सिर्फ कंपनियों का मुनाफा मत देखिए जनाब

– रीना मिश्रा – बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के दबाव के आगे घुटने टेकते हुए नरेन्द्र मोदी सरकार ने देश में विदेशी दवाओं के क्लिनिकल ट्रायल का रास्ता बेहद आसान कर उनके लिए अथाह मुनाफे का दरवाजा खोल दिया है। अब विदेशों में मंजूर किसी भी दवा का क्लिनिकल ट्रायल देश में बेहद आसानी से किया […]

Publish: Jan 18, 2019, 02:01 AM IST

सिर्फ कंपनियों का मुनाफा मत देखिए जनाब
सिर्फ कंपनियों का मुनाफा मत देखिए जनाब
strong - रीना मिश्रा - /strong p style= text-align: justify बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के दबाव के आगे घुटने टेकते हुए नरेन्द्र मोदी सरकार ने देश में विदेशी दवाओं के क्लिनिकल ट्रायल का रास्ता बेहद आसान कर उनके लिए अथाह मुनाफे का दरवाजा खोल दिया है। अब विदेशों में मंजूर किसी भी दवा का क्लिनिकल ट्रायल देश में बेहद आसानी से किया जा सकेगा। विदेशों में मंजूर दवाओं या वैक्सीन के क्लिनिकल ट्रायल के लिए मंजूरी देने का अधिकार अब देश के ड्रग कंट्रोलर जनरल को दे दिया गया है। इससे पहले किसी भी दवा के क्लिनिकल ट्रायल के लिए तीन स्तरों पर स्क्रीनिंग की एक कठिन व्यवस्था थी जो कि विदेशी कंपनियों को रास नही आ रही थी। नियमों को उदार बनाने के पीछे मोदी सरकार का तर्क था कि दवाओं के ट्रायल की मंजूरी में जरूरत से ज्यादा विलंब होता है। विदेशी दवा कंपनियां इस तीन स्तरीय प्रक्रिया का काफी समय से विरोध कर रही थीं। /p p style= text-align: justify इस नई व्यवस्था के बीच खबर यह भी है कि विदेश में बनी कैंसर की दो दवाओं को भारत में बिना क्लिनिकल ट्रायल के ही उपयोग की मंजूरी मिल सकती है। इन दवाओं के नाम एफ्लिबरसेप्ट और ट्रासटुजुमैब हैं। एफ्लिबरसेप्ट कोलन और रेक्टम कैंसर में उपयोग होती है और इसे अमेरिका का फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन विभाग पहले मंजूरी दे चुका है। इसे एक निजी कंपनी ने बनाया है। ट्रासटुजुमैब ब्रेस्ट कैंसर की दवा है। इन दोनों दवाओं को भारत में बनाने और बेचने की अनुमति देने की मांग लंबे समय से हो रही थी। अब स्वास्थ्य मंत्रालय की दवाओं से संबंधित मामलों की टेक्निकल कमेटी ने इनको देश में बनाने बेचने और आयात करने की सिफारिश कर दी है। /p p style= text-align: justify गौरतलब है कि इस समय दुनिया का फार्मा उद्योग लगभग तीन सौ बिलियन डाॅलर का है। भारतीय फाॅर्मा उद्योग सन् 2020 तक लगभग 45 बिलियन डाॅलर का हो जाएगा। सन् 2012 में यह 18 बिलियन डाॅलर का था वहीं सन् 2005 में यह केवल 6 बिलियन डालर का था। सात सालों में तीन गुना विकास भले ही हुआ लेकिन देश के गरीब नागरिकों पर अवैध क्लिनिकल ट्रायल किए जाने की सबसे ज्यादा घटनाएं इसी समय रिकार्ड की गईं। चूंकि भारत दवाओं का बहुत बड़ा बाजार है इसलिए ज्यादातर विदेशी कंपनियां दवाओं के निर्माण बिक्री और बेहद सस्ते और कानूनी झंझटों से मुक्त क्लिनिकल ट्रायल के लिए देश का रुख कर रही हैं और मोदी सरकार देश के गरीबों की कीमत पर उनका खैरमकदम करने को आमादा है। /p p style= text-align: justify देश में दवाओं के क्लिनिकल ट्रायल और मंजूरी देने का मामला हमेशा से ही विवादित रहा है। ड्रग कंट्रोलर जनरल के कार्यालय ने कुछ अर्सा पहले यूपीए सरकार के कार्यकाल के दौरान 30 ऐसी दवाओं को भारत में बनाने और बेचने की मंजूरी दी थी जिनका देश में क्लिनिकल ट्रायल ही नहीं हुआ था। इस मामले में स्वास्थ्य मामलों की संसदीय समिति ने कड़ा रुख अख्तियार करते हुए सरकार से कार्रवाई करने को कहा था लेकिन मामले में दोषियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नही हुई। /p p style= text-align: justify बात यहीं तक सीमित नही है। विदेशी कंपनियां गैर कानूनी तरीके से देश के गरीबों पर चोरी छिपे लगातार क्लिनिकल ट्रायल करती ही रहती हैं। चिन्ताजनक तो यह कि जिस व्यक्ति पर क्लिनिकल ट्रायल हो रहा है उसे मालूम भी नही होता। यह उस व्यक्ति के मूल अधिकारों का हनन और दंडनीय अपराध है। बांझपन दूर करने की दवाओं का क्लिनिकल ट्रायल मुंबई की धारावी झुग्गी की नौजवान किशोरियों पर कुछ साल पहले किया गया था जिसमें कि कई लड़कियों के डिंब बनने स्थाई तौर पर बंद हो गए और वे बांझ हो गईं। उन्हें कोई मुवाबजा भी नही दिया गया। यही नहीं देश में आपातकालीन गर्भ निरोधक के रूप में बाजार में बिक रही कई दवाइयां बिना किसी क्लिनिकल ट्रायल के ही उपलब्ध हैं। यौन क्षमता बढ़ाने के तेल दवाइयां एबोर्शन पिल्स बिना किसी क्लिनिकल ट्रायल के ही बाजार में बिक रही हैं। झारखंड और छत्तीसगढ़ के आदिवासियों पर कैंसर हेपिटाइटस मिर्गी और पोलियो जैसी दवाओं के क्लिनिकल ट्रायल हो रहे हैं जिससे कि उन्हें स्थाई अपंगता अंधापन मानसिक विकृति सहित कई नुकसान उठाने पड़ रहे है। लेकिन सरकार ने कोई ध्यान नही दिया। कई अवसरों पर तो कंपनियां मुवाबजे से ही मुकर चुकी हैं। /p p style= text-align: justify जहां तक क्लिनिकल ट्रायल से हुए नुकसान या फिर मौत के बाद मिलने वाली मुवाबजा राशि की बात है वह हास्यास्पद स्तर तक कम है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने मुवाबजे के लिए एक फॉर्मूला तैयार किया है जिसके तहत स्थाई विकलांगता पर महज 6.4 लाख रुपये का मुआवजा तय किया गया है। जबकि अमेरिका में ऐसे ही मामलों में प्रति व्यक्ति न्यूनतम मुआवजा तीन लाख डॉलर यानी करीब 1.80 करोड़ है। गरीब देश नाइजीरिया में फाइजर कंपनी ने ऐसे ही केस में 84 लाख का मुआवजा अदा किया है। अभी इस मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में चल रही है। कोर्ट में सरकार की ओर से दिए गए इस फाॅर्मूले में कहा गया है कि मृत्यु पर अधिकतम आठ लाख मुआवजा दिया जाएगा। सौ फीसदी विकलांगता पर आठ लाख का 80 फीसदी मुआवजा दिया जा सकता है। इसका मतलब यह हुआ कि सौ फीसदी विकलांगता में पीडि़त को अधिकतम 6.4 लाख मिलेगा। आखिर इतना कम मुवाबजा क्यों? /p p style= text-align: justify इस समय देश में लगभग तीन हजार दवाओं के क्लिनिकल ट्रायल चल रहे हैं। इनमें से लगभग सभी विदेशी दवा कंपनियों द्वारा कराए जा रहे हैं। मोटे तौर पर देश में हर साल छह सौ मरीज दवा परीक्षणों की भेंट चढ़ रहे हैं। भारत गैर कानूनी क्लिनिकल ट्रायल का हब बन चुका है। अगर दुनिया के 25 लोगों पर दवाओं का क्लिनिकल ट्रायल चल रहा है तो उसमें 16 भारतीय हैं। इसका सीधा मतलब यह है कि ज्यादातर कंपनियां क्लिनिकल ट्रायल के लिए भारत का ही रुख कर रही हैं। /p p style= text-align: justify कुल मिलाकर मोदी सरकार ने विदेशी दवा कंपनियों द्वारा देश में चोरी छिपे किए जा रहे क्लिनिकल ट्रायल पर लगाम लगाना तो दूर उन्हें खुलकर ऐसा करने की छूट दे दी है। अब वे गरीबों पर जैसा चाहें वैसा प्रयोग करें। इसके लिए न तो उन्हें सरकार से डरने की जरूरत है और न ही ज्यादा मुवाबजा बांटने की जरूरत। सवाल यह है कि क्या आम आदमी के स्वास्थ्य व हित से विदेशी निवेश ज्यादा बड़ा हो चुका है। शायद मोदी सरकार की प्राथमिकता इन कंपनियों का हित चिंतन है। इस देश के गरीबों पर इन छूटों की क्या मार पड़ेगी इससे मोदी का कोई सरोकार नही है। यह मोदी की जन विरोधी राजनीति का एक और नमूना है। /p p style= text-align: justify /p