एक दलित का आत्मदाह और हमारा लोकतंत्र

–हरे राम मिश्र- देश के लोकतांत्रिक इतिहास में अपनी तरह की शायद यह पहली घटना रही होगी जब एक दलित मतदाता द्वारा अपने मताधिकार का इस्तेमाल न कर पाने के कारण मतदान केन्द्र के बाहर ही आत्मदाह कर लिया गया। उत्तर प्रदेश के बरेली जिले के देवचरा गांव (नई बस्ती) निवासी हरी सिंह जाटव द्वारा […]

Publish: Jan 06, 2019, 12:18 AM IST

एक दलित का आत्मदाह और हमारा लोकतंत्र
एक दलित का आत्मदाह और हमारा लोकतंत्र
- span style= color: #ff0000 font-size: large हरे राम मिश्र- /span p style= text-align: justify strong दे /strong श के लोकतांत्रिक इतिहास में अपनी तरह की शायद यह पहली घटना रही होगी जब एक दलित मतदाता द्वारा अपने मताधिकार का इस्तेमाल न कर पाने के कारण मतदान केन्द्र के बाहर ही आत्मदाह कर लिया गया। उत्तर प्रदेश के बरेली जिले के देवचरा गांव (नई बस्ती) निवासी हरी सिंह जाटव द्वारा कस्बे के मतदान केन्द्र पर जिस समय आत्मदाह किया गया उस वक्त वहां काफी मात्रा में पुलिस के जवान स्थानीय थाना प्रभारी बीएलओ पीठासीन अधिकारी और आईजी समेत कई प्रशासनिक अफसर मौजूद थे। लेकिन किसी ने भी उसे ऐसा करने से नही रोका। हरी सिंह जाटव मतदान केन्द्र के सामने आग का गोला बन दौड़ता रहा और मतदान केन्द्र पर मौजूद निर्दयी प्रशासनिक कर्मचारी मूक बने मौत का तमाशा देखते रहे। यह मानवता के लिहाज से भी बेहद शर्मनाक है और पूरी प्रशासनिक मशीनरी की संवेदन शून्यता का शर्मनाक उदाहरण है। जब वह जल गया तब उसे बरेली जिला अस्पताल भेजने के बाद प्रशासन ने अपने कर्तव्य से इति श्री कर ली और मीडिया के मार्फत यह प्रचार शुरू कर दिया कि हरी सिंह जाटव तो एक पियक्कड़ था। उनके लिए एक जिन्दा आदमी का आंखों के सामने जल जाना बिल्कुल सामान्य घटना थी। /p p style= text-align: justify दरअसल यह घटना सत्रह अप्रैल की है। बरेली के देवचरा बूथ के सबसे निचले अफसर बीएलओ द्वारा हरी सिंह जाटव उनकी पत्नी तथा मां को मतदान की पर्ची उपलब्ध नहीं कराई गयी थी। मतदान के लिए पर्ची न मिलने से वोट देने के लिए जितनी भी बार वह लाइन में लगता स्थानीय पुलिस वाले उसे निकालकर लाइन से अलग कर देते और उससे मतदान पर्ची मांगते तथा बेइज्जत करते। उसका नाम भले ही मतदाता सूची में था लेकिन किसी ने कोई सहायता नहीं की। सुबह सात बजे से नौ बजे तक तीन प्रयास के बाद जब वह वोट देने में सफल नही हुआ तो उसने अपने ऊपर कैरोसीन डालकर आग लगा ली। बुरी तरह जल जाने के बाद उसने मतदान केन्द्र पर ही तड़पकर दम तोड़ दिया। कालीन निर्माण कारीगर हरी सिंह वोट डालने के लिए एक दिन पहले ही राजस्थान से बरेली आया था। /p p style= text-align: justify हरी सिंह जाधव का यह आत्मदाह इस मुल्क के लोकतंत्र के सामने कई सवाल खड़े करता है। आखिर यह कैसा लोकतंत्र है जहां एक व्यक्ति को उसके संवैधानिक अधिकार से जबरिया वंचित रखा जाता है। आखिर आम जनता के करोड़ो रुपए खर्च कर चुनाव आयोग द्वारा मतदाता को वोट जरूर करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। बड़े बड़े महंगे विज्ञापन दिए जाते है। और इसी लोकतंत्र में एक दलित को अपनी लोकतांत्रिक भागीदारी से वंचित रखने का षडयंत्र किया जाता है। यह सब क्या है? आखिर इस आत्मदाह के लिए किसकी जिम्मेदारी तय की जाएगी? आखिर बूथ पर उपस्थित पोलिंग पार्टी ने मतदान के लिए हरि सिंह की मदद क्यों नही की? आखिर इस आत्मदाह के लिए मतदान केन्द्र पर मौजूद पूरी पोलिंग पार्टी पर हत्या का मुकदमा क्यों न दर्ज किया जाए? क्योंकि इन सबकी नालायकी की वजह से वैध मतदाता होते हुए भी हरि सिंह जाधव वोट नहीं डाल पाया और हताशा में आत्मदाह तक कर बैठा। /p p style= text-align: justify हरी सिंह की पूरी कहानी वोटर बनने की प्रक्रिया पर भी गंभीर सवाल उठाती है। उसके पास घर बनाने तक की भी जगह नहीं थी। पांच बच्चों और बूढ़ी मां समेत सात आदमियों की परवरिश का भार मजदूरी कर अकेले उठाते हुए वह देवचरा कस्बे में कई वर्षें से