतबार करना है।
आज पूरा भारत सांप्रदायिकता की घनघोर चपेट में है और मुख्य सत्ताधारी दल उसे और बढ़ावा ही दे रहा है। हमें यह समझना होगा कि इस तरह की राजनीति का प्रत्युतर दूसरी तरह की लोकोपयोगी राजनीति से ही दिया जा सकता है। आज जिन भी राज्यों में सांप्रदायिकता अपनी पैठ बना रही है, उसे सर्वधर्म समभाव की भावना से ही निर्मूल किया जा सकता है। भारत आज जिस संक्रमण काल से गुजर रहा है, उसे उससे सिर्फ धर्मनिरपेक्षता ही बचा सकती है। वैसे तो बहुत पहले ही लिख गए है,
जिगर की खबर है न दिल की खबर,
मगर लड़ रही है नजर से नजर,
ये सब जिनके है खून से हाथ तर
वही थे मसीहा वही चारागर।
(डिस्क्लेमर: यह लेखक के निजी विचार हैं)