Rahat Indori: मुशायरा उनके बिना जीने की तरकीब कहां से लाएगा

Poet Rahat Indori: मैं मर जाऊं तो मेरी अलग पहचान लिख देना, खून से पेशानियों पर हिन्दुस्तान लिख देना

Updated: Aug 12, 2020, 12:20 PM IST

photo courtesy : Deccan herald
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आप हिंदू, मैं मुसलमान, ये ईसाई, वो सिख, यार छोड़ो, ये सियासत है, चलो इश्क करें... 

सियासत पर इस कदर नर्म मगर पैना तंज कसने वाला महबूब शायर अब नहीं रहा। यह ख़्याल भी ख़्याल की जमीं पर उतर नहीं रहा है। कितनी ही मुलाक़ातों के किस्से ताज़ा हो उठे। कितने ही मुशायरे आँखों के सामने से गुजर गए। वो ठहाके, वो ग़ज़ल पढ़ने का ख़ास अंदाज़, वो लहजा, वो तरन्नुम, वो इत्मीनान, वो बेक़रारी, वो महफ़िल, वो तंज गहरे, वो मोहब्बत की बातें अब न होंगी? इस सोच से ही विचार पनाह माँग रहे हैं। 

यार छोड़ो ये सियासत है, चलो इश्क करें... राहत साहब ने तब कहा था जब देश में CAA और नागरिकता क़ानून का विरोध हो रहा था। इसके पहले वे कह चुके थे... 

सभी का खून है शामिल यहाँ की मिट्टी में

किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है...

पूरी दुनिया में अपने अल्हदा अंदाज़ से शायरी कह कर मुशायरे लूट लेने वाले राहत इंदौरी का यह ज़बर्दस्त रंग रहा। ऐसी रचनाशीलता जिसमें सिर्फ़ मोहब्बत नहीं, चुनौती भी थी। खुद चुनौती बनकर दुनिया से लोहा लेने का माद्दा भी था। तभी तो उनका यह शेर सैकड़ों बार सुना गया। बार बार फ़रमाइश कर करके सुना गया : 

वो चाहता था कि कासा ख़रीद ले मेरा

 मैं उस के ताज की क़ीमत लगा के लौट आया...

राहत इंदौरी का शायराना मिज़ाज था ही ऐसा। उनकी कलम ने जहां सियासी तंज रचे तो मोहब्बत पर भी आला दर्जे का कलाम रचा। ज़रा इस शेर की नरमी महसूस कीजिए ...

उस की याद आई है, साँसों ज़रा आहिस्ता चलो

धड़कनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है। 

राहत इंदौरी की पहचान के कई हवाले हैं। वे ग़ज़ल के शागिर्द भी थे और उस्ताद भी। उनकी शायरी में मोहब्बत का कोमल राग भी है तो विद्रोही और व्यंग्य का पाषाण भी। विचारों में जितने सूफ़ीवादी थे रहन सहन में उतने ही सादा।अपने आसपास के शब्दों और मुहावरों को ग़ज़ल में पिरोकर जब वे पेश करते तो आधी रात के बाद मुशायरों में उन्हीं के लिए दाद गुंजा करती थी।

दिल रखने को हम कह सकते हैं कि राहत इंदौरी साहब हमारी यादों में, अपने कलाम में ज़िंदा रहेंगे। उन्हें ऑनलाइन कभी भी सुना जा सकता है। मगर ये तो छलावा है। हक़ीक़त यह है कि राहत साहब नहीं रहे। यह कोई वक्त है जाने का? अभी कितना कुछ सुनना बाकी रह गया?  राहत साहब ने ही कहा है : 

आँखों में पानी रखो, होंठों पे चिंगारी रखो। 

ज़िंदा रहना है तो तरकीबें बहुत सारी रखो। 

मुशायरा उनके बिना जीने की तरकीब कहाँ से लाएगा?