किराए पर यहां-वहां रह रहा था। किराए पर रहने के कारण उसका मतदाता पहचान पत्र कई वर्षों तक सिर्फ इसलिए नही बन सका था क्योंकि उसका कोई स्थाई ठिकाना ही नही था। सवाल यह है कि क्या जिस व्यक्ति के पास कुछ नहीं हो वह इस मुल्क का नागरिक नहीं हो सकता? क्या वोट देने का अधिकार संपत्ति के होने पर ही मिलता है? आखिर इस देश में एक बड़ा तबका बेहद गरीब और घूमन्तू है। उसके पास घर बनाने तक को जगह ही नहीं है। क्या उस तबके की लोकतंत्र में भागीदारी नहीं होनी चाहिए? यह सवाल मौजूं है कि क्या इस लोकतंत्र में संपत्तिहीनों के लिए कोई स्थान नही है? आखिर हाशिए के इन लोगों की लोकतांत्रिक व्यवस्था में भागीदारी कैसे सुनिश्चित की जाए? आखिर आजादी के साठ साल बीत जाने के बाद भी हमारी राजनीति में इन वर्गों के लिए कोई ठोस विजन क्यों नही है? /p p style= text-align: justify यही नहीं गरीब भूमिहीन और दलितों से जिनके पास कोई ठिकाना नही है परिवार में निरक्षरता है की वोटर आईडी कार्ड बनाने के नाम पर सरकारी कर्मचारियों द्वारा एक बड़ी रकम की वसूली की जाती है। हरी सिंह भी इसका शिकार हुआ था। एक दलित व्यक्ति को मतदाता पहचान पत्र बनवाने के लिए तीन साल कोशिश करनी पड़ी। अफसरों को पैसे देने तक पड़े और उसके बाद भी वह लोकतंत्र के बड़े उत्सव में मतदान नही कर पाया। वह वोट देकर यह जानना चाहता था कि पैसा खर्च करके उसने जो वोटर आईडी कार्ड बनवाया है वह असली है भी या नही? चूंकि यह कार्ड एक पहचान पत्र के बतौर उपयोग होता है लिहाजा इसके बिना अन्य सरकारी सुविधाओं के बारे में सोचना ही व्यर्थ है। अकेले देवचरा मोहल्ले में कई ऐसे दलित परिवार हैं जिनके या तो नाम ही मतदाता सूची से गायब हैं या फिर उनके पास वोटर आईडी कार्ड नहीं है। जाहिर है यह सब किसी खास राजनैतिक मकसद के तहत किया जाता है कि दलित वर्ग के लोग मुख्य धारा में दलितों की बात करने वाली पार्टियों को वोट देकर मजबूत न कर सकें। यह लोकतंत्र विरोधी मानसिकता पूरे देश में सवर्ण और संघी मानसिकता के कर्मचारियों द्वारा बड़े षातिर तरीके से इस्तेमाल की जाती है। दलितों को लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व से वंचित करने के पीछे वोट देने से रोकने की एक बड़ी साजिश सरकारी अमले के साथ मिलकर रची जाती है ताकि किसी खास राजनैतिक दल को मजबूत रखा जा सके। किसी खास प्रत्याशी के विपक्षी को कम वोट मिलें और लगातार राजनीति में उनका दबदबा बना रहे। /p p style= text-align: justify दरअसल दलितों में जब से राजनैतिक चेतना आई है उनमें जाति आधारित गोलबंदी काफी तेज हुई है। ऐसे में अब यह प्रयास आम हो चला है कि इन्हें वोट ही न डालने दिया जाए ताकि उनके विरोधियों गैर दलितों को भारी अंतर से जीत जाने का मौका मिल सके। मतदान केन्द्र पर प्रशासन द्वारा जानबूझ कर किसी खास मकसद से दलित समुदाय के लोगों को वोट देने से रोकने के लिए साजिशें रची जाती है।  यही वजह है कि दलित बस्तियों में मतदाता पर्ची नहीं बांटी जाती। उनके नाम वोटर लिस्ट से हटा दिए जाते हैं। यही नहीं दलित बस्तियों में एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जिनका मतदाता पहचान पत्र बनाया ही नही गया है। वे वोटर ही नहीं है। महाराश्ट्र में तकरीबन चौवन हजार दलितों के नाम मतदाता सूची से नदारद होने का मामला अभी अखबारों में उठा था। यही नहीं आज भी दलितों का वोट फर्जी तरीके से डाल दिया जाता है। सवाल यह है कि क्या ऐसा करके लोकतंत्र की बुनियाद को ही नहीं खोदा जा रहा है? /p p style= text-align: justify कुल मिलाकर हरी सिंह के इस आत्मदाह ने हमारे लोकतंत्र के सामने कई सवाल खड़े किए हैं। आखिर इस तरह से लोकतंत्र को कैसे मजबूत रखा जा सकेगा जहां किसी खास जाति को एक साजिश के बतौर वोट देने से लोकतंत्र में भागीदार होने से रोका जाता है। समय रहते इन सवालों के हल निकालने होंगे क्योंकि इन्हीं सवालों के उत्तर में एक सामंजस्य युक्त बेहतर समाज के बीज छिपे हैं। क्या देश की राजनीति इसके लिए तैयार है? /p